सवालों के घेरे में इंदु भूषण जी और उनकी देशी किसान पार्टी

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-आलोक कुमार- bihar11

हाल ही में चुनावों के ठीक पहले बिहार में जाति आधारित एक और नयी राजनीतिक पार्टी का गठन हुआ, नाम है “देशी किसान पार्टी”l ये नयी पार्टी बिहार की सभी सीटों से चुनाव लड़ने का दम्भ भर रही है l कोई नयी व अचरज की बात नहीं है, लोकतन्त्र में सबको चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन स्थापना के पहले दिन से ही इस पार्टी और इसके पुरोधा की मंशा पर सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं l इस पार्टी के संस्थापक व अध्यक्ष इन्दु भूषण जी पाटलीपुत्र संसदीय सीट से अपना भाग्य भी आजमा रहे हैं l ज्ञातव्य है कि इन्दु भूषण जी स्व. ब्रहमेश्वर मुखिया जी ( रणवीर सेना के सबसे सक्रिय संचालकों में से एक, जिनकी हत्या आज से दो वर्ष पहले आरा में कर दी गयी थी) के सुपुत्र हैंl आज की तारीख में पटना के राजनीतिक-गलियारों में पाटलीपुत्र सीट के घमासान की चर्चा ज़ोरों पर है, कारण भी हैं, यहां से लालू जी की सुपुत्री मीसा भारती दो पूर्व लालू –विश्वस्तों ( रामकृपाल यादव जी एवं रंजन यादव जी ) के साथ चुनावी मुकाबले में आमने-सामने  हैं और इन्हीं के बीच अपनी जाति (भूमिहार ) के मतों के पाने की आशा के साथ इंदु भूषण जी भी जूटे हैं l यहाँ आप सबों को बताते चलूं कि इंदु भूषण जी की पूरी राजनीति स्वाजातीय समीकरणों पर ही आधारित है l इन्हें और इनकी पार्टी को केवल और केवल भूमिहारों से ही जोड़ के देखा जा रहा है और चुनावों के परिपेक्ष्य में कोई भी इन्हें बहुत गंभीरता से लेता हुआ नहीं दिख रहा है l

विवादों और नरसंहारों के आरोपों-प्रत्यारोपों के बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि इन्दु भूषण जी के स्व. पिता ब्रहमेश्वर मुखिया जी को मगध और पुराने भोजपुर के इलाकों में खेतिहर लोगों (विशेषकर सवर्ण) का अच्छा समर्थन प्राप्त था और उन में एक संगठनात्मक कौशल भी था l इंदुभूषण जी की तथाकथित ‘अपने लोगों’ के बीच ही वैसी स्वीकार्यता नहीं है जैसी इनके पिता की थीl यहां एक बात और गौरतलब है कि स्व. मुखिया जी को भी राजनीतिक हल्कों में सदैव एक जाति (भूमिहार) से ही जोड़ कर देखा गया और आज भी यथास्थिति ही है, जबकि मेरे विचार में वस्तुस्थिति भिन्न थी lमुखिया जी को खेतिहर किसानों के उस बड़े तबके का प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त था जो नक्सली हिंसा से जूझ रहा था l पुराने भोजपुर, पुराने गया एवं पटना के ग्रामीण इलाकों का एक बड़ा तबका मुखिया जी को नक्सली हिंसा की त्रासदी से ग्रसित अपनी अस्मिता का रक्षक मानता था l इन्दु भूषण जी का सार्वजनिक जीवन में पदार्पण भी मुखिया जी की हत्या के बाद ही हुआ है l

