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भारतीय औरत का राजनीतिक मर्म

जेण्डर सामाजिक निर्मिति है। जेण्डर के प्रयोग को लेकर हिन्दी में समानधर्मा सही शब्द औरत या महिला है। जबकि लिंग के पर्याय के रूप में दोनों लिंग-स्त्री और पुरूष का बोध होता है। लिंग के रूप में जन्म प्रकृत्या होता है। किन्तु जेण्डर के रूप में औरत का निर्माण किया जाता है। कोई भी स्त्री जन्म से औरत के गुण लेकर पैदा नहीं होती। बल्कि उसके निर्माण में परिवार, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की केन्द्रीय भूमिका होती है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में औरत की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज औरत की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह दो सौ साल पहले नहीं था।अत: औरत के बारे में बात करते समय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का होना प्राथमिक शर्त्त है। ऐतिहासिक नजरिए के बिना औरत को समझना मुश्किल है। औरत सिर्फ सामयिक ही नहीं है। वह सिर्फ अतीत भी नहीं है। उसे काल में बांधना सही नहीं होगा। उसकी पहचान को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। वह जितनी दिखती है उससे ज्यादा छिपी रहती है। वह प्रक्रिया है यही वजह है सबसे ज्यादा लोचदार है। किसी के साथ और किसी भी स्थिति में सामंजस्य बिठा लेती है। वह कब बदलेगी,उसका नया रूप कैसा होगा,नये रूप में वह समाज के साथ किस रूप में पेश आएगी इत्यादि सवालों के तयशुदा उत्तर हमेशा गलत साबित हुए हैं।

मसलन् यह सवाल किया जा सकता है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम में औरतों ने व्यापक स्तर पर हिस्सा लिया और राजीतिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कुर्बानी भी झेली। किन्तु यही औरत आजादी के बाद घर की चौहद्दी में वापस क्यों लौट गई? ऐसा क्यों हुआ कि जिस औरत ने सामाजिक-राजनीति जीवन में अपने लिए व्यापक जगह तैयार की थी और राजनीति-सामाजिक मसलों पर दृढ़ रवैय्या अपनाया था, उसका समाज में पूरी तरह राजनीतिक प्रक्रियाओं में रूपान्तरण क्यों नहीं हुआ? हमारे स्वाधीनता संग्राम ने औरत को राजनीतिक शिरकत का मौका दिया, गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के नेतृत्व में आन्दोलन का अवसर दिया, सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में महिला सैन्य दल भी बना, महिला संगठनों के जुझारू दल भी बने किन्तु आजादी मिलने के बाद यह संघर्षशील औरत अचानक गायब हो गई। यह औरत कहां गुम हो गई? इसके बारे में अभी तक ठीक से कुछ भी पता नहीं है।

आजादी के बाद सत्ता को औरत के राजनीतिक-सामाजिक रूप की बजाय उसका घर की चारदीवारी में सक्रिय रूप ही ज्यादा पसंद था। इस औरत के गायब हो जाने का दूसरा प्रधान कारण था हमारी स्वाधीनता का पुंसवादी चरित्र। औरतें स्वाधीनता संग्राम हो या क्रांतिकारी कतारें हों सब जगहों पर नेतृत्व और फैसलेकुन कमेटियों का हिस्सा थीं। उसे राजनीतिक शिरकत के लिए घर से बाहर निकाला गया था, उसका ब्रिटिश शासकों के खिलाफ दबाव के औजार की तरह इस्तेमाल किया गया। उसके साम्राज्यवाद विरोधी भावबोध को स्त्री की स्वाधीनताकामी चेतना में रूपान्तरित नहीं किया गया। उसे देश की आजादी के लिए मर मिटने के लिए तैयार किया गया। देश की पहचान के साथ जोड़ा गया। ऐसा करते समय हम यह भूल गए कि देश या राष्ट्र पुंसवाद का प्रतीक होता है। हमारे आजाद भारत के नए नक्शे में औरत में परंपरागत औरत को ही रखा गया। यही वजह है कि जब स्वाधीन भारत का जन्म हुआ तो देश नया था, मर्द नया था, मध्यवर्ग नया था, मजदूर वर्ग नया था, किन्तु औरत का वही पुराना रूप था जिससे निकलकर उसने देश की मुक्ति की कामना की थी ?

यह सवाल महिला संगठनों से भी पूछा जाना चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ कि स्वाधीनता संग्राम की आग में तपकर जो औरत सामने आयी थी वह अचानक गैर-राजनीतिक कैसे बन गयी? महिला संगठनों ने आजादी के तुरंत बाद औरत को राजनीतिक तौर पर जगाए रखने का काम क्यों नहीं किया? आजादी के तुरंत बाद कांग्रेसियों, सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों ने स्त्री जागरण की उपेक्षा क्यों की?

जो औरत 15 अगस्त 1947 तक राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए महत्वपूर्ण मानी गयी वही औरत आजादी के बाद राजनीति के परिदृश्य से गायब क्यों हो गई? क्या सिर्फ राजनीतिक शिरकत से औरत की चेतना बदल जाती है? हमारे स्वाधीनता-संग्राम ने क्या स्त्री -चेतना को बदला था? क्या भारत-विभाजन के दौरान हुए साम्प्रदायिक कत्लेआम का औरत की चेतना के अ-राजनीतिकरण में अवदान है? क्या भारत विभाजन ने अ-राजनीति की राजनीति की वैचारिक जमीन तैयार की थी? क्या इसके कारण स्त्री-चेतना का साम्प्रदायिकीकरण हुआ था? इन सवालों का अभी तक संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है।

यह सच है कि साम्प्रदायिक राजनीति का जो सिलसिला आजादी के आन्दोलन के दौरान शुरू हुआ उससे महिलाओं की राजनीतिक चेतना पर भी बुरा असर हुआ और भारत विभाजन में जिस तरह लाखों औरतों को नारकीय यंत्रणाएं झेलनी पड़ीं,कत्लेआम और शोषण का सामना करना पड़ा उसके कारण महिलाचेतना और महिलाओं की राजनीतिक शिरकत को गहरा धक्का लगा। महिलाओं का अ-राजनीतिकरण हुआ।

जिस समय सन् 1980 के बाद महिला आन्दोलन तेजी से आगे बढ़ रहा था। उसी समय बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि आंदोलन के बहाने शुरू हुई साम्प्रदायिक लहर ने महिलाओं को भी प्रभावित किया। पहलीबार महिलाओं के साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठन सामने आए, साम्प्रदायिक हिंसाचार में औरतों को सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों ने प्रयास शुरू किए। दंगों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी देखी गई।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

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