वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत-रुस निकटता के मायने

अरविंद जयतिलक

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी पर सोवियत जीत की 75 वीं वर्षगांठ के मौके पर आयोजित रुस की विक्ट्री डे परेड उत्सव में भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की शिरकत और रुसी जवानों के साथ भारतीय जवानों का कदमताल दोनों देशों के रिश्ते को नई ऊंचाई दी है। चीन की लाख मनाही के बावजूद भी रुस ने भारत को एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम देने की प्रतिबद्धता दोहराकर पुनः रेखांकित किया है कि दोनों देश सदाबहार और भरोसेमंद साथी हैं। भारतीय रक्षामंत्री ने भी कहा कि भारत-रुस संबंध एक विशिष्ट एवं विशेष सामरिक साझेदारी है और दोनों देशों के बीच मौजूदा सैन्य संबंध बने रहेंगे। यह अच्छा रहा कि चीन की लाख कोशिश के बावजूद भी भारतीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने अपने चीनी समकक्ष रक्षामंत्री वेई फेंगे से मुलाकात नहीं की। उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया कि दोस्ती और दुश्मनी साथ-साथ नहीं निभ सकती। चीन को कोशिश थी कि रुस को समझा-बुझाकर भारत को एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम दिए जाने से रोक दिया जाए। लेकिन उसकी काली कुटनीति विफल रही। दरअसल इस सिस्टम की खरीद से भारत की रक्षा पंक्ति मजबूत हुई है और वह इस सिस्टम को खरीद चुके चीन के बराबर खड़ा हो गया है। इस सिस्टम की खासियत है कि यह एक बार में 72 मिसाइल दाग सकता है और 36 परमाणु क्षमता वाली मिसाइलों को एक साथ नष्ट कर सकता है। यह सिस्टम अमेरिका के सबसे आधुनिक फाइटर जेट एफ-35 को भी मारकर गिरा सकता है। गौर करें तो यह सिस्टम एस-300 का अपडेटेड वर्जन है जो 400 किमी के दायरे में लड़ाकू विमानों और मिसाइलों को खत्म कर देगा। भारत को यह सिस्टम मिलने से चीन इसलिए खौफजदा है और अब वह युद्ध की स्थिति में भारत को अपने पर बीस पा रहा है। भारत-रुस संबंधों की बात करें तो दोनों देश एकदूसरे के परंपरागत व भरोसेमंद मित्र हैं। दोनों ही मौके दर मौके कंधा जोड़ अपनी विश्वसनीयता साबित करते रहे हंै। दोनों देश रेलवे, फर्टिलाइजर, अतंर्राष्ट्रीय संस्थानों में सहयोग, आतंकवाद व नशीली पदार्थों के खिलाफ साझा जंग और सौर व नाभिकीय उर्जा का शांतिपूर्वक उपयोग जैसे अन्य कई मसलों पर समझौते के साथ-साथ इसरो व रुसी संघीय अंतरिक्ष संगठनों के बीच गगनयान को मूर्त रुप दे चुके हंै। रिश्तों की प्रगाढ़ता और मोदी-पुतिन केमेस्ट्री की चमक का असर है कि दोनों देश आतंकवाद के विरुद्ध तनकर खड़े हैं। रुसी राष्ट्रपति पुतिन कह भी चुके हैं कि आतंकवाद से निपटने के लिए जो भी ताकत हो उसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मतलब साफ है कि रुस आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में भारत के साथ है। याद होगा कि दोनों देश नवंबर 2001 में मास्को घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद से निपटने का संकल्प भी व्यक्त कर चुके हैं और दिसंबर 2002 में भारत की यात्रा पर आए रुसी राष्ट्रपति पुतिन ने हस्ताक्षरित दस्तावेजों में विशेषकर सीमा पर आतंकवाद पर भारत के दृष्टिकोण और पाकिस्तान में आतंकवाद की अवसंरचना को ध्वस्त करने का समर्थन किया। याद होगा 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चार देशों की यूरोपीय यात्रा के दरम्यान भी रुस के साथ दर्जन भर नए करार हुए जिसके तहत दोनों देशों ने भू-रणनीतिक व सामरिक-आर्थिक साझेदारी को नया आयाम की प्रतिबद्धता जतायी। रुस ‘संयुक्त राष्ट्र संघ में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद एवं व्यापक कन्वेंशन’ पर भारत के मसौदे का समर्थन किया। दो राय नहीं कि आतंकवाद पर दोनों देशों के समान दृष्टिकोण से दक्षिण एशिया में शांति, सहयोग और आर्थिक विकास का वातावरण निर्मित होगा। दूसरी ओर रुस जो कि आर्थिक मोर्चे पर भयावह स्थिति का सामना कर रहा है उसे भारत के साथ समझौते से यूरोप और पश्चिम एशिया में उसके सिकुड़ते द्विपक्षीय कारोबार और निवेश की भरपायी करने में मदद मिलेगी। गौर करें तो मौजूदा समय में रुस के समक्ष नियंत्रित अर्थव्यवस्था को बाजार अर्थव्यवस्था में बदलने की चुनौती के साथ वैश्विक और सामरिक मोर्चे पर नैतिक समर्थन की भी दरकार है। दूसरी ओर रुस यूक्रेन और