मुखिया जी के जीवनकाल में भी अपने स्वजातियों के बीच ही इंदु भूषण जी की कोई व्यापक व असरदार पहचान या स्वीकार्यता नहीं थी l लोगों ने इन्हें मुखिया जी की हत्या के बाद ही जाना और हत्या के फलस्वरूप उमड़े आक्रोश के कारण मुखिया जी के समर्थकों की सहानभूति व संवेदनाएं इनसे जुड़ीं l इसी सहानभूति और आक्रोश का राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश है इन्दु भूषण जी का राजनीति में पदार्पण l यहां ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि इन्दु भूषण जी किस हद तक अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति केवल अपने पिता की हत्या से हासिल पहचान व सहानभूति से कर पाते हैं l भारत की चुनावी – राजनीति में सहानुभूति का लाभ मिलने के अनेकों उदाहरण हैं लेकिन सहानभूति का लाभ त्वरित ही हासिल व प्रभावी होता है और समय बीत जाने के बाद दूसरे समीकरण इस पर हावी हो जाते हैं l यहां द्रष्टव्य है कि मुखिया जी की हत्या को दो साल होने जा रहे हैं l यहां ये बताना भी जरूरी है कि मुखिया जी ने भी अपने जीवनकाल में (जेल से ही सही) आरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और वहां उन्हें जीत हासिल नहीं हो पायी थी l यहां मेरा मानना है कि चुनावी राजनीति के समीकरणों की ‘रहस्यमयी गाथा’ ही भिन्न होती है जो समय के हिसाब से परिवर्तित भी होते रहती है और उस में क्षेत्रवार विरोधाभास भी समाहित होते हैं l मुखिया जी की हत्या की अनसुलझी कहानी के संदर्भ में एक बड़े वर्ग का एक मत यह भी है कि “मुखिया जी ने संगठित रूप से राजनीति में आने की तैयारी कर रखी थी और यही उनके ‘अपनों’ को खटक भी रही थी , जिसकी परिणति उनकी हत्या के रूप में हुई l”

अगर आज रणवीर सेना के ‘मुखिया जी द्वारा बनाए गए संगठन’ के समर्थन के सहारे इन्दु भूषण जी व उनकी देशी किसान पार्टी  अपनी ‘राजनीतिक नैया’ पार लगाने की उम्मीद पाले बैठे हैं, तो यहां ये बताना जरूरी है कि वह (रणवीर सेना और उसका संगठन) तो पूर्णत: समाप्त ही हो चुका हैl सच तो ये है कि रणवीर सेना का संगठनात्मक ढांचा मुखिया जी के जीवनकाल में ही बिखर चुका था और खुद मुखिया जी, अपनी दमदार शख्सियत के बावजूद, अंतर्विरोधों और अंतर्कलह से जूझ रहे थे l इस सच्चाई को मुखिया जी भली – भांति जान व समझ चुके थे (इसका जिक्र उन्होंने अपनी हत्या से पूर्व के साक्षात्कारों में किया भी था) और अपनी हत्या से पूर्व अपने बिखरे हुए समर्थन के आधार को ही एकजुट एवं लामबंद करने की कोशिश में जुटे थे l इस वस्तुस्थिति से इन्दु भूषण जी भी वाकिफ ही होंगे और ऐसी परिस्थितियों में एक नयी राजनीतिक पार्टी के साथ चुनावों में उतरने का फैसला स्वतः ही उनको सवालों व संदेहों के घेरे में खड़ा करता है l

यहाँ सबसे अहम प्रश्न उभर कर आता है कि बिहार की राजनीति में केवल स्वजातीय मतदाताओं के दम पर क्या इन्दु भूषण जी व उनकी पार्टी को कुछ प्रभावी व दूरगामी परिणाम हासिल हो पाएंगे ? इंदु भूषण जी का स्वजातीय ( भूमिहार ) मतदाता आज बिहार में भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ा दिख रहा है l बिहार में लगभग 3 फीसदी भूमिहार मतदाता हैं l बिहार का चुनावी इतिहास बताता है और ये सच भी है कि अकेले भूमिहार मतदाताओं के भरोसे चुनावी नैया पार नहीं लगाई जा सकती है l हाँ एक बात जरूर है कि अपनी कम संख्या के बावजूद भूमिहार राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप कुशल रणनीतिकार की भूमिका जरूर अदा करते आए हैं l आज बिहार में भूमिहार मतदाता नीतीश के खिलाफ गोलबंद दिख रहे हैं और नीतीश के विकल्प के तौर पर वो अपनी संभावनाएं भारतीय जनता पार्टी में तलाशते दिख रहे हैं l आज की तारीख में बिहार का भूमिहार मतदाता भारतीय जनता पार्टी व उसके गठबंधन को छोड़कर किसी भी नए प्रयोग और विकल्प को आजमाने के मूड में नहीं है l बिहार के भूमिहार बहुल क्षेत्रों में अनेकों मतदाताओं ने साक्षात्कार के क्रम में ये बताया कि “आगामी चुनावों में वो अपने मतों का विभाजन होते देखना नहीं चाहेंगे क्यूँकि उनका एकमात्र उद्देश्य नीतीश की हार सुनिश्चित करना है l” मैं ने उनसे जब ये पूछा कि नीतीश से ऐसी नाराजगी की वजह क्या है ? तो ज़्यादातर लोगों का यही कहना था कि “हम लोगों ने नीतीश को जबर्दस्त समर्थन दिया था लेकिन बावजूद इसके नीतीश ने हम लोगों को ही ढाल बना कर हम लोगों को ही हाशिए पर धकेलने का काम किया l” ऐसी परिस्थितियों में इन्दु भूषण जी को भूमिहारों का कितना समर्थन मिल पाएगा इसका अंदाजा लगाना कोई गूढ़-वैज्ञानिक रहस्य सुलझाने जितना कठिन नहीं है l निःसन्देह इन्दु भूषण जी भी इससे अनभिज्ञ नहीं ही होंगे और इसके बावजूद चुनावी मैदान में खुद और अपने उम्मीदवारों को उतारने का उनका फैसला किसी दूसरे ‘राजनीतिक खेल’ की ओर स्वतः ही इशारा करता हुआ दिखता है l

