प्राचीन है संगीत से बारिश की परंपरा

डॉ. दीपक आचार्य

संगीत की स्वर लहरियों पर रीझते हैं इन्द्रदेव

 थार संगीत में छिपा है मेघों के आकर्षण का सामथ्र्य

बरसात के देवता इन्द्र को प्रसन्न कर बारिश का आवाहन करने में विभिन्न रागों की माधुर्यपूर्ण प्रस्तुति जबर्दस्त सामथ्र्य रखती हैं। प्राचीन काल में बारिश नहीं होने अथवा विलम्ब से होने की स्थिति में यज्ञ-यागादि व गाँवाई सामूहिक भोज ( उजण्णी अथवा उजरणी ) के साथ ही इन्दर राजा को रिझाने के लिए सांगीतिक आह्वान का प्रचलन रहा है।

प्राचीन है संगीत से बारिश की परंपरा

भारतीय इतिहास में ऎसी कई गाथाओं का जिक्र हैं जिसमें संगीत से देवताओं को खुश कर बरसात करायी गई। कुछ दशक पूर्व तक भी यह परंपरा बरकरार थी मगर अब बारिश लाने के लिए सांगीतिक आवाहन की बातें गौण हो गई हैं।

यह माना जाता है कि बारिश नहीं आने पर जनमानस में विकलता की स्थितियाँ पैदा हो जाने पर कारुणिक भाव से प्रार्थना के साथ ही वृष्टिदायी रागों से सांगीतिक आवाहन का सहारा लिये जाने से सकारात्मक प्रभाव सामने आता है।

मल्हार गायकी से खुश होते हैं इन्दर राजा

मेघों के देवता इन्द्र को प्रसन्न कर बारिश लाने के लिये मल्हार, पहाड़ी, सिंधी भैरवी आदि रागों से परिपूर्ण संगीत लहरियों का अचूक प्रभाव माना जाता है। इन रागों में भावपूर्ण अभिव्यक्ति जब हारमोनियम, ढोलक, कमायचा, सारंगी, सितार, तानपूरा, तबला आदि लोकवाद्यों की संगत पा लेती हैं तब ये समवेत स्वर लहरियाँ बरसात के देवता का दिल खुश कर देने को काफी होती हैं।

यह गायन स्थानीय बोली व भाषा शैली के साथ मिश्रित होकर करिश्माई प्रभाव छोड़ते हैं। पश्चिमी राजस्थान की ही बात करें तो इन्द्र राजा को रिझाने की दृष्टि से जैसलमेरी मल्हार ’बरसाला’ अंतर्गत ’‘था बिना म्हारो चौमासो लूवो जाए’’, राजस्थानी मल्हार ’‘जल भरियो हबोला खाय तणिया रेशम की’’, शास्त्रीय ’सावन के घर आ साजन, सावन के घर आ, मोर बोले, पपैया बोले, कोयल गीत सुनाए, साजन सावन के घर आ’ की मनमोहक प्रस्तुति मंत्रमुग्ध कर देती हैं।

वर्षा के आवाहन में इन राग-रागिनियों के साथ ही विभिन्न आराध्य देवताओं के भजन भी सरसता घोलने वाले होते हैं। इनमें मुख्य रूप से भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित भजन ’‘साँवरिया थारां नाम हजार कियूं लिखूँ कंकूतरी’ तथा ‘‘छोटा-छोटा हथड़ा, छोटा-छोटा पाँव, भलो लागे रे म्हारो मदन गोपाल’’ गाए जाते हैं।

इसी प्रकार राग सिंधी भैरवी में ’‘अजहुँ न आये बालमा, म्हारो सावण बीतो जाय’’ तथा राग पहाड़ी में ’‘बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है.’’ को तरन्नुम के साथ पेश किया जाता है।

इसी प्रकार वर्षा आवाहन के लिये मिली-जुली प्रस्तुतियों मे फिल्मी धुनों से लेकर वे सभी राग-रागिनियाँ समाविष्ट होती हैं जिनसे श्रोता मदमस्त हो जाते हैं और फिर जब ये सब कुछ इन्दर राजा को सुनाने व रिझाने के लिए किया जाए तब की बात की कुछ और है। इस दौरान ’‘कागलिया गहरो-गहरो बोल, म्हारो परण्योरो गयो परदेस’’ के साथ कई श्रृंगारपरक गीतों की बरसात भी होती रहती है।

रियासतकाल में भी होता था बारिश का आवाहन

पुराने जमाने में जब बारिश के लिए लोग बेसब्र हो जाते थे तब रियासतों की ओर से मेघों के देवता का आवाहन करने के लिए कई जतन होते थे। इनमें सांगीतिक आवाहनमूलक आयोजनों का भी अपना ख़ास महत्त्व था। इनमें स्वयं राजा और दरबारियों की भी भागीदारी हुआ करती थी व स्वरसाधकों का कुंभ जुटता था। जैसलमेर रियासत में भी तत्कालीन महारावल जवाहिरसिंह एवं गिरधरसिंह के समय ऎसे मेघ मल्हारी कार्यक्रम हो चुके हैं। जैसलमेर के आलमखाना संगीत घराना से जुड़े दरबारी लोकगायक अकबर खाँ बताते हैं कि तत्कालीन महारावल जवाहिरसिंह के समय बारिश को बुलाने के लिये ऎसे आयोजन हो चुके हैं जिनमें लोकसंगीत की कई बड़ी हस्तियाँ शिरकत कर चुकी हैं।

इनमें उस्ताद बड़े गुलामअली के रिश्ते में भाई उस्ताद प्यारे खाँ की गायकी, तानपूरे पर राजूराम हर्ष, सारंगी पर दरबारी कलाकार उस्ताद आरब खाँ व तबले पर दीनदयाल गोपा की संगत का कोई मुकाबला ही नहीं था। इसके साथ ही खुद महारावल गिरधरसिंह की हॉरमोनियम पर संगत सोने में सुहागा थी।

परंपरा का बढ़ावा मिलना चाहिए

उस्ताद अकबर खाँ बताते हैं कि जब-जब भी ऎसे आयोजन हुए तब-तब इन्द्रदेव की मेहर बरसी है। वयोवृद्ध लोक कलाकार अकबर खाँ के अनुसार उन्होंने भी दो-तीन बार मेघ मल्हार राग का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा है। वे कहते हैं कि सभी कलाकारों को साथ लेकर इस तरह के आयोजनों को बढ़ावा दिया जाए तो सुवृष्टि होने के साथ ही इन्द्र देवता के आवाहन की यह परम्परा अक्षुण्ण बनी रह सकती हैं।

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