विकलांग सिस्टम की भेंट चढ़ते निर्दोष मासूम ?

0
440

                    प्रभुनाथ शुक्ला 

पिछले दिनों महाराष्ट्र के भंडारा जिला अस्पताल में 10 मासूम नवजात बच्चों की मौत एक इत्तेफ़ाक नहीँ है, यह हमारे नाकामयाबिल व्यवस्था का सबसे नक्कारा उदारहण है। राज्य की उद्धव ठाकरे सरकार ने घटना की निष्पक्ष जाँच का आदेश दिया है। पीड़ित परिवारों को पाँच- पाँच लाख रुपए का मुआवज़ा भी मिलेगा। हम कह भी सकते हैं कि एक चुनी हुई सरकार इससे अधिक और कर भी क्या सकती है। पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज कर जाँच शुरू कर दी है। यह वक्त राजनीति का नहीँ। सत्ता और विपक्ष का नहीँ, देश का है। मरने वाले नवजात सरकार और सत्ता के नहीँ देश की निधि थे जिन्हें हमने खोया है। लेकिन अब इस घटना को हम भूल जाएगें फिर किसी नई का इंतजार करेंगे। क्योंकि हम सिस्टम को सुधारना नहीं चाहते हैं।

हादसे पूर्व नियोजित नहीँ होते, क्योंकि मौत एक प्राकृतिक सत्य है। शायद एक सरकार का दायित्व यहीं तक ख़त्म हो जाता है। लेकिन ऐसा नहीँ है जैसा हम सोचते हैं। हादसों को हम रोक नहीँ सकते हैं, लेकिन नियंत्रित कर सकते हैं। कोरोना के संकट और संक्रमण कालीन दौर में इस प्रतिबद्धता को दुनिया ने देखा है। भारत विषम परिस्थियों से लड़कर बाहर निकला है। कई महीनों तक हमने लॉकडाउन में गुजारे हैं। सरकारों ने अपने दायित्व को बखूबी निभाया है। आज पूरी दुनिया भारत कि तारीफ कर रही है। अमेरिका, ब्रिटेन और अनगिनत यूरोपीय देश अभी तक उस संकट से नहीँ निकल पाएं हैं। हमने दृढ़ संकल्प से यह लड़ाई जीती है। फ़िर क्या हम विकलांग सिस्टम को नहीँ सुधार सकते हैं।

सत्ता बदलने से व्यवस्था नहीँ बदलती है यह एक जिंदा सच है। अगर ऐसा होता तो शायद सिस्टम की लापरवाही से मासूम बच्चों की निरीह मौतें न होतीं। इस तरह की घटनाएँ सिर्फ महाराष्ट्र में नहीँ पूरे देश में घटती हैं। लेकिन उसके बाद भी केंद्र या राज्य सरकारें सिर्फ ट्विटर पर संवेदनाएँ और मुआवजे की घोषणा कर अपने लोकतंत्रीय दायित्व की इतिश्री कर लेती हैं। फ़िर एक दूसरे हादसे का इंतजार करती हैं। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेताओं ने हादसे पर दुःख जताया है। निश्चित रुप से यह बड़ा हादसा है संवेदनाएँ व्यक्त करना हमारा राजधर्म है। लेकिन क्या इतने भर से हमारी जिम्मेदारी ख़त्म हो जाती है। सवाल उठता है कि क्या इस तरह के हादसे नहीँ होंगे या नहीँ हुए हैं। अगर हुए हैं तो सरकारें और सिस्टम ने संज्ञान क्यों नहीँ लिया।

निश्चित रुप से हादसों को हमने चुनौतियों के रुप में कभी नहीँ लिया। महाराष्ट्र या दूसरे राज्यों में इस तरह की घटनाएँ होने के बाद भी व्यवस्था में सुधार नहीँ देखा गया है। सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र के बजाय अन्य हादसों ने भी हमारी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया है। गुजरात के सूरत में मई 2019 में एक कॉम्प्लेक्स में लगी भीषण आग से 19 बच्चों की मौत हो गई थी। स्कूल बसों के रेल से टकराने और स्कूल वाहनों के गैस किट लीक होने या फटने से देश में अनगिनत मासूम बच्चों की मौत हो चुकी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुछ साल पूर्व एक स्कूली वैन के ट्रेन से टकराने से दो दर्जन से अधिक स्कूली बच्चों की मौत हुई थी। तमिलनाडू में कुंभकोणम में हादसा 2014 में मध्याह्न भोजन बनाने के दौरान स्कूल में लगी आग से 94 बच्चों की मौत मौत हो गई थी। हमारा मकसद किसी सरकार को बदनाम करने का नहीँ सिर्फ आइना दिखना है।