पटना के राजनीतिक गलियारों और मीडिया के लोगों में इस बात की चर्चा ज़ोरों पर है कि इन्दु भूषण जी की ‘लांचिंग’ के पीछे लालू जी का हाथ है l लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान जी ने ये बात तो खुल कर ही कह दी हैl आज रामविलास जी भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनावी जंग में शामिल हैं और उनका ये बयान बिना भाजपा की सहमति के आया हो ऐसा भी नहीं हो सकता है ! भाजपा ने भी बिना भूमिहार मतदाताओं का मिजाज भांपे रामविलास जी को ऐसा बयान देने का “ग्रीन-सिग्नल” तो नहीं ही दिया होगा ! आज की तारीख में बिहार का भूमिहार मतदाता लालू की तमाम कोशिशों के बावजूद लालू जी के पक्ष में कहीं भी खड़ा नहीं दिखता है और आज बिहार में लालू जी के पास भूमिहार मतों में विभाजन कराने का इन्दु भूषण जी को छोड़कर कोई दूसरा “हथियार” भी उपलब्ध नहीं है lवैसे भी जंग में उतरने के ठीक पहले अगर ‘धारदार’ हथियार की उपलब्धता ना हो तो “किसी भी और कैसे भी हथियार” से काम चलाना ही पड़ता है, भले ही वो “भोथरा” ही क्यूँ ना हो ! लालू जी के साथ दूसरी सबसे बड़ी मजबूरी पाटलीपुत्र संसदीय सीट के रूप में है जहाँ से लालू जी की सुपुत्री डॉ. मीसा भारती अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने जा रही हैं और उनके सामने लालू जी के पूर्व के विश्वासपात्र रामकृपाल यादव भाजपा के उम्मीदवार की तौर पर मजबूती से खड़े दिख रहे हैं l पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र में लगभग 2.50 लाख भूमिहार मतदाता हैं जो रामकृपाल के भाजपा उम्मीदवार होने की वजह से उनके साथ मजबूती से गोलबंद दिख रहे हैं l ऐसे में लालू जी को निःसन्देह एक ऐसे ‘छद्यम उम्मीदवार’की जरूरत थी जिसकी पीठ पर उनकी पार्टी का ठप्पा नहीं लगा हो l यहाँ अगर एक पल को ये भी मान लिया जाए कि इंदु भूषण जी की उम्मीदवारी के पीछे कोई “खेल“ नहीं है तो भी एक बात गौरतलब है कि अगर चमत्कारिक परिस्थितियों में भूमिहार मतों की 50% पोलिंग ( यानि 125000 सवा  लाख मत ) भी इंदु भूषण जी के समर्थन में होती है तब भी इंदु भूषण जी जीत हासिल करते दिखाई नहीं देते l रही बात दूसरी जातियों की तो इन्दु भूषण जी को किसी अन्य जाति का कोई भी वोट नहीं मिलने वाला है l ऐसा नहीं है कि इन्दु भूषण जी को इन समीकरणों की जानकारी नहीं होगी और यहीं उनकी मंशा और नीयत सवालों के घेरे में आती है! यहीं इन्दु भूषण जी और उनकी पार्टी, पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र के एक भूमिहार मतदाता के द्वारा बोली गई ठेंठ बिहारी बोली में बोलूँ तो  “वोट-कटवा” की भूमिका निभाते हुए नजर आते हैं l

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