क्या अन्ना का किसान आन्दोलन प्रायोजित है ?

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अन्ना हजारे ने भूमि अधिग्रण अध्यादेश के खिलाफ देश के किसानों को ढाल बनाकर सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी फिर से शुरू कर दी है। तमाम मीडिया घराने अन्ना के आंदोलन को तवज्जो दे रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन को अन्ना की मर्म भावना से जोड़कर अध्यादेश के इर्द-गिर्द कयास लगाने वाले इस बात को भी समझ लें कि आज दिल्ली की गद्दी पर मुख्यमंत्री के रूप में विराजमान अरविंद केजरीवाल अन्ना के मंच की ही देन हैं, जो किसी समय अपने मंच से राजनीति को छि: छि: कहते थे और दंभ करते थे कि उनके मंच पर कोई राजनीतिक दल विराजमान नहीं हो सकता है। कथनी और करनी में इतना फर्क। और तो और अन्ना ने इस विषय पर सफाई देते कहा अरविन्द केजरीवाल अब सिर्फ नेता नहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री भी हैं। अन्ना जी अगर कोई मंत्री नेता नहीं होता तो सिर्फ केजरीवाल ही क्यों, ममता क्यों नहीं, अखिलेश क्यों नहीं, नितीश क्यों नहीं, वशुन्धरा क्यों नहीं, रमण सिंह क्यों नहीं? अन्ना को शायद यह भी याद रहना चाहिए की अभी चार-पांच दिन पहले उन्होंने ये भी कहा था की राहुल गाँधी भी आपके आन्दोलन को ज्वाइन कर सपोर्ट कर सकता है।
खैर, हमें उस ओर मामले को ले भी नहीं जाना। यहां प्रश्न अन्ना के आंदोलन से जुड़े कई सारे हैं। 17 मार्च 2014 की ही तो बात है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ अन्ना हजारे की रैली दिल्ली के रामलीला मैदान में फ्लॉप हुई थी। उस रैली में भीड़ ही नहीं आई। कुर्सियां खाली पड़ी रहीं। नतीजन, अन्ना आए ही नहीं। उस रैली के बाद अन्ना की इतनी फ़जीहत हुई कि एक आम इंसान इतनी जल्दी तो उस बेइज्जती से बाहर नहीं आ पाता, लेकिन आज ऐसी फिर कौन की बाहरी हिम्मत आ गई कि अन्ना जंतर-मंतर पर यह सोचकर आश्वस्त होकर फिर चल पड़े कि भीड़ तो आनी ही है, आंदोलन तो सफल होना ही है। अगर इस बूते अन्ना आज धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं तो क्या अन्ना की जो रैली 5 अप्रैल 2011 को हुई थी, उस भीड़ को भी जुटाने के लिए कोई बड़ी ताकत लगातार प्रयासरत थी? ये वो सवाल है जिसमें काफी हद तक सच्चाई है और इसका पर्दाफाश अब इसलिए हो रहा है, क्योंकि यूपीए के शासनकाल में वो शक्तियां खुलकर सामने आतीं तो न अन्ना प्रोजेक्ट हो पाते, न उनका आंदोलन और न वो भीड़ आ पाती। साफ शब्दों में कहें तो अन्ना की पोल ही खुल जाती। अन्ना का आंदोलन फ्लॉप हो जाता। अन्ना के आंदोलन की पोल खुल जाती है उसके पीछे किसी की साजिश थी? यह प्रश्न तब उठता है जब एक तरफ अन्ना द्बारा आंदोलन की घोषणा की जाती है और कांग्रेस के महारथियों की चहलकदमी उसके पक्ष में तेज होती दिखाई देने लगती है। तमाम लामबंदियों के साथ कांग्रेस के साथ जुगलबंदी भी सामने आ जाती है। इसके एक नहीं, कई पहलू हैं जिसकी जांच के बाद अन्ना व उनकी टीम सीधे कटघरे में खड़े दिखेंगे।
अन्ना के लिए कुछ सवाल हैं जिसका जवाब देश के सामने अन्ना को देना चाहिए। क्या ये सच नहीं है कि जिस चार्टर्ड प्लेन से अन्ना पुणे से दिल्ली आए, वह जिंदल की कंपनी का था? क्या ये सच नहीं है कि उसी चार्टर्ड प्लेन में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी भी अन्ना के साथ थे, जो उन्हें कब कौन सा स्टंट करना है, से अवगत कराते आ रहे थे? क्या ये सच नहीं है कि अन्ना के प्रदर्शन को सफल बनाने के लिए पलवल से भीड़ मंगवाई गई और इसके पीछे कांग्रेसी उद्योगपति पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं?
