व्यक्ति और परिवार

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divorceभारत में तलाक की बढ़ती वारदातों के पीछे समाज में पश्चिम का अंधानुकरण मुख्य कारण है!पश्चिम के समाज में और हमारे समाज के संरचनात्मक सोच में बड़ा अंतर है! पश्चिम के अनुसार व्यक्ति का परिवार से, परिवार का समाज से, परिवार से नगर का, नगर से राज्य का, राज्य से राष्ट्र का, और राष्ट्र से विश्व का सम्बन्ध संकेन्द्रिक (कन्सेन्ट्रिक) वृत्त का है!जिसमे व्यक्ति केंद्र है और शेष सब एक दूसरे को बाहर से घेरे हुए वृत्त हैं!लेकिन सब एक दूसरे से अलग अलग हैं! जबकि भारतीय दृष्टिकोण है कि व्यक्ति से शुरू होकर शेष सभी उससे संकुलाकार (स्पाइरल)की तरह जुड़े हैं जिसमे हर बड़ा घेरा छोटे घेरे को घेरता तो है लेकिन उससे अलग नहीं होता और यह सम्बन्ध पिंड से ब्रह्माण्ड तक जुड़ा रहता है!तथा भारतीय चिंतन में समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति नहीं बल्कि परिवार होता है! यह ‘परिवार’ नाम की संस्था भारत कि अद्भुत देन है! लेकिन पश्चिमी सोच में व्यक्ति ही प्रमुख है और यही कारण है कि आज पश्चिमी सोच के बढ़ने के कारण परिवार के सभी सदस्य, विशेषकर नयी पीढ़ी, अपने व्यक्तिगत अधिकारों, अपनी इच्छाओं और अपने लाभ के बारे में ही सोचने लगे हैं जबकि परिवार में सब एक दूसरे की इच्छाओं का ध्यान रखते हैं और सबको साथ लेकर चलते हैं!
आगरा विश्वविद्यालय केसमाज विज्ञानं संस्थान के पूर्व निदेशक डॉरामनारायण सक्सेना जी और डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के समाज शास्त्र विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री मदन मोहन सक्सेना जी द्वारा लिखित पुस्तक “सोशल पैथोलॉजी” मे एक चैप्टर “पारिवारिक विघटन” पर भी था!उन्होंने लिखा था, ” परिवार सबसे घनिष्ठ सामाजिक समूह है! किसी भी समूह की एकता उसके विभिन्न सदस्यों के मूल्यों और मनोवृत्तियों की समानता पर निर्भर करती है!परिवार की एकता कुछ मनोवैज्ञानिक बातों पर निर्भर करती है!जब यह बातें उपस्थित होती हैं तो परिवार को हम एक संगठित इकाई कहते है! जब वे अनुपस्थित होती हैं, या जब बाहरी अथवा अथवा अंदरुनी दबावों के कारण उनकी ससंजक शक्ति ढीली पड जाती है, तब परिवार विघटित हो जाता है!पारिवारिक एकमत्य के नष्ट हो जाने से स्थायी घरेलु विरोध उत्पन्न हो सकते हैं जिससे शांतिमय सम्बन्ध कठिन हो जाते हैं, चाहे परिवार की एकता खुले तौर पर भंग न भी हो!पारिवारिक विघटन का उत्कट उदाहरण हमें तलाक में मिलता है!”
सुसंगठित परिवार के लिए उसके सदस्यों की उद्देश्यों की एकता, व्यक्तिगत आकंक्षाओं की एकता जिसमे सदस्य अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को परिवार के कल्याण के लिए पीछे रख देते हैं, सदस्यों की अभिरुचियों की एकता आदि आवश्यक हैं!
पारिवारिक विघटन उस समय प्रारम्भ होता है जब परिवार के सामूहिक उद्देश्य के स्थान पर व्यक्तिगत हित अथवा सोच को प्राथमिकता दी जाने लगती है!विघटन के अनेकों कारण हो सकते हैं! स्वास्थय, आर्थिक परिस्थितियां,सम्बन्धियों का अनावश्यक हस्तक्षेप,मानसिक विकार,मद्यसेवन,नपुंसकता, बाँझपन, अस्वाभाविक यौन प्रवृत्तियाँ,बौद्धिक, सामाजिक, धार्मिक अथवा सहनशीलता की कमी, एक दूसरे के साथ तालमेल और सामंजस्य का अभाव, आदि अनेकों कारण हैं जिनसे परिवार का विघटन होने लगता है!
आजकल संयुक्त परिवार तो कम ही रह गए हैं! और परिवार नियोजन के कारण परिवार का साइज भी छोटा हो गया है! संयुक्त परिवार में एक दूसरे के सुख दुःख की चिंता करने वाले अनेकों लोग रहते थे लेकिन छोटे परिवारों में पति, पत्नी और एक या दो बच्चे ही रह गए हैं! और ऐसे में छोटी छोटी बातों पर भी आपसी समझ क कमी के कारण विघटन की नौबत आ जाती है!
अक्सर भिन्न पारिवारिक और सामाजिक/ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आये पति पत्नी के विचारों और मनोवृत्तियों में भारी अंतर होता है!अगर दोनों लोग एक दूसरे को समझें और थोड़ा बहुत झुकें और एक दूसरे के विचारों के साथ सामंजस्य करने की कोशिश करें तो फिर परिवार रुपी गाड़ी सही चलती है! लेकिन अगर इसमें लड़के के माता पिता या लड़की की माता पिता अनावश्यक हस्तक्षेप करेंगे तो मामला उलझकर विघटन की ओर जा सकता है!अनेक माता पिता अपने बेटे या बेटी के साथ हर समय चिपके रहते हैं और पति पत्नी ( बेटे बहु या बेटी दामाद) को एक दूसरे के साथ निजी समय बिताने का समय ही नहीं छोड़ते तो इससे अक्सर भारी तनाव पैदा हो जाता है और स्थिति विस्फोटक हो जाती है! ऐसी स्थिति से माँ, बाप को बचना चाहिए और बेटे-बहु या बेटी दामाद को साथ बैठने का अवसर देना चाहिए और ऐसे समय में जहाँ तक संभव हो उनके बीच में न बैठें!

