फिल्में देखने से पहले सोचो कि आपको क्या मिलेगा इसे देखकर : शाहज़ाद फ़िरदौस

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shahjad firdausमेरीकाम पर फिल्म बनी बात समझ में आती है क्योंकि वह पूर्वोत्तर राज्य से थी, गरीब थी मेहनत की और यहां तक पहुंची। मिल्खा सिंह पर बनी, वह भी ठीक था कि हालात से लड़कर किस तरह एक लक्ष्य पर पहुंचा जा सकता है। लेकिन अजहरूद्दीन पर फिल्म बने, धोनी पर बने यह गलत है, इनको लेकर फिल्म बनाने की जरूरत क्या है। यह किसी के लिये मिसाल नहीं हो सकते, सिवाय क्रिकेटरों के। इस देश में क्या क्रिकेट ही बचा है और कुछ नहीं है। दादा ध्यानचंद पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये, लिंबाराम पर केन्द्रित करना चाहिये, या उन लोगों पर फिल्म बनानी चाहिये जिससे देश के सामने एक संदेश हो। यह बात प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर आयोजित प्रवक्ता.कॉम के कार्यक्रम में आये प्रख्यात फिल्मकार शहजाद फिरदौस ने प्रवक्ता.कॉम के सहसंपादक अरूण पाण्डेय से कही। यहां यह बता देना उचित होगा कि यह वही फिल्मकार हैं जिन्होने 2007 में गौतमबुद्ध पर एक फ़ीचर फिल्म बनाकर सबको चोंका दिया था और दूरदर्शन पर प्रसारण के बाद यह फिल्म काफी चर्चे में रही। इनसे बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं…..

प्र० : अक्सर देखा गया है कि बंगाल से किसी नयी चीज की शुरूआत होती है और वह पूरे देश में चर्चा का विषय बनती है। आप इससे कितना इत्तेफाक रखते हैं।

० : बंगाल जननी है, वंदेमातरम् यहीं से निकला, जन गण मन अधिनायक यहीं से निकला, आजादी के नायकों के लिये यह धरती हमेशा से जानी जाती रही। इंसानियत की जो बात आज हम कर रहें है वह इसी बंगाल से शुरू होता है, ज्ञान की बात है विवेकानंद जी यहीं से थे और आज देश के कई हिस्सों में बंगाल का नाम अच्छे ढंग से लिया जाता हैं। कई आंदोलन बंगाल से शुरू हुआ, देश के प्रधानमंत्रियों की शिक्षा का गढ़ भी रहा। लेकिन आप किस परिपेक्ष में बंगाल को देखना चाहते हैं यह उस पर तय करता है। लेकिन किसी भी रूप् में देखें बंगाल सबसे आगे दिखेगा इसी लिये तो गंगा सागर भी यहां ही है।

प्र० : फिल्मों की बात की जाय तो सत्यजीत रे जी की फिल्में काफी चर्चित रही है और उनके ही श्रेणी में कई लोगों का नाम लिया गया लेकिन वर्तमान समय में आपका नाम लिया जा रहा है। इसमें कहां तक सच्चाई है?

० : मै उनकी तरह बनने का प्रयास कर रहा हूं लेकिन हूं नहीं, वह बिरले ही होते है जो  उस मुकाम तक पहुंचते है। उन्होने कलात्मक फिल्मों का मार्ग दिखाया था और मैं भारतीय दर्शन पर आधारित फिल्में बना रहा हूं। दोनों का लक्ष्य एक नहीं है लेकिन एक बात जो दोनों में मुख्य है वह है कि जनता में संदेश जा रहा है। यही लक्ष्य होना चाहिये जिस पर हम दोनों ने ध्यान केन्द्रित किया है।

प्र० :आपने जब बुद्धा बनायी तो आपके मन में कौन सी बात थी।

० : बुद्धा पर जब मैने शोध किया तो पाया कि महात्मा बुद्ध के युवा काल की बातें कहीं भी नहीं थी और उसे संकलित करना एक कठिन काम था। मैने कई लाएब्रेरी जो देश विदेश में अपना स्थान रखती है उनमें गया, वहां भी कुछ नहीं मिला। इसके बाद बुद्ध से जुडी जो भी चीजें मिली उसे संकलित किया। उनसे जुडें स्थानों पर भी गया और तब मैने महसूस किया कि बुद्धा क्या है और उनका सिंद्धान्त क्या कहता है, तभी मैने इस पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया।

प्र० : फिल्म को बनाने में क्या दिक्कतें आयी।

० : दिक्कतो की तो पूछिये ही मत, जैसा कि मानवीय अवधारणा है कि जब कोई नया काम करना चाहता है तो लोग उसे भाव नहीं देते, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब मैं बुद्ध पर किसी से कोई बात करता तो लोग किनारा कर लेते। किसी तरह पटकथा तैयार हुई तो फाइनेंसर नहीं मिला, वह मिला भी तो बजट इतना नहीं था, कि हम इस फिल्म को दूर तक ले जा सकते या इसे अंग्रेजी में डब कराकर विदेशों में बेच सकते। दूरदर्शन ने यह फिल्म दिखायी और हम संतोष करके रह गये।

