बुद्धिजीवियों में बहुलतावादी दृष्टि की कमी

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-प्रमोद भार्गव- modiji
अब नरेंद्र मोदी इतना आगे निकल चुके हैं कि उन्हें एकाएक सांप्रदायिक, तानाशाह अथवा फासिस्ट कहकर खारिज करना नामुमकिन है। उन्हें जितना आततायी और मुस्लिम विरोधी घोषित करने की प्रतियोगिताएं बुद्धिजीवी तबकों में हुई हैं, उत्तरोत्तर उनकी स्वीकार्यता उतनी ही बढ़ी है। क्योंकि संघ, भाजपा और मोदी को बौेद्धिक स्तर पर नकारने की कोशिशें कमोवेश एकपक्षीय रही हैं। यही लोग कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और कश्मीर की घटनाओं पर ओंठ सिले रखते हैं। कॉरपोरेट पूंजी पिछले दो दशक से जल, जंगल और जमीन हथियाकर दस करोड़ से भी ज्यादा आदिवासी और अन्य वंचितों को विस्थापित कर चुकी है, लेखक संगठनों ने इनकी लड़ाई कब लड़ी ? जो भी लड़ी सुंदरलाल बहुगुणा और मेधा पाटकर ने लड़ी ? मंहगाई और भ्रष्टाचार ने गरीब का जीना मुहाल किया हुआ है, इस यथास्थिति को बुद्धिजीवियों ने तोड़ने का काम कभी किया ? आज तमाम हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवी जो सरकारी पदों पर पदारूढ़ हैं, ज्यादातर उसी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं,जो आम आदमी की मुश्किलें बढ़ा रहा है। कितने हैं,जो अरविंद केजरीवाल की तरह पद और सुविधा को त्याग कर भ्रष्टाचार मुक्त राज्य-व्यवस्था देने के लिए सड़क पर उतरे ? दरअसल, अपनी आजीविका को खतरे में डालने का साहस लेखक में नहीं रहा ? इसलिए उनकी निर्वाचन में निर्णायक भूमिका को लेकर अस्पष्टता और असमंजस यथावत हैं। यदि वाकई केंद्रीय सत्ता पर मोदी काबिज होते हैं तो तमाम बुद्धिजीवी एमजे अकबर और मधु किश्वर की तरह ‘मोदी शरणम् गच्छामि‘ गति को प्राप्त होते दिखेंगे, इसकी गुंजाइश बहुत ज्यादा है।
भाजपा के चुनाव घोषणा-पत्र की तरह पहले चरण के मतदान के दिन देश के चंद बुद्धिजीवियों ने अपना रूख स्पष्ट कर दिया। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित यूआर अनंतमूर्ति और अशोक वाजपेयी की अगुवाई में मतदाताओं से अपील की गई कि यदि मोदी सत्ता में आ गए तो हम लोकतंत्रिक नागरिक अधिकार खो देंगे, इसलिए सांप्रदायिक व धार्मिक उन्माद फैलाने वालों और अत्याचारी व भ्रष्टाचारियों के ख्लिाफ वोट दें। सांस्कृतिक बहुलता और चुनाव व्यक्ति केंद्रीत हो जाने जैसे मुद्दों पर भी चिंता जताई गई। देश के लोकतंत्र के लिए यह शुभ संकेत है कि बुद्धिजीवी अपना मत स्पष्ट कर रहे हैं। लेकिन उपरोक्त लेखक और प्रगतिशील संगठन जिस कल्पित सांप्रदायिक और धार्मिक उन्माद के आसन्न संकट का अनुभव कर रहे हैं, उसके विपरीत भी लेखकों का मत है। नरेंद्र कोहली स्पष्ट रूप से कह रहे हैं, मेरी पसंद भाजपा की सरकार है। दूसरी तरफ वरिष्ठ कवि ज्ञानेन्द्रपति,नरेष सक्सेना, लेखक गिरिराज किषोर और प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका मैत्रेयी पुश्पा का स्पष्ट रूझान अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की ओर है। ये सभी उदाहरण दिनांक 7 अप्रैल 2014 के एक अखबार से इन अपीलों की प्रतिक्रिया में कल को विवेकानंद की वैचारिक प्रतिबद्धता से जुड़े संगठन आखिल भारतीय साहित्य परिषद का हो सकता है, भाजपा के पक्ष में मतदान करने का स्पष्ट बयान आ जाए। क्योंकि यह परिषद संघ का ही एक अनुशांगिक संगठन है। वैसे, वर्तमान परिदृष्य में बुद्धिजीवियों का कोई ऐसा प्रभाव जनमानस में नहीं है कि अपील के अनुसार मतदान के लिए मतदाता बाध्य हो जाएं। लिहाजा इन अपीलों का कोई ज्यादा महत्व नहीं है।
दरअसल संप्रादय बनाम धार्मिक उन्माद की चिंताएं अपनी जगह वाजिब हैं। लेकिन बौद्धिक निष्पक्षता समाज में तभी प्रवाभी दिखाई देगी, जब आप सांप्रदायिक वैमनस्यता से जुड़ी प्रत्येक घटनाक्रम से मुठभेड़ करते दिखाई दें। यह नहीं कि धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक व्यवस्था में हिंदू सांप्रदायिकता की काट मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने अथवा उसे सरंक्षण देने में देखी जाए? हमारा संविधान तो वैसे भी केवल हिंदूओं को संरक्षण देने का अधिकार नहीं देता। वह सभी धर्मावंलवियों को आजीविका व प्रगति के समान अवसर देता है। चार पायों पर टिका भारतीय लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहां कोई तानाषाह लंबे समय तक शासन व्यवस्था में टिका नहीं रह सकता। इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया अपातकाल कितने दिन टिक पाया ? लिहाजा राजनीतिक दलों और मीडिया ने भले ही दलीय प्रणाली को व्यक्ति केंद्रित आयाम दे दिया हो, किंतु उनकी स्थिरता तभी कायम रह सकती है जब वे सामाजिक सरोकारों और नागरिक अधिकारों से निरंतर जुड़े रहेंगे ?
