अमेरिका के साथ सैन्य समझौतों पर सावधानी की आवश्यकता है

शैलेन्द्र चौहान
भारत और अमेरिका ने 12 अप्रैल 2016 को महत्वपूर्ण सैन्य सहयोग समझौता किया है। इसके तहत दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे के सामान और सैन्य ठिकानों का प्रयोग मरम्मत और आपूर्ति के लिए कर सकेंगी। रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर और भारत के दौरे पर आए अमेरिका के रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने साफ किया कि समझौते पर आने वाले कुछ ‘हफ्ते’ या ‘महीने’ के अंदर दस्तखत हो जाएगा और इसका मतलब भारत की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती नहीं है। भारत और अमेरिका द्विपक्षीय रक्षा समझौते को मजबूती देते हुए अपने-अपने रक्षा विभागों और विदेश मंत्रालयों के अधिकारियों के बीच मैरीटाइम सिक्योरिटी डायलॉग स्थापित करने को राजी हुए हैं। दोनों देशों ने नौवहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानून की जरूरत पर जोर दिया है। दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी को देखते हुए संभवत: ऐसा किया गया है। साउथ ब्लॉक में प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौसेना स्तर की वार्ता को मजबूत करने का निर्णय किया। दोनों देश निकट भविष्य में ‘व्हाईट शिपिंग’ समझौता कर समुद्री क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाएंगे। कार्टर ने कहा कि भारत और अमेरिका रक्षा वाणिज्य एवं प्रौद्योगिकी पहल के तहत दो नई परियोजनाओं पर सहमत हुए हैं। इसमें सामरिक जैविक अनुसंधान इकाई भी शामिल है। वहीं भारत-अमेरिका के बीच बढ़ते रक्षा सहयोग पर पर्रिकर ने कहा, ‘चूंकि हमारे बीच सहयोग बढ़ रहा है, इसलिए इस तरह के समझौते को लागू करने के लिए हमें व्यवस्था बनानी होगी। इस परिप्रेक्ष्य में रक्षा मंत्री कार्टर और मैं आने वाले महीनों में लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) करने को सहमत हैं।’ एलईएमओए साजो-सामान सहयोग समझौते का ही एक रूप है, जो अमेरिकी सेना और सहयोगी देशों के सशस्त्र बलों के बीच साजो सामान सहयोग, आपूर्ति और सेवाओं की सुविधाएं मुहैया कराता है। प्रस्तावित समझौते के बारे में पर्रिकर ने कहा कि मानवीय सहायता जैसे नेपाल में आए विनाशकारी भूकंप के समय अगर उन्हें ईंधन या अन्य सहयोग की जरूरत होती है तो उन्हें ये सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। कार्टर ने कहा, ‘अगर इस तरह की कोई स्थिति बनती है इससे सहयोग मिलेगा। साजो- सामान अभियान का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह मामला दर मामला होगा।’ उन्होंने कहा कि समझौते से जुड़े ‘सभी मुद्दों’ का समाधान हो गया है। पहले भारत का मानना था कि साजो-सामान समझौते को अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन के तौर पर देखा जाएगा। बहरहाल एलएसए के साथ भारत हर मामले के आधार पर निर्णय करेगा। एलएसए तीन विवादास्पद समझौते का हिस्सा था, जो अमेरिका भारत के साथ लगभग एक दशक से हस्ताक्षर करने के लिए प्रयासरत था। दो अन्य समझौते हैं- संचार और सूचना सुरक्षा समझौता ज्ञापन तथा बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट। अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि साजो सामान समझौते से दोनों देशों की सेनाओं को बेहतर तरीके से समन्वय करने में सहयोग मिलेगा, जिसमें अभ्यास भी शामिल है और दोनों एक दूसरे को आसानी से ईंधन बेच सकेंगे या भारत को कल पुर्जे मुहैया कराए जा सकेंगे।
