-गौतम मोरारका
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले पखवाड़े के दौरान जम्मू कश्मीर की ताजा हिंसक घटनाओं के पीछे पाकिस्तान की एक खास किस्म की रणनीति की ओर संकेत किया था। पार्टी ने आधिकारिक तौर पर आरोप लगाया था कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को आसान और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए अलगाववाद प्रभावित जिलों में बाकायदा ट्रकों में भर-भरकर पत्थर लाए जाते हैं। प्रति ट्रक एक हजार से बारह सौ रुपए की दर से पत्थरों की सप्लाई होती है और पथराव करने वाले युवकों को पांच सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। जैसी कि रिवायत है, केंद्र और राज्य सरकार ने तब भाजपा के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया था। देश का प्रमुख विपक्षी दल जब इतने विश्वास और प्रामाणिक विवरण के साथ जानकारी दे रहा हो तब उस पर संजीदगी से ध्यान देना लाजिमी था। शायद ऐसा करके सरकार जवाबी रणनीति बना सकती थी और कश्मीर में देश को हुआ नुकसान सीमित किया जा सकता था। भाजपा ने तो यहां तक बताया था कि पत्थरबाजी की घटनाओं पर पचास करोड़ रुपए की राशि खर्च की जा चुकी है।
बहरहाल, अब जाकर केंद्र और राज्य को इस बात का अहसास हुआ है कि पत्थरबाजी कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है बल्कि बाकायदा फिलस्तीन की तर्ज पर रणनीति के बतौर इस्तेमाल की जा रही है। फिलस्तीन में इजराइल के विरुध्द चल रहे जन-आंदोलन में इसे आसान, सस्ती किंतु प्रभावी रणनीति के तौर पर अपनाया गया था। दुनिया भर में आतंकवाद के मुद्दे पर घिरने के बाद पाकिस्तान इसे जम्मू-कश्मीर में दोहराने की कोशिश कर रहा है। यह प्रत्यक्ष आतंकवाद नहीं है लेकिन परिणाम लगभग उसके जैसे ही घातक हैं।
कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर किए जा रहे हमले भी (न सिर्फ हथियारों से बल्कि प्रचार माध्यमों में भी) इसी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जरूरत तो इस बात की थी कि अपनी जान जोखिम में डालकर घाटी में आतंकवादियों का सामना कर रहे सुरक्षा बलों के हाथ मजबूत किए जाते और उन्हें जमीनी हालात को ध्यान में रखते हुए जवाबी कार्रवाई करने की छूट दी जाती। उल्टे सीआरपीएफ को तथाकथित असंयमित प्रतिक्रिया के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला का कहना है कि पत्थरबाजी करने वालों को गोली के जरिए जवाब नहीं दिया जा सकता। मुझे नहीं लगता कि कई दशकों से आतंकवाद और सशस्त्र विद्रोहों का सामना करते आए सुरक्षा बल बिना किसी कारण के गोलीबारी पर उतर आए होंगे। जब हजारों की संख्या में आम लोग आक्रामक अंदाज में जुलूस निकाल रहे हों और उनके भीतर आतंकवादी तत्व भी घुसे हुए हों तब सिर्फ सुरक्षा बलों से संयम की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
खुफिया एजेंसियों ने हाल ही में कुछ कश्मीरी नागरिकों के बीच टेलीफोन पर हुई बातचीत को सुनकर पता लगाया था कि घाटी में प्रदर्शनों के दौरान हो रही मौतों के पीछे पाकिस्तानी एजेंटों का भी हाथ है। लेकिन अब तक केंद्र और राज्य सरकार ने इन घटनाओं के लिए सीधे-सीधे पाकिस्तान को जिम्मेदार नहीं ठहराया है। सिर्फ भाजपा ने स्पष्ट तौर पर पाकिस्तानी भूमिका का जिक्र किया है। केंद्र सरकार शायद पाकिस्तान के साथ जारी बातचीत की ताजा प्रक्रिया के मद्देनजर इस दिशा में चुप्पी साधे हुए है। लेकिन गौर करने की बात यह है कि क्या दूसरा पक्ष, पाकिस्तान, भी ऐसा ही नजरिया अपना रहा है? राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संयम दिखाकर हम भारत विरोधी तत्वों और कश्मीर की जनता को सही संकेत नहीं दे रहे।
एक ओर पूरा देश कश्मीर की घटनाओं से चिंतित है और दूसरी तरफ राज्य सरकार की निष्क्रियता और अदूरदर्शिता ने हालात को और नाजुक बना दिया है। उमर अब्दुल्ला भले ही मुख्यमंत्री हों लेकिन राज्य के जमीनी हालात पर उनका नियंत्रण बहुत ढीला दिखाई देता है। श्री अब्दुल्ला एक अनुभवहीन राजनेता हैं जिनके लिए कश्मीर जैसे जटिलताओं से भरे राज्य का नेतृत्व संभालना बहुत आसान नहीं है। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस के भीतरी मतभेदों के चलते उन्हें अपने ही मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्यों का सहयोग भी नहीं मिल रहा। कांग्रेस के स्थानीय नेता शायद यह सोचकर सहयोग नहीं कर रहे कि उमर संरकार का संकट बढ़ने पर उन्हें सत्ता संभालने का मौका मिल सकता है। विपक्षी दलों को देखकर भी निराशा होती है जिनके नेताओं के रिश्तेदारों पर पत्थरबाजों को भड़काने का आरोप लगाया जा रहा है।
जम्मू कश्मीर की ताजा गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है। सर्वदलीय बैठक की पहल तो ठीक है लेकिन मात्र बैठकों से समस्या का समाधान नहीं होगा। वहां पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों, विपक्षी दलों और लापरवाह प्रशासन जैसे सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है। लंबे समय बाद कश्मीर के हालात को एक बार फिर प्राथमिकता के आधार पर संभाले जाने की जरूरत है। राष्ट्रीय महत्व के चिंताजनक मुद्दों पर विपक्ष की उपेक्षा करने की नहीं बल्कि उससे सहयोग लेने की जरूरत है।
श्री गौतम जी बिलकुल सही कह रहे है. इस तरह की घटनाएं स्वत नहीं हो रहे है बल्कि यह पूर्ण प्रायोजित और पूर्व नियोजित होते है. सरकार अभी भी गंभीरता से नहीं ले रहे है. समय रहते सक्त कदम नहीं उठाये गए तो गंभीर परिणाम होंगे.