इराक, इंडिया ओर इंडियन्स

-अंकुर विजयवर्गीय-
iraq

बुरे सपने सच होते लग रहे हैं। सुन्नी समुदाय के बागियों द्वारा पहले इराक के मोसूल पर और अब टिकरित पर कब्जे ने इस मुल्क को सवालिया घेरे में ला दिया है। यह उम्मीद भी अब खत्म-सी हो चली है कि वजीर-ए-आजम नूरी अल-मलिकी अपनी खोई जमीन दोबारा हासिल कर लेंगे। यकीनन यह उस इलाके में कट्टरपंथ की जीत है, जो सुन्नी-शिया विवाद से पस्त रहा है। पूरी दुनिया इराक के हालात पर हैरान है। दरअसल, मलिकी हुकूमत से लड़ते हुए विद्रोहियों ने उस टिकरित शहर पर भी अपना कब्जा जमा लिया है, जो सद्दाम हुसैन का पुश्तैनी इलाका है और जहां पर इराक की सबसे बड़ी तेल रिफाइनरी है। मोसूल इराक का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इसलिए उसे खोना ही मलिकी के लिए एक जबर्दस्त धक्का था। अब टिरकित की हार ने उनकी चोट को और गहरा कर दिया है। जैसे कि ब्योरे हैं, खुद बागी गुट टिरकित की अपनी जीत से अचंभित हैं, क्योंकि उसे भी यह इलहाम न था कि मलिकी की फौज इतनी आसानी से घुटने टेक देगी। इन दोनों शहरों पर बागियों की जीत से यह साफ लगता है कि इराक अब घरेलू जंग की तरफ बढ़ गया है और डर है कि कहीं यह छोटे-छोटे टुकड़ों में न बंट जाए।

बागियों ने अगर अपनी स्थिति कुछ और मजबूत कर ली और दूसरे इलाकों पर भी उनका कब्जा हो गया, तब भी वे पूरे मुल्क पर हुकूमत नहीं कर सकेंगे, क्योंकि मलिकी सरकार अपनी खोई हुई जमीन और प्रतिष्ठा फिर से हासिल करने की कोशिश जरूर करेगी। वैसे भी, शिया और सुन्नी समुदायों के बीच सांप्रदायिक संघर्ष हुआ, तो बहुसंख्यक शिया मलिकी हुकूमत के पीछे लामबंद हो जाएंगे। इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा हालात के लिए मलिकी जिम्मेदार हैं। उन्होंने समाज के सभी तबकों को साथ न लेकर, खासकर सुन्नियों को भरोसे में न लेकर खुद को अदूरदर्शी साबित किया। मलिकी समाज के एक तबके के खैरख्वाह के रूप में ही सामने आए। सुन्नियों में उपेक्षित होने का भाव गहराता गया। अब तो लगता है कि आने वाले हफ्तों में इराक भी उसी मानवीय त्रासदी का शिकार न हो जाए, जिसे आज सीरिया भोग रहा है।

इराक में चल रही लड़ाई जैसे-जैसे घमासान होती जा रही है, भारत में चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। अर्थव्यवस्था पर इस युद्ध के पड़ने वाले प्रभावों की चिंता तो है ही, पर फिलहाल सबसे बड़ी चिंता इराक में फंसे भारतीय नागरिकों को लेकर है। चंद रुपये कमाकर अपने परिवार का पालन-पोषण करने की उम्मीद में इराक गए लोग इस समय कई तरह से संकट में हैं। ऐसे कितने लोग इस समय इराक में हैं, उनकी सही संख्या अभी पता नहीं चल सकी है। यह भी नहीं मालूम कि उनकी सही संख्या कहीं पर दर्ज भी है या नहीं। कुछ ही चीजें पता हैं, जैसे केरल की 44 नर्सें इस समय इराकी शहर टिकरित के एक अस्पताल में हैं। अच्छी बात यह है कि वे सभी सुरक्षित हैं, लेकिन समस्या यह है कि उन्हें वहां से कैसे निकाला जाए? टिकरित शहर इस समय बागियों के कब्जे में है और वहां से उन्हें निकालना काफी जोखिम भरा काम है। जिस अस्पताल में वे काम करती हैं, उस परिसर में तो वे सुरक्षित हैं, लेकिन परिसर के बाहर की गारंटी वह नहीं ले सकता। इन नर्सों के अलावा कई सारे निर्माण मजदूर हैं, जो इराक की बहुत सारी जगहों पर इमारतों की निर्माण परियोजनाओं में लगे हुए हैं। इसके अलावा एक खबर यह भी है कि इराक के कुर्दिश स्वायत्त इलाके में तकरीबन डेढ़ हजार भारतीय हैं। अभी तक जो लड़ाई चल रही है, उसमें यह इलाका अपेक्षाकृत सुरक्षित दिख रहा है। इराकी लोग भी शरण लेने के लिए इसी इलाके में आ रहे हैं। मगर खतरा वहां भी है, क्योंकि बगावत के सुर वहां से भी सुनाई देने लग गए हैं।