इस समझौते का दूसरा पक्ष यह है कि भारत इस बात पर चिंतित रहा है कि अगर लॉजिस्टिक्स अग्रीमेंट हुआ तो वह सीधे तौर पर अमेरिका के सैन्य संगठन के साथ बंध जायेगा जिससे उसकी सैन्य आजादी पर असर पड़ेगा। असल में यह समझौता परस्पर लाभ वाला दिखता जरूर है, किन्तु है यह एकतरफा! आखिर अमेरिका में जाकर, भारत उसकी ज़मीन का इस्तेमाल क्यों करना चाहेगा ? और वक़्त आने पर क्या वह इस्तेमाल कर भी पाएगा ? जाहिर है, यह पूरी कवायद अमेरिका के पक्ष में कहीं ज्यादा झुकी हुई है तो भारत के लिए इस बात का भी खतरा है कि कहीं वह पाकिस्तान की तरह अमेरिका के हाथों अपनी स्वायत्तता को ही खतरे में न डाल दे ! दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी को देखते हुए संभवत: ऐसा किया गया है। इसके साथ-साथ साउथ ब्लॉक में प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के बाद दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौसेना स्तर की वार्ता को मजबूत करने का भी निर्णय किया है, तो दोनों देश निकट भविष्य में ‘व्हाईट शिपिंग’ समझौता कर समुद्री क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाएंगे। जाहिर है ये सारी गतिविधियाँ हिन्द महासागर और दक्षिणी चीन सागर क्षेत्र में ही होने वाली हैं और यह खतरा भी उत्पन्न हो सकता है कि कहीं यह शांत क्षेत्र भी तनावग्रस्त न हो जाए। भारत की दुविधा यह है कि वह दबावों से निकलने की बजाय, इसमें उलझने की बेवजह कोशिश करता दिख रहा है। अमेरिका के साथ अभी हाल की जो सैन्य सम्बन्ध बढ़ाने की जो कोशिश हो रही है, उसके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। अमेरिका, भारत के हित में चीन के खिलाफ एक कदम भी नहीं बढ़ाने वाला है, इस बात को भारत को अच्छी तरह समझ लेना होगा। वह जो भी करेगा सिर्फ अपने हित में करेगा। भारत को वह मात्र मोहरे के रूप में इस्तेमाल करेगा। चीन भारत के सभी पड़ोसियों के साथ लगातार संबंध सुधार रहा है और भारत को अपनी दबाव की रणनीति से प्रभावित करने का दांव चल रहा है। इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने जापान, ताइवान, मंगोलिया सहित चीन के पडोसी देशों से मित्रता बढ़ने की कोशिश की। साथ ही बंगला देश और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसियों को भी साधना चाहा। लेकिन लगता है कि यह सब बेमन से किया गया काम था। नेपाल में मोदी का दांव उल्टा पड़ा तो पाकिस्तान में वह कोई प्रभावी हस्तक्षेप नहीं कर पाए। उनकी विशेष रूचि व आकर्षण अमेरिका और पश्चिम के देशों में स्पष्ट दिखाई देता है जहां के वे लगातार दौरे करते रहते हैं। वे अपने पड़ोसियों को बहुत तरजीह नहीं देना चाहते। चीन से संबंध सुधरने में भी उनकी कोई रूचि नहीं दिखाई देती। उन्होंने ने उसे एक दुश्मन देश मान रखा है। दूसरी ओर अमेरिका पाकिस्तान के साथ अपने सम्बन्धों को न केवल यथावत ही रखना चाहता है, बल्कि उसके साथ सैन्य सम्बन्धों एवं व्यापार को भी नयी ऊंचाइयों पर पहुंचता जा रहा है। अमेरिका की दोधारी नीतियों को हम इस बात से ही समझ सकते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को 11 सितंबर 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद से 13 बिलियन यूएस डॉलर दे चुका है। हालाँकि, ये राशि अमेरिका ने पाकिस्तान को आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ने के मकसद से दी है, किन्तु यह बात गारंटी से कही जा सकती है कि इस राशि का आधे से अधिक हिस्सा आतंक को बढ़ावा देने के लिए ही इस्तेमाल हुआ होगा. इस बात को जानते तो सभी हैं, किन्तु इसकी