अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : कितनी बदली है महिलाओं की जिन्दगी

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women dayहिमकर श्याम

08 मार्च को हम महिला सशक्तीकरण के 40 वें वर्ष में प्रवेश करेंगे. 1975 का वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया गया था. 39 साल पहले की तारीखों में दर्ज चुनौतियां कहीं गहरी हुई हैं. विकास और प्रगति के तमाम दावों के बावजूद देश की आधी आबादी अपने हालातों से जद्दोजहद करती हुई दिखती है. महिला सशक्तीकरण के नारों और दावों के बीच निर्भया जैसी घटनाएँ हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति का भयावह चित्र प्रस्तुत करती हैं. नारीवादी आंदोलन के जरिये महिलाओं की मुक्ति की कल्पना की गयी थी,  लेकिन अधिकांश भारतीय महिलाएँ उससे कोसों दूर हैं. शहरों और महानगरों की पढ़ी-लिखी महिलाओं में जागरूकता अवश्य देखी जा रही है. समाज में अपनी उपस्थिति, अधिकारों और समस्याओं को लेकर महिलाएँ मुखरित होने लगी हैं. इन वर्षों में महिलाओं के व्यवहार व परिस्थिति में जो परिवर्तन आया है, क्या वह किसी ठोस बदलाव का सूचक है इस पर विचार करना आवश्यक है.

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरे समाज का ध्यान महिलाओं के उन मुद्दों पर खींचता है, जो रोजमर्रा के जिंदगी में दरकिनार रहते हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने जेंडर विषमता को पूरी दुनिया से समाप्त करने की दिशा में अहम कदम उठाते हुए 08 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप मनाना शुरू किया. एक विचारधारा के रूप में नारीवाद महिलाओं के शोषण का विरोध करता है. नारीवाद उन सभी व्यवस्थाओं और विचारों को ध्वस्त करने का प्रयास करता है, जो पुरुष को श्रेष्ठ साबित करते हैं. भारत में महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए और उन्हें सशक्त करने के लिए बहुत पहले से कार्य किए जा रहे हैं. नवजागरण काल (18 वीं से 19 वीं सदी) में कई सुधारवादी आंदोलन हुए जो सती प्रथा की समाप्ति, विधवा विवाह,  बाल विवाह पर रोक और स्त्री-शिक्षा से सम्बंधित थे. इस कार्य की शुरुआत राजा राममोहन राय, केशव चन्द्र सेन, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर एवं स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों ने की थी जिनके प्रयासों से नारी में संघर्ष क्षमता का आरम्भ होना शुरू हो गया था.

आजादी के बाद महिलाओं को आगे बढ़ाने के सरकारी प्रयास हुए. जेंडर समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान की प्रस्तावना,  मौलिक अधिकारों,  मौलिक कर्तव्यों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में प्रतिपादित है. संविधान महिलाओं को न केवल समानता का दर्जा प्रदान करता है अपितु राज्य को महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के उपाय करने की शक्ति प्रदान करता है. इन सब के साथ महिला सशक्तीकरण की राह में गैर सरकारी संगठनों के प्रयासों को भी नहीं नकारा जा सकता. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं के फैसले लेनेवाली भूमिका का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है. आधी आबादी होने के बावजूद राजनीति, न्यायपालिका, सिविल सेवा में उनकी स्थिति निराशाजनक है. देश की लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला बहुचर्चित विधेयक लोकसभा में 17 सालों से लटका हुआ है. हालांकि पंचायतों में महिलाओं की आरक्षित संख्या 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गयी है.

सृष्टि के आरंभ से कुछ आधारभूत भिन्नताओं के बावजूद महिला और पुरुष दोनों का योगदान किसी भी मामले में एक-दूसरे से कम नहीं था. जीवन के हर पहलुओं में दोनों की भागीदार समान थी. सभ्यता के क्रमिक विकास और सामाजिक परिर्वत्तन के क्रम में पुरुषों ने श्रेष्ठता हासिल कर ली और महिलाएँ दोयम दर्जे की जिन्दगी बसर करने को मजबूर हो गयीं. किसी भी राष्ट्र या प्रदेश की परम्परा और संस्कृति वहाँ की महिलाओं से परिलक्षित होती है. महिलाओं की स्थिति समाज में जितनी महत्वपूर्ण,  सुदृढ़ व सम्मानजनक होती है,  उतना ही समाज उन्नत, समृद्ध व मजबूत होता है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं का स्थान और सम्मान अन्य देशों की संस्कृतियों की तुलना में कही अधिक है. भारतीय महिलाओं की स्थिति में जो उतार-चढाव आए वे उस युग के बदलते राजनीतिक,  सामाजिक,  सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश के परिणाम हैं. वैदिक युग में महिलाओं की स्थिति बहुत सम्माननीय थी. स्त्री का स्थान ऊँचा और पवित्र था. जीवन के सभी क्षेत्रों में उसे महत्ता प्राप्त थी. सभी जगह वह पुरुषों की सहभागिनी थी. मध्यकाल में उनकी स्थिति बिगड़ने लगी. समय का चक्र बढ़ता रहा और महिलाओं की स्थिति में ह्रास आता गया. स्त्री-पुरुष में निश्चित रूप से जैविक अंतर है लेकिन सच है की महिलाओं ने अपनी अकूत श्रम शक्ति से असाध्य को साध्य लिया है. वह कहीं भी किसी मामले में पुरुषों से कम नहीं है. समाज का सम्पूर्ण विकास तभी संभव है जब समाज के विकास रथ को महिला और पुरूष दोनों का समान बल प्राप्त होता है.

