आंकड़ों के बहाने आत्मावलोकन

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विगत दिनों में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने दो आंकड़े जारी किए। वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी इज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस के आकलन में भारत ने 30 स्थानों की छलांग लगाई। इसे मीडिया ने जम कर कवर किया और राजनीतिक दलों ने भी इस पर अपनी सकारात्मक अथवा नकारात्मक प्रतिक्रिया खुल कर दी। एक दूसरा अचर्चित आकलन वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम द्वारा किया गया। ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत 144 देशों में 108 वें स्थान पर पहुंच गया। 2016 में हमारा स्थान 87 वां था। इस प्रकार हम 21 स्थान नीचे आ गए।
आगामी गुजरात चुनावों के परिप्रेक्ष्य में वर्ल्ड बैंक द्वारा दी गई सकारात्मक रिपोर्ट नोटबन्दी और जीएसटी के कारण आलोचना झेल रही सरकार के लिए एक बड़ी राहत लेकर आई। यद्यपि वर्ल्ड बैंक के उक्त आकलन में जीएसटी सम्मिलित नहीं है क्योंकि जिस कालावधि पर आकलन आधारित है वह उसके बाद लागू हुआ है और इसे अगले किसी आकलन में स्थान मिलेगा। नोटबन्दी, वर्ल्ड बैंक के आकलन में स्थान नहीं पा सकती थी क्योंकि इसमें आर्थिक सुधार के उन्हीं मापकों को सम्मिलित किया जाता है जिसमें विश्व के विभिन्न देशों की तुलना की जा सके। नोटबन्दी जैसा बड़ा कदम हर देश हर वर्ष तो उठा नहीं सकता क्योंकि अर्थव्यवस्था के साथ ऐसे दुस्साहसिक प्रयोग करना कई बार आत्मघाती भी सिद्ध हो सकता है। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में करों का भुगतान सुगम हुआ है, ऋण लेना आसान हुआ है और छोटे निवेशकों के हितों की रक्षा अब बेहतर ढंग से की जा रही है। इंसोल्वेंसी और बैंकरप्सी कानून ने असफल व्यापार के निपटान को त्वरित किया है। भारत में व्यापार प्रारंभ करने में अब पहले से कम समय लगता है। बिल्डिंग परमिट हासिल करना पहले से सरल और तेज हुआ है। आयात निर्यात सुगम हुआ है। भारत ने कुल दस में से 8 पैमानों पर सुधार दर्ज किया है। लेकिन इसके बावजूद अभी भी वर्ल्ड बैंक के अनुसार भारत व्यापार करने के लिए आदर्श स्थान नहीं कहा जा सकता, हां वह इस दिशा में अग्रसर अवश्य है। कोई नया धंधा रजिस्टर करने के लिए व्यापारी को अब भी एक दर्जन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जबकि विकसित देशों में इनकी संख्या पांच है। अनुबंध लागू करना भी एक चुनौती है और हमारी न्यायपालिका की धीमी कार्यप्रणाली और कानूनों का जटिल स्वरूप दोनों इसके लिए उत्तरदायी हैं। विश्व बैंक विभिन्न देशों को अलग अलग परियोजनाओं हेतु कर्ज देता है और इसीलिए अपनी आवश्यकताओं के अनुसार वह इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं के स्वास्थ्य को मापता भी है। विश्व बैंक जिन सुधारों की वकालत करता रहा है उनके क्रियान्वयन में टेक्नॉलॉजी का बड़ा अहम रोल है। ग्लोबलाइजड इकॉनॉमी जिस पारदर्शी, भ्रष्टाचारमुक्त और परिवर्तनों हेतु सुग्राह्य अर्थव्यवस्था की कल्पना करती है वह टेक्नॉलॉजी से ही बनाई जा सकती है। डिजिटल लेनदेन की ओर बलपूर्वक धकेलने वाली नोटबन्दी और अब जीएसटी यह दर्शाते हैं कि सरकार वर्ल्ड बैंक के एजेंडे को लागू कर रही है। किन्तु भारत जैसे विशाल देश में जहाँ का आर्थिक जीवन अनेक युगों का प्रतिनिधित्व करता है, विश्व बैंक के इन सुधारों को लागू करना बहुत कठिन है और इन्हें क्रियान्वित करने की प्रक्रिया में आम लोगों के जीवन में इतनी उथलपुथल मच सकती है कि यह भी सोचना होगा कि इन्हें किस प्रकार और कितनी मात्रा में लागू किया जाए अथवा इन्हें लागू करना किस हद तक आवश्यक है। हमारे देश में वस्तु विनिमय के युग में