“आदर्श ऐतिहासिक वैदिक शिक्षण संस्था गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना का रोचक वृतान्त”

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मनमोहन कुमार आर्य

गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना 2 मार्च सन् 1902 को 116 वर्ष पूर्व हुई थी। सन् 1916 में गुरुकुल का चौदहवां वार्षिकोत्सव मनाया गया था। उत्सव में गुरुकुल के लिए अपील करते हुए इसके प्रमुख संस्थापक महात्मा मुंशीराम जी ने गुरुकुल स्थापना दिवस के दृश्य का उत्साहप्रद वर्णन किया था। उस दिन 34 बालकों के साथ महात्मा मुंशीराम जी ने हिंसक पशुओं से घिरे हुए कांगड़ी ग्राम के सघन वन में पहिली बार प्रवेश किया था। उस दृश्य की कल्पना ही अतीव सुन्दर एवं उत्साहप्रद है। जिनको उस दैवीय दृश्य को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह लोग सचमुच धन्य हैं। आज वह सब कालकवलित हो चुकें हैं। इस दृश्य का वर्णन करते हुए गुरुकुल के पुराने यशस्वी स्नातक श्री सत्यदेव विद्यालंकार जी ने अपनी पुस्तक स्वामी श्रद्धानन्द में इसका रोचक विवरण दिया है। वह लिखते हैं कि गुजंरावाले से रेल के आरक्षित डिब्बे में सब ब्रह्मचारी आचार्य पंडित गंगाप्रसाद जी के साथ विदा होकर फाल्गुन बदी 10 सम्वत् 1958 (2 मार्च सन् 1902) को मध्यान्ह के बाद लगभग शाम को 4 बजे हरिद्वार स्टेशन पहुंचे। मुंशीराम जी और उनके उन दिनों के अन्यतम साथी गुरुकुल में भण्डारी के नाम से प्रसिद्ध श्री शालिग्राम जी जालन्धर से मण्डली में शामिल हो गये थे। आगेआगे ऋषि दयानन्द का बड़ा चित्र और ओ३म् का झण्डा थां ब्रह्मचारी पंक्तिबद्ध वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए हरिद्वार के कुछ भाग और कनखल के मुख्य बाजारों से होते हुए निकले। लोगों ने समझा कि दयान्दियों का भी यहीं कहीं कोई अखाड़ा खुलने वाला है, गुरुकुल की उनको कुछ भी कल्पना नहीं थी। सब बालकों और उनके साथ के कार्यकर्ताओं में बड़ा उत्साह था। चार मील चलने के बाद भी किसी ने थोड़ी सी भी थकान अनुभव नहीं की। गुरुकुलभूमि पहुंच कर सबने गगा में स्नान किया और बड़े आनन्द के साथ भोजन किया। वस्तुतः इसी दिन गुरुकुल की स्थापना हुई थी। उस समय वहां केवल थोड़ीसी झोपड़ियां थीं, जो किसी प्राचीन ऋषिआश्रम की याद दिलाती थीं। आंधी और वर्षा का इतना प्रकोप था कि कोई भी दिन शांति से नहीं बीतता था। जंगल भी ऐसा भयानक था कि गुरुकुल (के वर्तमान स्थान) से जिस कांगड़ी गांव को पहुंचने में अब (सन् 1933 के आस पास यह पुस्तक प्रकाशित हुई थी तब) केवल पांच मिनट लगते हैं, उस समय डेढ़ घंटा से कम न लगता था। गंगा के उस पवित्र तट पर, जिस पर पीछे दिन रात ब्रह्मचारी खेला और घूमा करते थे, शाम की अंधियारी के बाद अकेले जाना उस समय एक बड़ा साहसपूर्ण कार्य था।

 