वर्त्तमान सामाजिक संदर्भ में महिलाओं की दशा और दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है. भारतीय महिलाओें की तस्वीर कुछ बदली हुई नजर आती है. यह तस्वीर दबी-कुचली, सहमी हुई उस स्त्री से अलग है जो कभी पिता, कभी पति, कभी पुत्र की आश्रित थी. शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने उन्हें  आत्मनिर्भर बनाया है. आज की महिलाओं ने सामाजिक बेड़ियों को उतार कर फेंक दिया है. इन्हें घर से बाहर निकल कर काम करने और परिवार के मामलों में बोलने की आजादी मिल गयी है. आज महिलाएं फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी बातें शेयर कर रही हैं और घर- दफ्तर में बखूबी तालमेल स्थापित कर रहीं हैं. शिक्षा,  राजनीति,  विज्ञान-प्रौद्योगिकी,  चिकित्सा,  खेल,  उद्योग, कला, संगीत, मीडिया,  समाज सेवा आदि क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर रही है. आधुनिक भारत की स्त्री ने स्वयं की शक्ति को पहचान लिया है और काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख लिया है.

इस सुनहरी तस्वीर के पीछे कुछ स्याह हकीकत भी हैं जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. महिला सशक्तीकरण पर विचार करते समय महिलाओं की जमीनी हकीकत पर नजर डालना जरूरी है. आंकड़ें गवाह हैं कि महिला सशक्तीकरण की बयानबाजियों के बीच समाज, राजनीति और प्रशासन में महिलाएं कहाँ तक बढ़ पाई हैं. देश की आधी आबादी वास्तव में किन हालातों में रह रही हैं. महिलाओं की यह जागरुकता महानगर केंद्रित हैं या अति संपन्न, सुसंपन्न और सुशिक्षित परिवारों में परिलक्षित होता है. छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों की महिलाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. जनजातीय इलाके की महिलाओं की स्थिति सामान्य महिलाओं की तुलना में काफी बदतर दिखाई देती है. महिलाएँ बुनियादी जरूरतों के सवाल से लेकर तमाम अन्य सुविधाओं तक खुद को उपेक्षित ही पाती हैं. कई गाँवों में महिलाओं के लिए न कोई जच्चा अस्पताल है और न ही कोई महिला विद्यालय. आठवीं-दसवीं पहुंचते-पहुंचते लड़कियां स्कूल की पढ़ाई छोड़ देती हैं. ऐसी सुविधाएँ हैं भी तो गाँव से खासी दूरी पर हैं पर वहाँ तक पहुँचने के लिए गाँव से कोई सड़क या साधन अभी तक नहीं बना है. मध्यमवर्गीय महिलाओं की स्थिति त्रिशंकु के समान है. वे आधुनिक सुसंपन्न महिलाओं का अनुकरण करना चाहती हैं मगर कर नहीं पातीं और पुरातन भारतीय नारी की तरह जीना नहीं चाहतीं. दफ्तर का काम,  बच्चों और घर की देखभाल की वजह से बने दबाव के चलते इन महिलाओं की दिनचर्या बदल रही है और कई लंबी और गंभीर बीमारियां उन्हें घेर रही हैं. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एसोचैम द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 32 से 58 वर्ष की 72 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ अवसाद, पीठ में दर्द,  मधुमेह,  हायपरटेंशन,  उच्च कोलोस्ट्रोल,  हृदय एवं किडनी की बीमारियों से ग्रस्त हैं.

महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध कम नहीं हो रहे. न बलात्कार की घटनाएं रुक रही हैं, न छेड़खानी की,  न महिलाओं के साथ दूसरे तरीकों से होने वाली हिंसा की और न महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता की. घरेलू हिंसा पर अंकुश लगाने की सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भर में महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं. महिलाओं पर हिंसा रोकने के लिए तमाम तरह के कानून मौजूद हैं. फिर भी,  उन पर हिंसा का सिलसिला नहीं थमा है. जहाँ एक ओर कानूनों में कई तरह की खामियां हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें सही तरीके और सख्ती से लागू नहीं किया जा रहा है. नतीजतन, अपराधी न केवल साफ बच निकलते हैं,  बल्कि उनके हौसले भी बढ़ जाते हैं. महिलाओ पर हुई हिंसा उनके स्वास्थ्य पर मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक प्रभाव डालती है. ये प्रभाव कई बार तात्कालीक होते हैं और कई बार दीर्घकालिक भी. बलात्कार महिला हिंसा का सबसे भयावह रूप है. बलात्कार पीड़ित महिला की मानसिक,  आत्मिक और शारीरिक क्षति का अनुमान लगाना भी दुष्कर है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने विश्व रिपोर्ट 2013 का विमोचन करते हुए कहा है कि भारत में नागरिक समाज की सुरक्षा, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा और लंबे समय से उत्पीड़नों के लिए सरकारी अधिकारियों को जवाबदेह बनाने में विफलता के कारण मानवाधिकारों की स्थिति गंभीर रूप लेते हुए बदतर हो गई है.

पिछले एक दशक में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में भले ही सुधार हुआ हो मगर छह साल तक की बच्चियों और बच्चों की आबादी का बढ़ता फासला सरकार और समाज दोनों के लिए ही चिंता की बात है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरुष आबादी 933 से बढ़कर 940 हो गई है. लेकिन छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात 927 से घट कर 914 हो गया है, जो आजादी के बाद सबसे कम है. बच्चों के मामले में लिंगानुपात की दर घटना बालिका भ्रूण हत्या बढ़ने की तरफ इशारा करता है.

कामगार महिलाएँ आज चौराहे पर खड़ी हैं. ज्यादतर महिलाएँ गैर संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं. असंगठित होने के कारण उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कई बार तो शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ रहा है. महिला कामगार सामाजिक सुरक्षा, समान पारिश्रमिक,  अवकाश, मातृत्व लाभ जैसी सुविधाओं से वंचित हैं. आर्थिक विकास के मौजूदा मॉडल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढने के बजाय घट रही है. नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट बताती है कि सन् 2009-10 और 2011-12 यानी दो वर्ष के अन्दर गांवों में महिला श्रमिकों की संख्या में 90 लाख की कमी आयी है. वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल अपनाने के लगभग 20 वर्ष पहले सन् 1972-73 में श्रमशक्ति में महिलाओं का योगदान 32 फीसदी था. उदारीकरण की राह पकडने के 20 वर्ष बाद सन् 2010-11 में यह संख्या घटकर 18 प्रतिशत रह गई. विकास की परिभाषा में औरतों के काम के घंटों में वृद्धि, उनके प्रजनन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और अधिक सरकारी नियंत्रण और हिंसा की प्रक्रिया पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है.

महिला सशक्तीकरण महत्वपूर्ण विषय है. महिलाओं के अधिकार, उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्मान, समानता, समाज में स्थान की जब भी बात होती है, कुछ आंकड़ों को आधार बनाकर निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की जाती है कि उसमें इतना सुधार आया है. महिलाओं के लिए समानता के बारे में बड़े बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है. जेंडर विषमता और महिला सशक्तीकरण के जो कानून बने उनसे सीमित महिलाओं को ही लाभ हो रहा है. अधिकांश महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नजर नहीं आता. अशिक्षा और गरीबी के कारण महिलाओं को उन कानूनों की जानकारी नहीं पा रही है जो उनके हित के लिए हैं.

भूमंडलीकरण ने महिलाओं को तथाकथित रूप से पुरुषों के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है. महिलाओं को बाहर सिर्फ इसलिए नहीं निकलने दिया जा रहा है कि पुरुष वर्ग पहले से ज्यादा उदार हो गया है बल्कि इसलिए कि आर्थिक-सामाजिक विवशताओं ने इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं रहने दिया है. आर्थिक रूप से स्वाधीन महिलाएं सामाजिक रूप से अभी स्वाधीन नहीं हो पायी हैं. निश्चिय ही मंजिल अभी दूर है मगर सामाजिक रूप से स्वाधीन होने की तीव्रता को ऐसे मौकों पर महसूस किया जा सकता है. महिलाओं के पास कामयाबी के उच्चतम शिखरको छूने की अपार क्षमता है. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं के लिए एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए और उनकी कठिन परिस्थितियों से उभरने के लिए प्रेरित करता है.

 

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