अस्पताल के न्यूबॉर्न केयर यूनिट में बताया गया है कि 17 बच्चे रखे गए थे जिसमें 10 की मौत हुई है। आग लगने के बाद पूरी केयर यूनिट धुएँ के गुब्बार से भर गई जिसकी वजह से नवजात शिशुओं की मौत हुई होगी। माना जा रहा है कि शॉर्ट सर्किट के कारण हादसा हुआ है। जबकि परिजनों ने अस्पताल पर लापरवाही का आरोप लगाया है। पुलिस ने केस दर्ज कर घटना की जाँच शुरू कर दिया है। आग कैसे लगी यह जांच का विषय है। अस्पताल के जिस यूनिट में आग लगी वह बेहद संवेदशील क्षेत्र होता है। वहां नवजात शिशुओं के परिजनों को भी विषम स्थिति में जाने की अनुमति होती है। क्योंकि नवजातों में संक्रमण फैलने का खतरा रहता है। घटना रात की बताई गई है। सवाल उठता है कि उस दौरान न्यूबॉर्न केयर यूनिट में कितने स्टॉप की ड्यूटी थी। घटना के वक्त कौन ड्यूटी कर रहा था। ड्यूटी पर तैनात स्टॉप न्यूबॉर्न केयर यूनिट में मौजूद था कि नहीँ। अगर मेडिकल स्टॉप वहां मौजूद था तो किसी न किसी को घटना के कारण का पता होना चाहिए।

केयर यूनिट में 10 नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है जबकि मेडिकल स्टॉप पर कोई फर्क नहीँ पड़ता है। यह भी अपने आप में सवाल है। अग्निशमन यंत्र वहां उपलब्ध थे कि नहीँ। उसका उपयोग हुआ कि नहीँ यह सब जांच के दायरे में आते हैं। हालाँकि मेडिकल स्टॉप ने सात बच्चों को बचा लिया है। फिलहाल यह जांच विषय है हम इसके पूर्व किसी नतीजे पर नहीँ पहुँच सकते हैं, लेकिन सवाल तो उठा सकते हैं। उद्धव सरकार ने भी दुध से जलने के बाद छाछ भी फूँक कर पीना चाहती है। राज्य सरकार ने सभी सरकारी अस्पतालों के जाँच का आदेश दिया है। यह अच्छी बात है जाँच होनी भी चाहिए और घटना के दोषियों को सख्त सजा भी मिलनी चाहिए। क्योंकि यह विकलांग और लापरवाह सिस्टम को शर्मशार करने वाली घटना है। हम मानते हैं कि इसमें सरकार का कोई गुनाह नहीँ है, लेकिन जिम्मेदारी तो बनती है।

स्वास्थ्य सुविधाओं पर केन्द्र और राज्य सरकारों का भारी भरकम बजट होता है, लेकिन सरकारी अस्पतालों की स्थिति किसी से छुपी नहीँ है। महाराष्ट्र में लापरवाही की लपटों में मासूम बच्चों की मौत होती है तो उत्तर प्रदेश में आक्सीजन के अभाव और दिमागी बुखार से हर साल दर्जनों बच्चों की सांसे थमती हैं। हालाँकि योगी सरकार ने स्वास्थ्य सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया है। बिहार में चमकी भी बच्चों की मौतें सुर्ख़ियां बनी हैं। हमने सिस्टम को अभी तक जवाबदेह नहीँ बनाया या वह जवाबदेह बनना नहीँ चाहता है।

देश में सरकारी स्वास्थ सुविधाओं का हाल कैसा है यह आम आदमी से छुपा नहीँ है। यहीं वजह है कि लोग निजी अस्पतालों की तरह रुख करते हैं। यह नहीँ है कि सरकारी अस्पतालों में अच्छे डाक्टर नहीँ हैं या सुविधाएँ नहीँ हैं। सब कुछ है भी तो सिस्टम नहीँ है। भंडारा के जिला अस्पताल में जिन 10 नवजातों की मौत हुई है उसका अनुभव वह माताएं ही बता सकती हैं। सोशलमीडिया के वाल पर चस्पा संवेदनाएँ उन जख्मों को नहीँ भर सकती हैं । जो माँ अपने नवजात को स्तनपान करा मातृत्व का अनुभव भी न कर सकी और क्रूर हादसे ने निर्दोष उसके मासूम को निगल डाला। यह पीड़ा तो वहीँ बता सकती है।

केंद्रीय या राज्य सरकार के मंत्रालयों की तरफ़ से स्वास्थ सुविधाओं को लेकर समय- समय पर एडवाइजरी भी जारी जारी की जाती है। अस्पतालों की केयर यूनिट, आक्सीजन, बिजली की गड़बड़ी, दवाओं की उपलब्धता, मेडिकल स्टॉप की कार्यशैली और सरकारी अस्पतालों में मरीजों के साथ उनके व्यवहार की शायद कभी निगरानी की जाती तो इस तरह के हालात न बनते। जब कभी मुख्यमंत्री या स्वास्थ्य मंत्री के इतर सचिवों का दौरा अस्पताल विशेष तक ही होता है। जहाँ निरीक्षण के दिन सारे मानक पूरे किए जाते हैं, लेकिन मुख्यमंत्री और मिनिस्टर के जाते ही सब कुछ पूर्ववत हो जाता है। फ़िर सरकारी अस्पताल की दवाओं की पर्चियां तीमारदार अस्पताल के बाहर निजी दवा की दुकानों पर लेकर दौड़ने लगता है। महाराष्ट्र की घटना निश्चित रुप से हमारे लिए दुःखद है। यह राजनीति का नहीँ चिंतन का विषय है। राष्ट्रीय बाल आयोग को इस तरह के हादसों का संज्ञान ख़ुद लेना चाहिए। भविष्य में हम पुनः इस पीड़ा का अनुभव न करें, इसके लिए केन्द्र, राज्य और जिम्मेदार संविधानिक संस्थाओं को अपनी नैतिक जवाबदेही तय करनी चाहिए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here