भोग-विलास से तृप्ति असंभव वासनाओं को मोड़े अध्यात्म की ओर

तृप्ति और संतोष का सीधा संबंध मन से है और जब तक मन तृप्त नहीं होता है तब तक जीवन में न संतोष आ सकता है, न आनंद का अनुभव ही संभव हो पाता है। दुनिया के सारे भोग-विलास और वैभव हमारे कब्जे में आ जाएं, विलासिता का भरपूर इस्तेमाल हम करने लगें, अकूत धन संपदा के हम स्वामी बन जाएं, विश्वस्तरीय लोकप्रियता का चरम शिखर प्राप्त कर लें अथवा कुबेर के खजाने की चाभी हमारे हाथ में आ जाए, हम इसके बावजूद कुछ और प्राप्त कर लेने की फिराक में लगे रहेंगे।

मन कभी भरता नहीं है उसे भरे होने का आभासी अहसास कराना पड़ता है। जो लोग दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की बात करते हैं वे भी अशांत, अतृप्त और उद्विग्न हैं और उन्हें पूछो तो कहेंगे – अभी बहुत कुछ पाना शेष है।

बात सांसारिक सुखों की हो, शरीर के तमाम प्रकार के सुखों और भोगों की हो अथवा मनुष्य को गुदगुदाने से लेकर आनंदित कर देने तक की सम्पूर्ण यात्रा की, वासनाओं की कोई सीमा नहीं होती और न इनकी परिपूर्णता कोई पा सकता है।

जीवनानंद और आत्मतृप्ति के लिए यह जरूरी है कि हम वासनाओं के प्रवाह और उसके हश्र को समझें तथा जो प्राप्त हो रहा है उसमें संतोष करते हुए वासनाओं का प्रवाह किसी ओर दिशा में मोड़ें। इसके लिए सबसे सस्ता और सहज मार्ग है वासनाओं की संपूर्ण ऊर्जाओं की धाराओं को अध्यात्म या कर्मयोग की ओर मोड़ दें।

वासनाओं का दमन करना श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि भोग ऊर्जा का जो भण्डार वासनाओं के रूप में हमारे शरीर में होता है वही किसी बिन्दु पर यू टर्न लेकर योग की दिशा में प्रवृत्त होता है और बाद में जाकर इन्हीं ऊर्जाओं से योग मार्ग में सफलता प्राप्त होती है।

वासनाओं का दमन करने का सीधा सा अर्थ है कि उस महानतम ऊर्जा का दमन, जो हमें योग मार्ग का आश्रय लेने के लिए जरूरी होती है। इसलिए दमन का विचार त्यागकर इन ऊर्जाओं का रूपान्तरण योग में किया जाए तो इसके बेहतर परिणाम सामने आते हैं।

यही कारण है कि जब भोग ऊर्जाओं का बिना सोचे समझे उपयोग होता है तब व्यक्ति अधोगामी होता है और अधःपतन को प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिन लोगों में भोग ऊर्जा का अभाव होता है वे भी योग को प्राप्त नहीं कर पाते हैं।

दुनिया में ऎसा कोई उदाहरण नहीं है जिसमें ऎसे व्यक्ति को योग सिद्ध हो गया हो या सिद्धि प्राप्त हुई हो जिसमें मौलिक भोग ऊर्जा का अभाव रहा हो। वस्तुतः ऊर्जा वही होती है, आवश्यकता उसके दमन या संहार की नहीं है बल्कि इनके क्रमिक रूपान्तरण की ही है। और ऎसा हो जाने पर ही व्यक्ति ऊध्र्वगामी होता है और ऎसे ही लोग मूलाधार से लेकर सहस्रार चक्र तक की यात्रा को सम्पन्न कर पाने और समाधि अवस्था प्राप्त करने का सामथ्र्य रखते हैं।

जो लोग गृहस्थ धर्म में हैं उनके लिए विभिन्न आश्रमों का विधान इसीलिये है कि गृहस्थाश्रम में शरीर का सम्पूर्ण सुख प्राप्त कर लें और उस स्थिति में आ जाएं जहां उनके लिए शरीर सुख की किसी प्रकार की कल्पना बाकी न रहे, न इस बारे में कोई जिज्ञासा ही शेष रहे।

गृहस्थ धर्म और सम सामयिक भोग-विलास की प्राप्ति के बाद यदि कोई योग मार्ग की ओर जाएगा तो उसे सफलता ज्यादा अच्छी प्रकार मिलेगी और योग सिद्धि भी संभव है। लेकिन गृहस्थ धर्म में रहने के बावजूद जो लोग भोग ऊर्जा का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं या नहीं करते हैं, वे यदि योग मार्ग का आश्रय ले भी लें तो कुछ समय बाद चक्रों की यात्रा रुक जाती है।

इसलिए क्रम से आगे बढ़ें और योग मार्ग से भ्रष्ट होने लायक स्थितियां अपने सामने रखें ही नहीं ताकि बार-बार नीचे के चक्रों की ओर देखना नहीं पड़े। जो लोग बाल ब्रह्मचारी या वास्तविक संन्यासी हैं, संसार को छोड़ कर असली वैराग्य धारण कर चुके हैं वे लोग सीधे योग मार्ग का आश्रय प्राप्त कर सकते हैं। मूल बात यह है कि जो हो वह मन से होना चाहिए। शरीर तो मन के अनुसार चलता है। जीवन की तमाम वासनाओं को अध्यात्म की ओर मोड़ें और योग मार्ग का आश्रय ग्रहण करें।

 

 

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