2 COMMENTS

  1. ​​
    बंधुवर गुप्ता जी –
    आप ने परिवार संस्था के विखंडित होने की आशंका जताई है – आशंका निर्मूल नहीं है लेकिन स्थिति इतनी निराशा जनक नहीं है क्योंकि परिवार समाज की मूल इकाई है. समय के साथ संस्था में भी परिवर्तन हो रहे हैं जैसे अब संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार बन रहे हैं. भारतीय समाज में भी पश्चिमी समाज की तरह परिवर्तन आ रहा है और इस के लिए कोई चेष्टा नहीं की जा रही है. यह एक सहज प्रक्रिया के अंतर्गत हो रहा है. हाँ सांस्कृतिक परिवर्तन को लेकर भारतीय व्यक्ति अवश्य ही एक चौराहे पर है. यह चौराहा आर्थिक दबाव से ग्रस्त है. मैं स्वयं पश्चिमी समाज में हो रहे परिवर्तनों को समीप से देख रहा हूँ.

    डॉ. RN सक्सेना की बात मैंने इस लिए कही थी कि मैंने उनको बहुत ही पास से देखा,पढ़ा, सुना और समझा है. 1958 में वे देहरादून के DAV कालिज से आगरा चले गए थे सामाजिक संस्थान के निदेशक बने. उन का विद्यार्थी होने के नाते उन से काफी चर्चा होती थी. 1962 तक मैं उन के सीधे संपर्क में था. लखनऊ में डॉ राधा कमल मुकर्जी थे तो कानपूर में डॉ RN मुकर्जी ने कमान सम्हाल रखी थी. मेरी सूचना के अनुसार आज भी वे काफी सक्रिय हैं . देहरादून में भट्ट साब थे. अब तो कुछ ही लोगों से संपर्क रह गया है. यह सब कहने के पीछे मेरा उद्देश्य मात्र इतना ही था कि मेरी मान्यता है कि परिवार सदा सुरक्षित है जब तक इस पृथिवी पर नर और नारी हैं . बहुत से आदिवासी समाज हैं जो अब परिवार के रूप को अपना रहे हैं ……आशा है मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे .
    आप की रूचि और उत्तर के लिए आभारी हूँ – धन्यवाद

  2. बंधुवर गुप्ता जी – आप का लेख अच्छा है लेकिन आप ने तलाक को वारदात कह दिया । यह एक पारिवारिक/सामाजिक घटना है – वारदात नहीं । डॉ राम नारायण सकसेना और मदन मोहन सकसेना के युग बीत गए – 50 वर्ष से भी अधिक । अब तक परिवार संस्था पर काफी रिसर्च हो चुकी हैं – आप के विचार पढ़ने में अच्छे लगे – धन्यवाद

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