मिसाल बन गया गांव बड़ी जाम

मनोज कुमार

अक्षय तृतीया २४ अप्रेल के लिये

मध्यप्रदेश का व्यवसायिक जिला है इंदौर। इंदौर जिले का एक छोटा सा गांव है बड़ी जाम। लगभग गुमनाम सा गांव बड़ी जाम ने आदर्श कायम किया है जिसकी गूंज इंदौर से भोपाल तक और शायद कल पूरे देश में होगी। इस गांव में बाल विवाह का आयोजन था। पुलिस को इत्तला मिली और वह कार्यवाही करने पहुंच गयी। पहले तो थोड़ा बहुत हील-हुज्जत हुई और इसके बाद जो हुआ तो गांव बड़ी जाम समाज के लिये मिसाल बन गया। इस गांव के लोगों ने एक बाल विवाह नहीं रोका बल्कि संकल्प लिया कि अब गांव में कोई बालविवाह नहीं होगा। बड़ी जाम इंदौर जिले के महू तहसील के पास बसा एक छोटा सा गांव है। यह वही महू है जिसे डॉ. भीमराव अम्बेडकर की जन्मस्थली के रूप में याद किया जाता है। लगभग एक सप्ताह के भीतर अक्षय तृतीया है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का एक महत्वपूर्ण दिन। इस दिन को कुछ रूढि़वादी मानसिकता के लोगों ने नाबालिग बच्चों का ब्याह करने की परम्परा डाल दी है जिससे यह महत्वपूर्ण दिन बच्चों के लिये डरावना दिन सा हो गया है। जिन दुधमुंहे बच्चों की शादी रचायी जाती है, उन्हें तो इसका मतलब भी मालूम नहीं होता है।

आज के इस वैश्विक समाज में न तो बाल विवाह कोई अर्थ रखता है और कन्यादान जैसी योजनाएं।इस दिन देश के कोने-कोने में कथित सामाजिक रस्म के नाम पर हजारों बच्चों को विवाह के बंधन में बांधने की कोशिश होगी। समाज के ठेकेदार इसे पुण्य मानकर पूरा करने की कोशिश करेंगे और सरकार कानून के डंडे के बल पर रोकने की। कुछ जगह समाज के ठेकेदार कामयाब होंगे तो कुछ जगह पर कानूनी डंडा लेकिन सदियों से चली आ रही यह सामाजिक कोढ़ पर अभी तक नियंत्रण नहीं पाया जा सका है। यह ठीक है कि शासन और प्रशासन कानून के डंडे के बूते पर बाल विवाह रोके किन्तु इससे इतर समाज को आगे आना होगा। इस कोढ़ को खत्म करने के लिये डर नहीं, जागरूकता की जरूरत है। शिक्षा इस कोढ़ को खत्म करने का एक बड़ा औजार है, खासकर स्त्री शिक्षा को बढ़ाकर। दुर्भाग्य से स्त्री सशक्तिकरण की बातें तो हम खूब करते हैं किन्तु इस दिशा में कोई ठोस पहल होती नहीं दिखती है। खबरों का जायजा लें तो प्रतिदिन सौ-पचास स्त्रियां अलग अलग कारणों से प्रताड़ना की शिकार होती हैं। विकास की ठाठें मारते भारतीय समाज के लिये इस तरह की खबरें दाग है। बालविवाह रोकने के लिये हमारे पास कानून हैं और प्रशासन इस कानून को अमल में लाने की भरपूर प्रयास करता है। भय जरूरी है किन्तु इससे ज्यादा जरूरी है जागरूकता की।

लिंगानुपात बिगड़ने की चिंता करती देश भर की राज्य सरकारें बिटिया को बचाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं। यह सकरात्मक कदम हैं और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। एक तरफ तो बिटिया बचाने के लिये जतन किया जा रहा है तो दूसरी तरफ कन्यादान जैसी नकरात्मक सोच की योजना भी चल रही है। असलियत तो यह है कि कन्यादान योजना सरकार की उन गरीब परिवारों के लिये राहत की योजना है जो सयानी बेटी का ब्याह आर्थिक दिक्कतों से नहीं कर पा रहे हैं किन्तु योजनाकारों ने जो इस योजना का नामकरण किया है, उससे नकरात्मक संदेश जाता है। सरकार आर्थिक सहायता देकर एक तरफ तो अनेक गरीब परिवारों को ब्याह के खर्च से तनावमुक्त कर रही है तो दूसरी तरफ बाल विवाह को रोकने में भी अपनी भूमिका निभा रही है। इन तमाम शासकीय योजनाओं को समाज चुनावी लाभ पाने वाली योजनायें मानता है और योजनाएं अपने मकसद से भटक जाती हैं।

बाल विवाह रोकने में मीडिया की भूमिका अहम हो सकती है किन्तु बहुत ज्यादा सक्रियता मीडिया की नहीं दिखती है। टीआरपी बटोरने अथवा अधिक प्रतियां बिकने वाली खबरें ही मीडिया के लिये महत्व की रखती हैं। अक्षय तृतीया के करीब आते ही मीडिया सनसनी फैलाने वाली खबरों से मीडिया स्वयं को दूर रखता है बल्कि मन को छू लेने वाली खबरों पर उसका फोकस ज्यादा रहता है। बाजार का यह भी गुण है कि वह सनसनी से ज्यादा भावनाओं को कैश कर ले। यह ठीक है कि बाजार की मांग के अनुरूप मीडिया खबरें तलाश करता है किन्तु इससे परे मीडिया की अपनी सामाजिक जवाबदारी है। उसे इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि बीते साल किस गांव में अधिक बाल विवाह हुये और इस बार किन गांवों में इस कुरीति को दोहराया जाएगा। शासन-प्रशासन से हमेशा छत्तीस बने रहना मीडिया का स्वभाव है और इसके अभाव में मीडिया मृतप्राय हो जाएगा किन्तु सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में शासन-प्रशासन का सहयोगी बन कर मीडिया अपनी छवि निखार सकेगा, विश्वसनीय बन सकेगा। ऐसा कर मीडिया वैसा ही उदाहरण पेश करेगा जैसा कि बड़ी जाम गांव के लोगों ने बाल विवाह न करने की शपथ लेकर किया है।

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