युद्ध-ग्रस्त क्षेत्र से भारतीय नागरिकों को निकालने का पिछला जो रिकॉर्ड है, वह काफी उम्मीद बंधाता है। 1990 में जब इराक ने कुवैत पर हल्ला बोला था, तो भारतीय वायु सेना और नौसेना ने वहां से 1,76,000 भारतीयों को आपात स्थितियों में निकाला था। इतनी बड़ी संख्या में किसी देश के नागरिकों को निकालने का यह विश्व रिकॉर्ड है। इसी तरह, साल 2006 के लेबनान युद्ध के समय भी भारतीय सेनाओं ने ऑपरेशन सुकून चलाकर न सिर्फ भारतीयों को, बल्कि श्रीलंका और नेपाल के नागरिकों को भी वहां से निकाला था। तीन साल पहले लीबिया में हुए गृहयुद्ध के समय भी भारत ने ऑपरेशन सेफ होमकमिंग चलाकर लगभग 18 हजार भारतीयों को लीबिया से सुरक्षित निकाला था। अभी कुछ हफ्ते पहले ही युद्ध में उलझे हुए यूक्रेन से एक हजार भारतीयों को निकाला गया। इनमें से ज्यादातर छात्र थे, जो पढ़ाई के लिए वहां गए हुए थे। लेकिन इस सबके मुकाबले देखें, तो इस समय इराक में हालात ज्यादा कठिन हैं, क्योंकि भारतीय वहां दूर-दराज के युद्ध-ग्रस्त क्षेत्रों में फंसे हुए हैं।

इधर, दुनिया भर के पेट्रोलियम विशेषज्ञ अभी यही कह रहे हैं कि इस बार इराक में जो गृहयुद्ध चल रहा है, वह दुनिया के लिए किसी पेट्रोल संकट में नहीं बदलने वाला, बावजूद इसके कि विद्रोही सेनाओं ने इराक के एक तेल क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। इस आशावाद की वजह यह है कि इराक के ज्यादतर तेल प्रतिष्ठान कुवैत की सीमा के पास हैं, विद्रोही सेनाएं अभी इससे बहुत दूर हैं और उनके वहां तक जा पहुंचने की फिलहाल कोई आशंका भी नहीं दिख रही। इसके अलावा, इराक का एक बड़ा तेल क्षेत्र कुर्द इलाके में है, जिसे फिलहाल सुरक्षित समझा जा रहा है। यह जरूर है कि कुर्द लोग इसे बगदाद से मुक्त कराकर अपने कब्जे में लेना चाहते हैं, लेकिन वह समस्या दूसरी है। माना यह जा रहा है कि इराक में फिलहाल जो लड़ाई चल रही है, उसका तेल उत्पादन पर ज्यादा असर नहीं पड़ने जा रहा। लेकिन इसी के साथ सभी विशेषज्ञ यह भी मान रहे हैं कि इस लड़ाई का असर थोड़ा-बहुत ही सही, तेल की कीमतों पर पड़ेगा ही। विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर चली गई है और आशंका यही है कि यह कीमत जल्द ही 120 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर हो जाएगी। बेशक, विश्व बाजार और पेट्रोलियम विशेषज्ञों की नजर में यह बहुत बड़ा संकट नहीं है, लेकिन भारत जैसे देश के लिए इतने भर से ही संकट खड़ा हो सकता है।

भारत में दिक्कत यह है कि इराक से होने वाला आयात हम डॉलर की बजाय रुपये के बदले करते हैं, इससे एक तो हमें अपने विदेशी मुद्रा कोष पर ज्यादा बोझ नहीं बनाना पड़ता और दूसरे रुपये को स्थिर रखने में भी मदद मिलती है। यह ठीक है कि इराक से कच्चे तेल की आपूर्ति में अगर थोड़ी भी कमी आती है, तो हम विश्व बाजार से पेट्रोल खरीद सकते हैं, जहां पेट्रोल पर्याप्त मात्र में उपलब्ध है। लेकिन इसमें दो दिक्कते आएंगी, एक तो इसके लिए डॉलर खर्च करने होंगे, जिसके चलते विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आएगी और रुपया भी कमजोर होगा। मुद्रा बाजार में तो इसी आशंका के चलते रुपये की कीमत गिरनी भी शुरू हो गई है। दूसरी दिक्कत पेट्रोल के महंगे होने को लेकर आएगी। सरकार को तुरंत यह फैसला करना होगा कि वह देश में बिकने वाले पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाए या नहीं। समस्या दोनों तरह से ही है। कीमत अगर बढ़ती है, तो इसका असर पूरे बाजार पर पड़ेगा और महंगाई अधिक बढ़ेगी, जो पहले से ही नई सरकार को परेशान कर रही है। और अगर सरकार कीमत न बढ़ाने का फैसला करती है, तो देश का वित्तीय घाटा बढ़ेगा, जो तमाम दूसरी तरह की दिक्कतें खड़ी करेगा।

यह ठीक है कि पिछले कुछ बरस में देश में तेल और गैस का उत्पादन बढ़ा है, लेकिन मांग उसकी तुलना में कहीं ज्यादा बढ़ी है। बल्कि विश्व बाजार में जब पेट्रोल की कीमतें बढ़ती हैं, तो यही कहा जाता है कि भारत जैसे देशों की बढ़ती मांग के कारण ही ऐसा हो रहा है। ऊर्जा आत्मनिर्भरता का लक्ष्य अभी मुश्किल हो सकता है, लेकिन आयातित ऊर्जा संसाधनों पर निर्भरता को लगातार कम करना जरूरी है। रह-रहकर सामने आने वाले इस संकट से मुकाबला करने का यही तरीका है।

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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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