पुष्टि तब हुई जब एक रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ। हालिया ख़बरों के अनुसार, अमेरिकी नेशनल सिक्योरिटी आर्काइव के दस्तावेजों में इस बात का ज़िक्र है कि पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने 2009 में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के कैम्प पर हुए हमले में करीब 2 लाख डॉलर की फंडिंग की थी। भारत, चीन और अपने पड़ोसी देशों के संबंधों में अपनी कूटनीतिक विफलता के बाद अमेरिका से किये जाने वाले ताज़ा सैन्य समझौतों की वजह से रूस को भी नाराज करने की स्थिति में पहुँच गया है। हाल ही में यूरोप में रूस ने अपनी महत्वपूर्ण एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज की है। द्विपक्षीय संबंधों के इतिहास में भारत-रूस संबंध अद्वितीय रहे हैं जो मैत्रीपूर्ण रिश्तों में भौगोलिक दूरी के बावजूद अच्छे पड़ोसी की भांति प्रस्तुत होते रहे हैं। आजादी के आंदोलन में समर्थन से लेकर नियोजित अर्थव्यवस्था के विकास तक, आधारभूत उद्योगों की स्थापना से लेकर रणनीतिक रक्षा सामग्री तक भारत को विभिन्न स्तरों पर सोवियत संघ/रूस का अपेक्षित सहयोग प्राप्त हुआ है। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ का एक महाशक्ति के रूप में उभार और भारत द्वारा गुट-निरपेक्षता नीति के अनुसरण के कारण दोनों के संबंधों में सामंजस्य का द्वंद्व पैदा करते रहे हैं फिर भी तमाम वैश्विक मुद्दों यथा-उपनिवेशवाद की समाप्ति, रंगभेद नीति का विरोध, वैश्विक पूंजीवादी प्रभुत्व का अंत आदि के संबंध में दोनों के दृष्टिकोण में समानता के तत्व विद्यमान रहे हैं। और शीतयुद्ध काल में दोनों के मध्य स्वाभाविक मैत्री व घनिष्ठ संबंधों का माहौल बना रहा है। सामरिक या सामयिक चाहे जैसी भी परिस्थितियां रही हों दोनों विश्वसनीय सहयोगी सिद्ध हुए हैं। रूस सहयोग के तमाम क्षेत्रों में मदद मुहैया कराने के साथ ‘संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद’ में अपना ‘वीटो पावर’ उपयोग कर भारत को अनेक कूटनीतिक अंतर्राष्ट्रीय दबावों से बचाता रहा है। शीतयुद्ध की समाप्ति के पश्चात परिवर्तित अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों ने भारतीय विदेश नीति को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। उदारीकरण के वैश्विक परिदृश्य में ज्यों-ज्यों आर्थिक संबंधों को वरीयता मिलती गई, त्यों-त्यों भारते अपने संबंधों को बहुआयामी स्तर पर शेष दुनिया के साथ जोड़ता गया और शीतयुद्ध काल में गुट निरपेक्षता आंदोलन के अग्रणी राष्ट्र रह चुके भारत ने यूरोपीय संघ और अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी राष्ट्रों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित कर लिए। यह समय की आवश्यकता थी। लेकिन आज की भारतीय कूटनीति पूरी तरह पश्चिम की ओर झुक गयी है। सुदूर पश्चिम से मैत्री और पड़ोसियों से दुश्मनी का खामियाजा भारतीय समाज को क्या यह भविष्य के गर्त में छुपा है। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब- जब ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं भारत ने सदैव मात खाई है। अब इतिहास शायद पुनः अपने को न दोहराए लेकिन इस बात की आशंका तो है ही। इसके प्रति हम सावधानी तो बरत ही सकते हैं। चीन से दुश्मनी किसी तरह भारत के हित में नहीं है। कूटनीतिक संबंधों में सदैव संतुलन की आवश्यकता होती है। भारत अगर इस बात से लापरवाह है तो यह उसकी एक बड़ी कूटनीतिक भूल होगी.

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