इस प्रकार स्थापना हो जाने पर भी उद्घाटन का उत्सव होली की छुट्टियों में 21, 22, 23 और 24 मार्च (सन् 1902) को हुआ। बिल्कुल निजी तौर पर किये जाने और किसी भी सज्जन को निमन्त्रण-पत्र न भेजने पर भी उत्सव में पांच सौ आर्य स्त्री-पुरुष पहुंच ही गये थे। पहिले तीनों दिन सवेरे होम और मध्यान्होत्तर सत्संग होता रहा। चौथे दिन फाल्गुन पूर्णमासी को 45 ब्रह्मचारियों का वेदारम्भ-संस्कार हुआ और चैत्र बदी प्रतिपदा को नियमपूर्वक पढ़ाई शुरू हो गई। चारों दिन के होम में एक सौ रुपया खर्च हुआ और वेदारम्भ संस्कार के बाद 600 रुपया भिक्षा में प्राप्त हुआ। आर्य प्रतिनिधि सभा के उस समय के प्रधान श्री रामभजदत्त चौधरी, स्वामी दर्शनानन्द, वजीरचन्द जी विद्यार्थी आदि के व्याख्यान और प्रवीण सिंह जी तथा बृजलाल जी के भजन हुए। धर्मवीर स्वर्गीय पंडित लेखराम जी की वीर पत्नी (माता लक्ष्मीदेवी जी) ने दो हजार रुपये दान में दिये। इस राशि के अलावा चार सौ रुपये और भी जमा हुआ। जो संस्था आज विश्वविद्यालय के रूप में देश की स्वतन्त्र शिक्षण-संस्थाओं में प्रमुख मानी जा रही है, जिसने शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परीक्षण को सफल कर दिखाया है, जिसने शिक्षा-कला के विशेषज्ञ लोगों के विचार तथा आदर्श को भी बदल दिया है और जो अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी के हुदय की सन्तान होने से हृदयादधिजायसे उनका एकमात्र वंशधर स्मारक है, उसके प्रारम्भ, स्थापना अथवा उद्घाटन की कहानी इतनी सी ही है। संसार में सभी शुभ कार्यो का प्रारम्भ प्रायः बहुत छोटे से होता है। गुरुकुल इस समय जितना विशाल (सन् 1933 में) अथवा महान् दीख पड़ता है, उसका प्रारम्भ उतना ही अल्प अथवा छोटा था। हजारों को अपनी शीतल छाया का स्वर्गीय सुख पहुंचाने वाले वट वृक्ष का बीज कितना छोटा होता है? आज वटवृक्ष से भी अधिक फैले हुए गुरुकुल का बीज उसके बीज से भी छोटा था। बाद में मुंशी अमनसिंह जी ने गुरुकुल के लिए सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर डाला और अपनी जमा की हुई सब राशि भी गुरुकुल की भेंट कर दी। वह राशि ग्यारह हजार रुपया थी।

 

गुरुकुल की स्थापना विषयक यह तथ्य भी जानने योग्य है कि महात्मा मुंशीराम जी के हरिद्वार में गुरुकुल स्थापना के प्रस्ताव वा आग्रह को मानते हुए 29 जुलाई सन् 1900 को आर्य प्रतिनिधि सभा पजाब की अंतरंग सभा ने सर्वसम्मति से निश्चय किया कि हरिद्वार के पास गुरुकुल के लिए जमीन खरीद कर मकान आदि बनाये जायें। गुरुकुल हरिद्वार की किस भूमि पर बने, इसके लिए एक दैवीय घटना घटी। नजीबाबाद के रईस स्वनामधन्य चौधरी मंशी अमनसिंह जी के मन में कुछ ऐसी पवित्र भावना पैदा हुई कि उन्होंने लगभग उसी स्थान पर, जो महात्मा मुंशीराम जी के मन में बैठ चुका था, अपना कांगड़ी गांव और उसके आसपास की सब 1200 बीघा भूमि उस पवित्र कार्य के लिए अर्पण करने का संकल्प कर लिया। महात्मा मुंशीराम जी को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सोचा की भूपति ने अपनी जंगल की जमीन के पैसे खड़े करने के लिए यह प्रस्ताव किया होगा। इसके बाद चौधरी अमर सिंह जी ने अपने संकल्प की सूचना आर्यसमाज के माध्यम से आर्य प्रतिनधि सभा, पंजाब को दी। इस प्रस्ताव पर 22 अक्टूबर सन् 1901 को सभा ने यह अन्तिम निश्चय किया कि चौधरी जी की उदारता के लिए उनको धन्यवाद दिया जाये और उनके द्वारा दी गई भूमि में मकान आदि बनाकर आगामी होली की छुट्टियों में 21, 22, 23 और 24 मार्च सन् 1902 को गुरुकुल का उद्घाटनोत्सव किया जाये। 20 नवम्बर को मुंशीराम जी ने कनखल पहुंच कर नजीबाबाद वालों की कोठी में डेरा जमा लिया। हिंसक तथा भयानक जानवरों से घिरे हुए दिन में भी मनुष्यों के लिए दुर्गम जंगल को साफ करा कर फूंस की कच्ची झोपड़िया खड़ी की जाने लगीं और उद्घाटनोत्सव की तैय्यारियां बड़े उत्साह के साथ होने लगीं। ऐसा अनुमान किया गया कि उत्सव पर कम से कम एक हजार यात्री आवश्य पहुंचेंगे। इसलिए उत्सव के खर्च के लिए दो हजार रुपये की अपील की गई। रुपया आना शुरू हो गया और वर्षों की आशा को मूर्त रूप में देखने की उत्सुकता से प्रेरित आर्य पुरुष होली की छुट्टियों के दिन अंगुलियों पर गिनने लगे। श्रेयांसि बहुविघ्नानि के अनुसार इस उत्सव पर भी एक बड़ा विघ्न आ उपस्थित हुआ। हरिद्वार में प्लेग फैल गया। 19 जनवरी सन् 1902 को अंतरंग सभा को विवश होकर यह निर्णय करना पड़ा कि उद्घाटन का उत्सव सार्वजनिक रूप में न करके निजी तौर पर किया जाये, उत्सव के लिए आया हुआ रुपया दाताओं को लौटा दिया जाये और यदि वे स्वीकार करें तो ब्रह्मचारियों को गुजरांवाला से कांगड़ी जाने का खर्च उस रुपये से पूरा किया जाये। अंतरंग सभा के इसी अधिवशन में ब्रह्मचारियों को गुजरांवाला से कांगड़ी लाने का भी निश्चय किया गया। समाचार पत्रों में यह सूचना दे दी गई कि किसी को भी निजी तौर पर निमन्त्रण नहीं दिया जाएगा और किसी के ठहरने का प्रबन्ध भी नहीं किया जा सकेगा। जो कोई आवे, अपने कष्ट का ध्यान रखकर आवे और अच्छा हो यदि स्त्रियों तथा बच्चों को साथ में न लाया जाये।