निवास कर रहे आदिवासी हैं। नकद लेनदेन और छोटी घरेलू बचतों पर आश्रित  मजदूर और सीमांत किसान हैं। इनकी दैनिक समस्याओं का तात्कालिक समाधान करने में अपने लिए मुनाफा ढूंढ़ते छोटे व्यापारी और दुकानदार हैं जो शोषक भले ही कहलाते हैं लेकिन किसानों और मजदूरों को तत्काल 24×7 सेवा देने वाले भी यही हैं। मजदूर किसानों की मजबूरियों का लाभ उठाकर अपना धंधा चमकाने वाले इन व्यापारियों की उपस्थिति ग्रामीण और अर्ध शहरी अर्थव्यवस्था में एक विचित्र सा संतुलन स्थापित करती है। यह संतुलन अपनी अपनी आवश्यकताओं और स्वार्थों की बुनी डोर को खींच रहे दो परस्पर विरोधी समूहों का संतुलन है। बिना वैकल्पिक व्यवस्था के यदि एक समूह को अचानक हटा लिया जाएगा तो दूसरा भी लड़खड़ा उठेगा। लाल बही खातों की पूजा करने वाले, जबान और वायदे का कारोबार करने वाले व्यापारियों की एक पूरी पीढ़ी अभी भी मौजूद है। देश में शिक्षा के स्तर से हम सभी अवगत हैं और यहाँ तो अत्याधुनिक तकनीकी शिक्षा आधुनिक आर्थिक जीवन की अनिवार्यता बना दी गई है। तकनीकी पर आधारित अर्थव्यवस्था, डिजिटल निरक्षरता से ग्रस्त व्यापारियों को बाबू राज के भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला पाए न दिला  पाए लेकिन दहाई-चौथाई-अधूरे-पूरे टेक्नोक्रेट्स और उनकी वाजिब-नावाजिब शर्तों पर उन्हें निर्भर अवश्य कर देगी। कुछ व्यापक सवाल भी हैं।

डिजिटल क्रांति के साथ तत्काल तालमेल न बैठा पाने वाले व्यापारियों का जब कॉरपोरेट जायंटस के साथ मुकाबला होगा तो उनकी पराजय तय है, जो विकल्प उनके पास उपलब्ध होंगे वे शरणागति या सर्वनाश से अधिक नहीं होंगे। यदि डिजिटल क्रांति प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के बजाए प्रतिस्पर्धा को समाप्त कर रही है तो यह उन्नत व्यापार के मूल सिद्धांतों के विपरीत तो है ही, आम लोगों के लिए भी नुकसानदेह है। तकनीकी का उपयोग आर्थिक वर्चस्व स्थापित करने के औजार के रूप में किए जाने का खतरा भी बना हुआ है। विकेन्द्रित आर्थिक सत्ता हमेशा अधिक सुरक्षित होती है भले ही वह अधिक कार्यक्षम और सुगठित न हो। आर्थिक शक्तियों का चन्द समूहों के हाथों में केंद्रीकरण आर्थिक तानाशाही की ओर ले जा सकता है। विकेन्द्रित आर्थिक शक्तियों की उपस्थिति में प्रतिस्पर्धा की अधिकता के कारण और विभिन्न स्टेकहोल्डर्स की पारस्परिक निर्भरता के कारण भी आम जनता का ख्याल रखना एक रणनीतिक मजबूरी बन जाता है लेकिन जब आर्थिक शक्तियाँ कुछ समूहों के पास केंद्रित हो जाएंगी तो फिर मुनाफा कमाने की निरंकुश, निर्लज्ज, नृशंस और निष्कंटक दौड़ चल निकलेगी। भारत जैसी विशाल और विविधता पूर्ण अर्थव्यवस्था का ग्लोबलाइज़ड मॉडल अक्षरशः वर्ल्ड बैंक के निर्देशानुसार नहीं बनाया जा सकता। इन जटिलताओं के अलावा वह पुराना बुनियादी सवाल तो है ही जिसे इतना अप्रासंगिक बनाने की कोशिश चल रही है कि लोग इसे पूछना ही बंद कर दें- आर्थिक विकास किसके लिए? आम आदमी के त्याग की बुनियाद पर खड़ी पारदर्शी भ्रष्टाचार मुक्त अर्थव्यवस्था का महल किसके लिए? क्या उन एक प्रतिशत लोगों के लिए जो पहले ही 58 फीसदी दौलत के मालिक हैं या उस वंचित के लिए जिसके नाम का उल्लेख हर आर्थिक सुधार के पहले अनिवार्य रूप से लिया जाता है किंतु जिसे वंचित ही रखा जाता है।