सीरिया मसले पर अमेरिका और यूरोपिय देशों के निशाने पर है। ऐसे में वह सामरिक व कारोबारी समझौते के बरक्स अगर भारत के साथ अपनी विदेशनीति और व्यापारनीति को पुनर्परिभाषित कर रहा है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। भला ऐसी स्थिति में वह चीन की झांसेबाजी में क्यों आएगा। वैसे भी गौर करें तो दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंध है जो कभी भी बदलते राजनीतिक कारकों से निर्धारित नहीं हुआ। संबंधों के अतीत में जाएं तो 1954 में जब अमेरिका ने एशिया को शीतयुद्ध में लपेटने और सोवियत संघ के प्रभाव को सीमित करने हेतु दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सीएटो) और मध्य एशिया संधि संगठन (सेन्टो) का गठन किया तो सोवियत संघ और भारत दोनों ने इसका विरोध किया। लेकिन भारत ने बड़ी सहजता से बे्रजनेव के एशिया की सामूहिक सुरक्षा के उस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया कि वह किसी तीसरे देश के विरोध स्वरुप किसी भी सैन्य संगठन और संधि को स्वीकार करेगा। बावजूद इसके दोनों देशों के बीच खटास पैदा नहीं हुआ। सोवियत संघ ने हिंद-चीन क्षेत्र में शांति, भारत-चीन के मध्य पंचशील सिद्धांत और एशिया व अफ्रीकी देशों के साथ भारत के बढ़ते सशक्त संबंधों का समर्थन किया और कारगिल मसले पर पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी भी दी। 1974 में जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका ने भारत को दी जाने वाली उर्जा संयंत्रों के परमाणु ईंधन की खेप पर रोक लगा दी लेकिन सोवियत संघ ने अमेरिका जैसी तल्खी नहीं दिखायी और परोक्ष रुप से भारत के समर्थन में खड़ा रहा। दिसंबर 1955 में खुश्चेव और बुलगानिन ने भारत की यात्रा के दौरान कश्मीर की धरती से भारत के दृष्टिकोण का समर्थन किया। रुपया और रुबल की कीमतों के विवाद को भी आपसी सहमति से निपटा लिया गया। इसके अलावा भारतीय गेंहू की वापसी को लेकर भी विवाद उठा लेकिन भारत के कडे़ विरोध के बाद उसे वापस लेना पड़ा। खुश्चेव के पतन के उपरांत सोवियत संघ की विदेश नीति में परिवर्तन आया और वह भारत व पाकिस्तान के मध्य समानता के आधार पर संबंध गढ़ने शुरु कर दिए। लेकिन 9 अगस्त, 1971 को भारत व सोवियत संघ के मध्य 20 वर्षीय मैत्री व सहयोग की संधि ने दोनों देशों की दूरियां कम कर दी। नवंबर 1973 में ब्रेजनेव की भारत यात्रा के दौरान तीन महत्वपूर्ण समझौते हुए जिसके तहत बोकारो एवं भिलाई इस्पात कारखानों की क्षमता बढ़ाने, मथुरा तेलशोधक कारखाना लगाने, कलकत्ता भूगर्भ रेलवे विकसित करने तथा मलाजखंड तांबा परियोजना की स्थापना हेतु दीर्घ अवधि की आसान शर्तों पर कर्ज देने की व्यवस्था थी। अप्रैल 1976 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ जिसके मुताबिक सोवियत संघ ने भारत को मशीनी उपकरण देने की हामी भरी तथा भारत के गैर-परंपरागत वस्तुओं को खरीदने की इच्छा जतायी। 1975 में भारत ने सोवियत प्रक्षेपण यंत्र के माध्यम से अपना पहला भू-उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ अंतरिक्ष में छोड़ा। ब्रेजनेव के बाद मिखाईल गोर्बाचोव के समय भी दोनों देशों के रिश्ते मधुर बने रहे। 1986 में गोर्बाचोव ने भारत की यात्रा की और भारत की विभिन्न परियोजनाओं को फलीभूत करने के लिए तकरीबन 3 हजार करोड़ रुपए का कर्ज देने की घोषण की। भारत को सोवियत संघ से पारंपरिक रिश्ते बनाए रखने की चुनौती तब उभरी जब 27 दिसंबर, 1991 को 11 गणराज्यों द्वारा स्वतंत्र देशों का राष्ट्रकुल (सीआइएस) अस्तित्व में आया और मास्को में सोवियत संघ की जगह रुस का झंडा लहराने लगा। लेकिन भारत इस अग्निपरीक्षा में भी खरा उतरा। 1992 में रुस के विदेश राज्य सचिव गेनादी बुर्बलिस की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों ने एकदूसरे को ‘अति विशिष्ट राष्ट्र’ (एमएफएन) का दर्जा प्रदान कर रिश्तों में जान फूंक दी। गौर करें तो भारत भी अपनी स्वतंत्रता काल से ही अंतर्राष्ट्रीय व क्षेत्रीय मसलों पर रुस का समर्थन कर दोस्ती की कसौटी पर खरा रहा है। फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति पुतिन दोनों ने आपसी रिश्तों को सुगंधियों से भर दिया है जिसकी महक दशकों-दशक तक बनी रहेगी। इस दोस्ती में दरार डाल खटास पैदा करना चीन के बूते की बात नहीं है।    

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