परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयास को नोबेल शांति पुरस्कार आईसीएएन

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प्रमोद भार्गव

विश्व फलक पर उभर आईं तमाम विडंबनाओं और विरोधाभासों के चलते परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयास में जुटी संस्था को नोबेल शांति पुरस्कार देना उल्लेखनीय पहल है। नार्वे स्थित नोबेल समिति ने इस बार इस लक्ष्य की पूर्ती के लिए मुहिम चला रही अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘परमाणु हथियारों की समाप्ती के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान अर्थाथ इंटरनेशनल कैंपेन टू एबोलिश न्यूक्लियर वेपन्स (आईसीएएन) को चुना है। इस समय इस संस्था का नोबेल शांति पुरस्कार-2017 के लिए चुना जाना इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि परमाणु शक्ति संपन्न देशों ने एक-दूसरे को हड़काकर दुनिया को परमाणु युद्ध की आशंका से तनावग्रस्त व भयभीत किया हुआ है। एक तरफ उत्तर कोरिया अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया को नेस्तनाबूत करने की धमकी दे रहा है, तो वही जबावी कार्यवाही में अमेरिका समूचे उत्तर कोरिया का वजूद ही मिटा देने की हुंकार भी रहा है। दूसरी तरफ चीन ने समुद्री निगरानी के बहाने परमाणु पनडुब्बियों को समुद्र में उतारने का फैसला ले लिया है। आतंकियों के भेस में पाकिस्तानी सेना लंबे समय से भारत के साथ युद्धरत है। ये दोनों देश एक-दूसरे पर परमाणु हमला कर देने की हुंकार भी भर रहे है।

 

इधर उत्तर कोरिया ने हाइड्रोजन बम का परीक्षण कर अमेरिका, जापान और भारत समेत दुनिया के अनेक देशों को चैंका दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा  परिषद् के प्रस्तावों और अमेरिकीं चेतावानियों को नजरअंदाज कर उत्तर कोरिया के सनकी साम्यवादी तानाशाह किम जोंग ने खतरे के इस परीक्षण को बेखौफ होकर अंजाम दिया है। किम ने दावा किया है कि उसका यह छटा परमाणु परीक्षण पांचवें परीक्षण से छह गुना शक्तिशाली है। इसमें उन्नत तकनीक का प्रयोग किया गया है। इस हाइड्रोजन बम का निर्माण लंबी दूरी की अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल से दागने के लिए किया गया है। इस बम की खासियत है कि इसके सभी उपकरण उत्तर कोरिया में ही तैयार किए गए हैं। इसकी क्षमता सैंकड़ों किलो टन है। जब इसका समुद्र में परीक्षण किया गया तब जापान, चीन, रूस के भवन हिल गए। दक्षिण कोरिया की धरती पर भूकंप के झटके अनुभव किए गए। भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6.3 आंकी गई।

आईसीएन संगठन अंतरराष्ट्रीय संधि के माध्ययम से दुनिया को परमाणु हथियार मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटा है। संगठन के प्रयासों पर सहमति जताते हुए 122 देशों ने परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित करने की संधि भी कर ली है। संयुक्त राष्ट्र संघ की जब 1945 में स्थापना हुई थी, तब उसका मुख्य उद्देश्य विश्व फलक पर परमाणु निरस्त्रीकरण ही था, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस वैश्विक  संस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही परमाणु हथियार रखने वाले देशों की संख्या तो बढ़ ही रही है, परमाणु और हाइड्रोजन बंमों की संख्या भी बढ़ रही हैं। जो देश परमाणु संपन्न हैं, वे अब तक परमाणु व अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत करने को तैयार भी नहीं हुए हैं। इन देशों में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, पाकिस्तान, इजराइल और उत्तर-कोरिया शामिल हैं। यदि आॅम्र्स कंट्रोल एसोशिएशन, वाशिंगटन की माने तो इस समय रूस के पास 7000, अमेरिका 6,800, फ्रांस 300, चीन 260, ब्रिटेन 215, पाकिस्तान 140, भारत 110, इजराइल 80 और उत्तर कोरिया के पास 10 परमाणु हथियार मौजूद हैं। यदि ये देश इन हथियारों को चिंगारी दिखा दे ंतो पूरा ब्रह्माण्ड तहस-नहस हो जाएगा।