अब बात वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम के जेंडर गैप इंडेक्स की। यह औरत और मर्द की गैर बराबरी का आकलन स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आर्थिक और राजनीतिक तरक्की के पैमानों पर करता है। इसमें भारत बांग्लादेश(47) और चीन(100) से भी पीछे रहा। हेल्थ और सर्वाइवल के आंकड़ों में देश 144 देशों में 141 वें स्थान पर रहा जबकि आर्थिक स्वायत्तता के क्षेत्र में हमारा स्थान 139 वां रहा। नारी की आर्थिक मजबूती का सीधा सकारात्मक प्रभाव उसके स्वास्थ्य पड़ता है क्योंकि आर्थिक रूप से समर्थ नारी न केवल अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखती है बल्कि उसके परिजन भी उसके स्वास्थ्य के प्रति सतर्क होते हैं। बावजूद प्रधानमंत्री जी के बहुप्रचारित बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान तथा मैटरनिटी बेनिफिट बिल एवं प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, शौचालय निर्माण जैसी खास नारियों को लक्ष्य कर चलाई जा रही योजनाओं के, नारी की स्थिति बदतर ही हुई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं को उनके कार्य का भुगतान नहीं मिलता। इस प्रकार का अनपेड वर्क दो प्रकार का होता है, एक वह जिसे जीडीपी आदि राष्ट्रीय लेखा पद्धतियों के अंतर्गत रखा जा सकता है जो बाजार से गुजरता है और दूसरा घरेलू कार्य जो परिवार के अपने उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन आदि से सम्बंधित होता है। दिन भर आफिस में खटना या मजदूरी करना और फिर घर आकर पूरा काम देखना यह भारतीय नारी की नियति रही है। जिस पारंपरिक सांस्कृतिक व्यवस्था की ओर देश को लौटाने का प्रयास सांस्कृतिक शुद्धता के आग्रही कर रहे हैं उसमें नारी की भूमिका कमोबेश परिवार तक ही सीमित कर दी गई थी। इस शास्त्रीय दृष्टिकोण पर पुरुषवाद का प्रभाव है या नहीं इसका आकलन करने हेतु विद्वत्तापूर्ण विमर्श किया जा सकता है। लेकिन अपनी सुविधानुसार कभी नारी को घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर कमाने के लिए बाध्य करना और कभी उस पर अपने पारंपरिक दायित्व की उपेक्षा का आरोप लगाना निश्चित ही पुरुषवादी सोच का परिचायक है। हर धर्मावलंबी बड़े गर्व के साथ यह कहता है कि उसका धर्म नारी को उच्च स्थान देता है किन्तु नारियों को व्यवहार में उपेक्षित और तिरस्कृत होना ही पड़ता है। इस बात पर भी एक बड़ी विचारोत्तेजक बहस हो सकती है कि क्या जाति, धर्म और राष्ट्र की सीमाओं को तोड़कर सारे पुरुष, नारी शोषण के समर्थन में एकमत हैं और एक अघोषित साझा रणनीति पर कार्य करते हैं।
विशुद्ध आर्थिक रूप से देखें तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी के अनुसार जब रोजगार की समस्या उत्पन्न होती है तो इससे महिलाएं ही सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। सन 2004-05 से सन 2011-12 के बीच एक करोड़ छियानवे लाख महिलाओं ने नौकरी छोड़ी।2013 के वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के अनुसार केवल 27 प्रतिशत महिलाएं भारत की सकल श्रम शक्ति का भाग हैं। उदारीकरण प्रारम्भ होने के समय यह संख्या 1992-93 में 34.8 प्रतिशत थी। उदारीकरण समर्थकों द्वारा यह स्थापना दी जाती है कि उदारीकरण के फलस्वरूप आर्थिक गतिविधियों में तेजी आती है और इसका प्रभाव रोजगार पर सकारात्मक रूप से पड़ता है किंतु आश्चर्यजनक रूप से भारत की महिलाओं के साथ ऐसा नहीं हुआ। और भी आश्चर्यजनक यह है कि इन वर्षों में महिला साक्षरता और शिक्षा के क्षेत्र में भारत का प्रदर्शन बहुत बेहतर रहा है। यह धारणा भी कि शिक्षा का प्रसार महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाएगा भारत की महिलाओं के सम्बन्ध में असत्य सिद्ध हुई। यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोग्राम की 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों की 67 प्रतिशत स्नातक कन्याएं काम नहीं करतीं जबकि 68.3 प्रतिशत शहरी स्नातक कन्याओं को रोजगार नहीं मिल पाता। नेशनल सैंपल सर्वे के 2011 के आंकड़े बताते हैं कि शहरी क्षेत्रों की 33 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों की 50 प्रतिशत घरेलू महिलाएं