इंसा खुद से ही हारा निकला

-नवीन विश्वकर्मा-
ghazal-

किसके गम का ये मारा निकला
ये सागर ज्यादा खारा निकला

दिन रात भटकता फिरता है क्यों
सूरज भी तो बन्जारा निकला

सारे जग से कहा फकीरों ने
सुख दुःख में भाईचारा निकला

हथियारों ने भी कहा गरजकर
इंसा खुद से ही हारा निकला

चांद नगर बैठी बुढ़िया का तो
साथी कोई न सहारा निकला

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महफ़िल में करती बात तुम्हारी आंखें
हैं बहुत बड़ी लफ़्फ़ाज़ कुंवारी आंखें

दर्द बराबर बांटो यूं जज्ब करो ना
गम बांध लगे हैं ये खारी आंखें

प्यार भरा इक खत है तेरी आंखों में
पढ़ ना ले कोई ये अखबारी आंखे

एक नज़र से तेरी दिल लाचार हुआ
लगती तो हैं मासूम कटारी आंखें

बाढ़ आपदा सूखे से लोग पस्त है
सब ठीक बताती हैं सरकारी आंखें

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