 

आज का गुरुकुल स्वामी श्रद्धानन्द और आचार्य रामदेव जी के समय का गुरुकुल नहीं रहा। अब यह एक सरकारी विश्वविद्यालय है। कुछ लोग यह सोच कर सन्तोष कर सकते हैं कि यहां हमारा खर्च कुछ नहीं होता तथापि इसके कुलाधिपति व कुलपति हम नियुक्त करते हैं। आचार्यों व अध्यापकों को वेतन भी आर्यसमाज को नहीं देना पड़ता। अस्तु। गुरुकुल के आरम्भिक वर्षों में यहां एक से बढ़कर एक विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने वेदों पर वेदभाष्य व वैदिक ग्रन्थों के द्वारा साहित्य सृजन व मौखिक प्रचार का कार्य किया। आज हमें इस गुरुकुल से आर्यसमाज के प्रचारक विद्वान मिलना बन्द हो गये हैं। आज वहां न ऋषि की पाठ विधि है और न वैदिक आदर्शों व सिद्धान्तों को अपनाने पर जोर दिया जाता है। हमें तो लगता है कि वहां का वातावरण वैदिक वातावरण न होकर पाश्चात्य संस्कृति व विचारधारा से प्रभावित वातावरण बन गया है। वहां के उत्सवों में जब भी जाना हुआ वहां उत्साह व संख्यां की दृष्टि से फीका फीका ही दृष्टिगोचर हुआ। आर्यसमाज को इन सब परिस्थितियों पर आत्मालोचन करना चाहिये। आज हम जिन नई संस्थाओं को खड़ा कर रहे हैं कल उनका क्या हश्र होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर की प्रबन्ध व्यवस्था भी इन दिनों विवादों से ग्रस्त है। हमें लगता है कि हमें अब एक आचार्य व 10-15 विद्यार्थियों वाले गुरुकुलों की परम्परा डालनी चाहिये। इन थोड़े से ब्रह्मचारियों को ऋषि की पाठविधि से व्याकरणाचार्य बनाया जाये और उसके बाद यह ब्रह्मचारी अपने अध्ययन को जारी रखते हुए इसे बढ़ाकर अच्छी आजीविका प्राप्त करें और उसके साथ आर्यसमाज की जो भी सेवा कर सकते हैं वैसी करें। इसके लिए हम डा. धर्मवीर जी, डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय, डा. सोमदेव शास्त्री के जीवनों से प्रेरणा व मार्गदर्शन ले सकते हैं। हम यह भी बता दें कि हम किसी सभा व पक्ष से जुड़े नहीं है। हम केवल और केवल ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से जुड़े हैं और सदा उसी से जुडे़ रहेंगे। ओ३म् शम्।

 

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