गृह कार्य के अलावा कोई आय प्रदान करने वाला काम भी करना चाहती हैं। इन महिलाओं की चाहत उन्हें नौकरी तक खींच लाती है लेकिन फिर ऐसा क्या हो जाता है कि वे नौकरी छोड़ देती हैं। महिलाओं के इस विचित्र लगने वाले व्यवहार के कारण हमारी सामाजिक व्यवस्था में मौजूद हैं। लड़कियों को नौकरी करने के लिए बाहर जाने की अनुमति नहीं मिलती। अनेक बार विवाह के बाद पति और ससुराल पक्ष के लोग नौकरी करने की अनुमति नहीं देते। कई बार माता पिता या पति कुछ विशेष नौकरियों के लिए हां कहते हैं और कुछ विशेष नौकरियों के लिए ना। इस कारण या तो नौकरी छोड़नी पड़ती है या अपनी योग्यता से नीचे के पदों को स्वीकारना पड़ता है। कभी पति, पत्नी के नौकरी करने को अपने लिए शर्म का विषय मानता है और उसे नौकरी छोड़ने को बाध्य कर देता है। कुछ महिलाएं पति को नौकरी मिलते तक या घर की आर्थिक स्थिति सुधरते तक ही नौकरी करती हैं। सुरक्षा के खतरों से आशंकित होकर भी महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं। कई बार जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रसाधन गृह का अभाव या कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों या पुरुष बॉस का रवैया महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य कर देता है। आंकड़े बताते हैं कि तेजी से वृद्धि करते क्षेत्रों यथा बीमा-बैंक(78.79 प्रतिशत पुरुष कर्मचारी) टेलीकॉम(83.84 प्रतिशत पुरुष कर्मचारी) और आयल,गैस,स्टील(74.75 प्रतिशत पुरुष कर्मचारी) आदि में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य है। महिलाओं ने पुरुषों के द्वारा खींचे गए दायरे को इस तरह स्वीकार लिया है कि वे खुद स्वास्थ्य, शिक्षा और सौंदर्य जैसे कुछ क्षेत्रों को अपने लिए उपयुक्त मानती हैं जो अंततः पुरुष समाज द्वारा चयनित और स्वीकृत हैं। समान कार्य के लिए पुरुषों और महिलाओं को दिए जाने वाले वेतन में भी भारी अंतर देखा जाता है। घरेलू आर्थिक गतिविधियों का मेहनताना मिलने का तो प्रश्न उठाना ही बगावत की श्रेणी में आ जाएगा। जब भी मंदी आती है और छंटनी की स्थिति बनती है तो इसका शिकार सबसे पहले महिलाएं बनती हैं। पिछले कुछ महीनों में नोटबन्दी के कारण असंगठित क्षेत्रों के कारोबार, लघु, कृषि आधारित और कुटीर उद्योगों को काफी दिक्कतें झेलनी पड़ीं और इनमें काफी उथलपुथल हुई जिसका असर महिलाओं पर निश्चित ही पड़ा होगा किन्तु इसके आकलन के लिए यह स्वीकारना होगा कि नोटबन्दी का असर नकारात्मक रहा है। यही स्थिति जीएसटी के संबंध में भी है।
रक्षा और विदेश जैसे महत्वपूर्ण विभाग वर्तमान सरकार में महिलाओं के पास हैं। सुषमा स्वराज, उमा भारती, मेनका गांधी, स्मृति ईरानी, निर्मला सीतारमण और हरसिमरत कौर बादल जैसी ताकतवर महिला नेत्रियां मंत्रिमंडल में हैं। सोनिया गांधी विपक्ष की नेता हैं जो स्वयं एक दशक तक भारतीय राजनीति का शक्ति केंद्र रही हैं।इसके बाद भी ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत का प्रदर्शन चिंताजनक रूप से गिरा है। क्या ऐसा शीर्षस्थ पदों पर पहुंचने वाली नारियों के पुरुषवादी मूल्यों को स्वीकार कर लेने के कारण है? यह विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल समावेशी विकास हर वर्ग की भागीदारी से संभव है और यह सच्चे अर्थों में तभी समावेशी बनता है जब इसके लाभ भी हर वर्ग तक पहुंचें। आज जीडीपी में महिलाओं का योगदान मात्र 17 प्रतिशत है जबकि विश्व का औसत 37 प्रतिशत है। यदि अर्थव्यवस्था में नारियों की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए तो अनुमानतः जीडीपी में 60 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है।
डॉ राजू पाण्डेय

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