इसीलिए नोबेल समिति की अध्यक्ष बेरिट रिस एंडरशन ने कहा है कि परमाणु हथियारों के प्रयोग से होने वाली भयानक त्रासदी की तरफ लोगों का ध्यान खींचने और इन घातक हथियारों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की संधि का मार्ग प्रषस्त करने की दृष्टि से आईसीएएन को पुरस्कृत करने का निर्णय दिया गया है। आईसीएएन का गठन 2007 में हुआ था। इस समय इसकी 101 देशों में शाखाएं फैली हुई है। इनके प्रयास से इस साल जुलाई तक 122 देशों ने संयुक्त राष्ट्र की परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। इस लिहाज से इस संस्था का परमाणु युद्ध संबंधी खतरा टालने में अहम् भूमिका सामने आई है। हालांकि परमाणु संपन्न देशों द्वारा संधि पर दस्तखत नहीं करने के कारण यह संकट यथावत बना हुआ है।

दरअसल दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा पर 6 अगस्त और नागासाकी पर 9 अगस्त 1945 को परमाणु बम गिराए थे। इन बमों से हुए विस्फोट से फूटने वाली रेडियोधर्मी विकिरण के कारण दो लाख लोग तो मरे ही, हजारों लोग अनेक वर्षो तक लाइलाज बीमारियों की भी गिरफ्त में रहे। विकिरण प्रभावित क्षेत्र में दषकों तक अपंग बच्चों के पैदा होने का सिलसिला जारी रहा। अपवादस्वरूप आज भी इस इलाके में लंगड़े-लूल़े बच्चे पैदा होते हैं। अमेरिका ने पहला परीक्षण 1945 में किया था। तब आणविक हथियार निर्माण की पहली अवस्था में थे, किंतु तब से लेकर अब तक घातक से घातक परमाणु हथियार निर्माण की दिशा में बहुत प्रगति हो चुकी है। लिहाजा अब इन हथियारों का इस्तेमाल होता है तो बर्बादी की विभीशिका हिरोशिमा और नागासाकी से कहीं ज्यादा भयावह होगी ? इसलिए कहा जा रहा है कि आज दुनिया के पास इतनी बड़ी मात्रा में परमाणु हथियार हैं कि समूची धरती को एक बार नहीं, अनेक बार नष्ट-भ्रष्ट किया जा सकता है। उत्तर कोरिया ने जिस हाइड्रोजन बम का परीक्षण पिछले दिनों किया है, उसकी विस्फोटक क्षमता 50 से 60 किलो टन होने का अनुमान है।

जापान के आणविक विध्वंस से विचलित होकर ही 9 जुलाई 1955 को महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन और प्रसिद्ध ब्रिटिश दार्शनिक बट्र्रेंड रसेल ने संयुक्त विज्ञप्ति जारी करके आणविक युद्ध से फैलने वाली तबाही की ओर इशारा करते हुए शांति के उपाय अपनाने का संदेश देते हुए कहा था, ‘यह तय है कि तीसरे विश्व युद्ध में परमाणु हथियारों का प्रयोग निश्चित किया जाएगा। इस कारण मनुष्य जाति के लिए अस्तित्व का संकट पैदा होगा। किंतु चौथा विश्व युद्ध लाठी और पत्थरों से लड़ा जाएगा।‘ इसलिए इस विज्ञप्ति में यह भी आगाह किया गया था कि जनसंहार की आशंका वाले सभी हथियारों को नष्ट कर देना चाहिए। तय है, भविष्य में दो देशों के बीच हुए युद्ध की परिण्ति यदि विश्वयुद्ध में बदलती है और परमाणु हमले शुरू हो जाते हैं तो हालात कल्पना से कहीं ज्यादा डरावने होंगे।

हमारे दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस भयावहता का अनुभव कर लिया था, इसीलिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में आणविक अस्त्रों के समूल नाष का प्रस्ताव रखा था। लेकिन परमाणु महाशक्तियों ने इस प्रस्ताव में कोई रुचि नहीं दिखाई, क्योंकि परमाणु प्रभुत्व में ही, उनकी वीटो-शक्ति अंतनिर्हित है। अब तो परमाणु शक्ति संपन्न देश, कई देशों से असैन्य परमाणु समझौते करके यूरेनियम का व्यापार कर रहे हैं। परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा की ओट में ही कई देश परमाणु-शक्ति से संपन्न देश बने हैं और हथियारों का जखीरा इकट्ठा करते चले जा रहे हैं। हालांकि भारत अभी भी परमाणु अस्त्र विहीन दुनिया का समर्थन कर रहा है। किंतु वह इस परिप्रेक्ष्य में पक्षपात के विरुद्ध हैं। यही कारण है कि भारत ने अब तक परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए है। लेकिन अब नोबेल पुरस्कार समिति ने परमाणु निरस्त्रीकरण के अभियान को सहमति दी है तो तय है, भारत उसकी भावना का आदर करेगा।

 

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