प्र० : जब आपके पास प्रचुर मात्रा में बजट नहीं था तो कलाकार कहां से लाये

० : मेरी उस फिल्म में कोई बडा कलाकार नहीं था लेकिन जिसने उस फिल्म मे काम किया वह सभी प्रतिभावान थे और आज बड़े कलाकार हैं, वे आज कई फिल्मों व कई सीरियलों में काम कर रहें है। यहां यह मै बताना चाहता हूं कि मैने देश के सभी थियेटरों से लगभग संपर्क किया ओर युवाओं को जो अभिनय के क्षेत्र में काम करना चाहते थे उनकेा लेकर बनायीं। दो धंटे सत्रह मिनट की इस फिल्म ने जो धमाल मचाया कि हम उसके बाद इसे अंग्रेजी में डब कराने के लिये भी समर्थ हो गये। आज यह फिल्म बुद्ध के जीवन पर बनी सबसे अच्छी फिल्मों में मानी जाती है और जापान, चीन व नेपाल में बड़ी रूचि के साथ देखी जाती है।

प्र० : इसके अलावा आपने कौन कौन से फिल्में बनायी है

० : फिल्में तो कई बनायी लेकिन एक टेलीफिल्म बनायी थी जिसका जिक्र मैं यहां करना चाहूंगा। यह विश्वास नामक शहीद की थी जिसे हरियाणा के अंबाला जेल में फांसी दी गयी थी। मेरे लिये वह कठिन काम था लेकिन भाषाई रूप् से अक्षम होने के बाद भी मैं अंबाला की उस जेल में गया और काम किया, उसी जेल में शूटिंग हूई और पूरे कलाकार भी वहीं से लिये गये ताकि भाषा में बदलाव न हो। यह टेलीफिल्म काफी सराही गयी और मेरा विचार है कि इसी तरह का काम करना चाहिये जो सराहा जाय, अन्यथा काम करने से क्या फायदा।

प्र० : और कौन से विषय हैं जिसपर आप काम कर रहें हैं

० : महाभारत विश्व की श्रेष्ठतम ग्रन्थ में शुमार है और इस ग्रन्थ के रचियता के बारे में कुछ भी वर्णित नहीं है। कौन थे कहां से आये, महाभारत कैसे लिखी, उसके तथ्य कहां से जुटाये और महाभारत कैसे लोगों में आयी। उनके इस ग्रन्थ का उदे्श्य क्या था इस पर काफी शोध किया है और एक किताब का रूप दिया है। जिसे गत दिनों प्रगति मैदान में लोकार्पित भी किया गया। इसके अच्छे परिणाम आ रहें है और लगता है कि मेरी मेहनत पर लोगों को विश्वास हो रहा है। वह उनके काम आ रही है। उसे उपन्यास या कहानी के रूप् में न लेकर लोग जिन्दगी के नजरिये से देख रहें है। इसी पर निकट भविष्य में एक फिल्म बनाने का लक्ष्य हम लेकर चल रहें हैं।

प्र० : दिल्ली के प्रगति मैदान में आपके किताब का लोकार्पण हुआ, इसका लाभ भी कुछ मिला

० : दिल्ली तो भारत का दिल है और आप समझ सकते हैं कि दिल का क्या महत्व है। दिल्ली में किताब का लोकार्पण जब हुआ तो मेरे पास कुछ लोग आये और बोले कि आपकी किताब के बारे में हमने सुना है और आपके बारे में भी, हम आपके व्यास वाले प्रोजेक्ट के लिये कुछ करना चाहते है किसी न किसी रूप् में हमें जोड़िये। हमारा भी यह स्वपनिल प्रोजेक्ट है जिसपर हम करना चाहते थे लेकिन नहीं कर पाये। बाद में पता चला कि वह सभी दिल्ली विश्वविधालय के शोध छात्र थे जो वाकयी चाहते थे कि हमारी धरोहरों पर काम हो जो पिछले कई सालों में नहीं हुआ।

प्र० : आप भारत की मौलिकता को प्रखर रूप् में देखते हैं, ऐसे में सरकारों का रवैया आपके प्रति कैसा रहा।

: बहुत ही खराब रहा, कोई मद्द नहीं करती, ऐसा लगता है कि मानों हम अपने देश के किसी अच्छाई को प्रचारित करने के बजाय, कलंकित कर रहें है। बुद्ध हमारे नहीं है, पूरे विश्व के हैं। व्यास हमारे नहीं है पूरे विश्व के हैं। विवेकानंद अगर विश्व में जाने जाते है गुरू रवीन्द्र नाथ टैगोर को विश्व में क्यों नहीं जानने दिया गया। उन पर भी काम हो रहा है और इस काम में विदेशी संस्थायें साथ देने को तैयार हैं लेकिन भारतीय सरकारें नहीं। हम तो वसुधैव कुटम्बकम् को मानते हैं। अच्छाई करते है, वही देखना चाहते हैं और वही सुनना व सुनाना चाहते हैं लेकिन यह इतना आसान नहीं है जितना हम समझते हैं।

प्र० : आप भारतीय दर्शकों को कुछ कहना चाहेगें।

० : मै तो भारतीय दर्शकों से यही कहूंगा कि आप कर्मशियल फिल्मों को देख कर वो इसमें पैसा लगाकर अपना समय बर्बाद कर रहें हैं। इस रास्ते पर चलकर आप उन लोगों को धनवान बना रहे हैं जो सिर्फ धनपशु बन चुके है। आपकेा कुछ हासिल हो ऐसा मार्ग चुनो। अपनी प्रतिभा को पहचानो, पैसा सही राह में लगायें और सबसे बड़ी बात अपनी विरासत को पहचानिये कि आप हैं कौन ? आपका इतिहास क्या है।

 

 

 

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