चंद बुद्धिजीवी मोदी के आगमान में जो आसन्न खतरा भांप रहे हैं, उनकी दृष्टि मुजफ्फनगर और किश्तवाड़ के दंगों तक भी पहुंचनी चाहिए ? आखिर आखिलेश यादव सरकार दंगों की चिंगारी छेड़छाड़ की जिस घटना से भड़की थी, उसमें संप्रदाय आधारित पक्षपात आजम खान ने क्यों बरता ? क्या यह घटना सांप्रदायिक उन्माद भड़काने वाली नहीं थी ? तब बुद्धिजीवियों ने इसे संज्ञान में लेकर अपना प्रतिरोध क्यों नहीं जताया ? पिछले साल स्वंतत्रता दिवस के दिन किष्तवाड़ में सांप्रदायिक दंगा महज इसलिए भड़का था क्योंकि मुस्लिमों का एक जुलूस पाकिस्तान के समर्थन नारे लगा रहा था,जिसके विरोध में कुछ हिंदू आगे आ गए थे। कष्मीर के गैर मुस्लिमों के विस्थापन का सिलसिला आज भी जारी है। हिंदू, डोगरे, बौद्ध और सिखों के साथ धर्म व संप्रदाय के आधार पर ही ज्यादातियां हो रही हैं, क्योंकि वे कश्मीर में अल्पसंख्यक हैं। इन धार्मिक उन्मादों के परिप्रेक्ष्य में बौद्धिकों की बोलती क्यों बंद रही ? जब अपने ही देश में हो रहे जुल्मों को बुद्धिजीवियों के कुछ तबके एक आंख से देखने के आदि हो गए हैं, तो उनसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध मुंह खोलने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है ?
जिस सांस्कृतिक बहुलतावाद का खतरा हम मोदी के वर्चस्व स्थापना की आषंकाओं में देख रहे हैं, उसकी बुनियाद तो डॉ.मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले उदारीकृत अर्थव्यस्था के दौरान ही रख दी थी। यही वजह रही है कि मनमोहन सिंह के दस साल के शासन में जिस बेशर्मी से राजनीतिक सत्ता का केंद्रीयकरण हुआ है, उसी अनुपात में नागरिक अधिकारों का दमन हुआ है। षिक्षा,स्वास्थय,संस्कृति और पर्यावरण से जुड़े आम आदमी के सारोकार निजी कंपनीयों के हवाले कर दिए गए। जिस बाजार के मुक्त होने की कल्पना जताई गई थी, वह मुक्त होने की बजाय एकाधिकारवाद की गिरफ्त में आकर दम तोड़ रहा है। भारत में सांस्कृतिक बहुलतावाद का भाशा और बोलियों से बड़ा सरोकार है,लेकिन विडंबना है कि हमारी सैकड़ो भाशाएं और हजारों बोलियां आयातित अंग्रेजी भाशा सुरसामुख की तरह निगलती जा रही है। सीधे आमजन से जुड़ी इस भाशाई बहुलता को बचाने के लिए लेखक संगठनों की भूमिका संदिग्ध रही है। अब तो एक समय पूंजीवाद के प्रबल विरोधी रहे बुद्विजीवी भी अपने बच्चों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी मिल जाने पर नाज करते दिखाई देते है? वैसे भी इतिहास गवाह है कि सांस्कृतिक बहुलतावाद को आसन्न खतरों का सामना तब-तब ज्यादा करना पड़ा है,जब-जब मुसालनों के हाथों में राजनीतिक सत्ताएं आई है। पाकिस्तान और बांग्लादेष समेत जितने भी मुस्लिम देष हैं, सभी में लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित न तो संविधान है और न ही राज्य व्यवस्था ? भारत में तो राजनीतिक दलों का चरित्र इतना उदार है कि भाजपा भी मुस्लिम वोटों के लिए जामा मस्जिद के षाही इनाम का फतवा जारी कराने में अपने को धन्य समझती है और तब भी इमाम का आचरण सेकुलकर बना रहता है। इस लिहाज से यह विचार फैलाना ही अनुचित है कि मोदी के सत्ता में आने से नागरिक आधिकार नश्ट हो जाएंगे। क्योंकि विचार थोपने का यह तरीका भी फासीवाद को बढ़ावा देने की दिषा में जाता है। वैचारिक एकरूपता की मांग ही दरअसल बहुलतावाद को खतरा है। वैसे भी उभर रहीं वैचारिक बहुलताओं के इस दौर में यह असंभव ही है कि लेखक किसी एक वैचारिक खूंटे से बंधा रहकर लेखकीय संगठनों द्वारा जारी किए किसी इकतरफा फतबे का अनुसरण करे?

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