क्या ये सच नहीं है कि एकता परिषद के पीवी राजगोपाल अन्ना के किसान आंदोलन से अलग हो गए हैं? अन्ना के इन्हीं दोधारी नीतियों से परेशान होकर राजगोपाल ने अलग मोर्चा चलाने का निर्णय लिया है। वैसे राजगोपाल केरल से गांधीवादी कार्यकर्ता, गांधी शांति प्रतिष्ठान के उपाध्यक्ष और एकता परिषद के प्रमुख हैं जिन्होंने 2011 में ही कहा था कि अन्ना टीम के निर्णयों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता है इस लिए वो टीम से हट रहे हैं।
इतना ही नहीं, अन्ना अराजनीतिक परिभाषा और अपने मंच तक राजनीतिक लोगों को प्रवेश न देने की बात के दौरान यह भी भूल गए हैं कि उनके मंच पर जो मेधा पाटेकर भी हैं, वह खुद आम आदमी पार्टी की सदस्य हैं और आप पार्टी के टिकट से मुंबई में चुनाव भी लड़ चुकी हैं। वर्ष 2013 में इसी मेधा ने बिजली के बढ़े हुए बिल के खिलाफ अनशन में आम आदमी पार्टी के नेता अरविद केजरीवाल को समर्थन भी दिया था। यही नहीं, पाटेकर के नेतृत्व वाले नेशनल अलायंस ऑफ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) ने बयान जारी कर केजरीवाल के अनशन का समर्थन किया था जो राजधानी में निजी बिजली कंपनियों की ऑडिट कैग से कराये जाने की मांग कर रहे थे।
खैर, अब आपको अन्ना से संबंधित एक और दिलचस्प कड़ी बताते हैं। अपने विवादित और बड़बोले बयानों से टीवी में छाने वाले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह से तो आप वाकिफ होंगे। आपको ये भी पता है कि दिग्गी अपने बयानों पर कभी खेद नहीं जताते, लेकिन दिग्गी ने अन्ना के बारे में जैसे ही कुछ कहा कि कांग्रेस के आलाकमान की ओर से कड़ी आलोचना आई और मामला इतना गंभीर हुआ कि अंतत: दिग्गी को सार्वजनिक रूप से अफसोस तक जताना पड़ा। दिग्विजय सिह ने टिवटर पर लिखा कि अगर मेरे बयानों से अन्ना आहत हुए हों तो मैं खेद जताता हूं। उन्होंने अन्ना हजारे को नए साल की मुबारकवाद देते हुए लिखा है कि वह हमेशा अन्ना के प्रशंसक बने रहेंगे। उन्होंने अन्ना को नये साल में अपनी टीम में बदलाव करने का भी सुझाव दिया था। यही नहीं, दिग्विजय सिह ने उसके बाद एक मामले पर अन्ना हज़ारे को बधाई भी देते हुए कहा था कि हज़ारे ने आरएसएस के स्वयंसेवकों को काली की जगह सफ़ेद टोपी पहना दी। कांग्रेस महासचिव ने अपने गृहप्रदेश के राघोगढ़ में पत्रकारों को बताया कि अन्ना हज़ारे इसलिए भी बधाई के पात्र हैं क्योंकि उन्होंने कट्टरवादी हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों के हाथों में भगवा झंडे की जगह तिरंगा झंडे पकड़ा दिए। ये वो बोल हैं जो साफ करते हैं कि अन्ना के सीधे कांग्रेस आलाकमान से किस हद नजदीकी संबंध रहे हैं। और ध्यान देने वाली बात ये भी है कि ये सब तब हो रहा था जब अन्ना कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। तो सवाल है कि आखिर अन्ना कांग्रेस के खिलाफ क्यों थे? इसका जवाब अब सामने आ चुका है।
प्रवक्ता डॉट कॉम की मुहिम में बड़े-बड़े दिग्गज कांग्रेसियों से पड़ताल के बाद यह बात सामने आई है कि बाबा रामदेव के प्रदर्शन को बेअसर करने के लिए कांग्रेस ने अन्ना हजारे को उतारा था। 4 जून 2010 को दिल्ली पुलिस द्बारा बाबा रामदेव के समर्थकों पर लाठीचार्ज की घटना के बाद जब रामदेव ने कांग्रेस के खिलाफ बिगुल की बात उठाई तो लगातार बिगड़ रहे माहौल को लेकर 2011 के शुरुआत में ही अन्ना हजारे जैसे शख्स की मार्केटिंग कर दी गई और एक तरफ जहां रामदेव पर शिकंजा लगा, वहीं 5 अप्रैल 2011 से अन्ना द्बारा योजनागत तरीके से बड़ा भूख हड़ताल करवा दिया गया। देश जानना चाहता है कि 12 दिनों तक अन्ना के भूखे रहने के बावजूद, ढेरों आश्वासनों के बावजूद, एक मजबूत लोकपाल नहीं आ पाया और फिर अन्ना हाथ-पैर समेत रालेगण सिद्धि में बैठ गए थे। फिर लोकपाल का स्मरण तब आया और बोली तब-तब निकली जब-जब बाबा रामदेव जैसे दिग्गजों ने यूपीए की नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने की ठानी थी। यानी अन्ना हजारे को कांग्रेस ने अपने हिसाब से प्रोजेक्ट किया। देश का ध्यान बंटाने के लिए किया। बड़े प्रदर्शनों की गूंज को दबाने के लिए किया। अगर ऐसा नहीं होता तो अन्ना मजबूत लोकपाल के लिए फिर से अड़ते, पर ऐसा नहीं है, लेकिन अन्ना का मकसद वो था ही नहीं। आज भी कांग्रेस के दिग्गज अन्ना को प्रोजेक्ट ही कर रहे हैं। यही कारण है कि जिंदल के चार्टर्ड प्लेन से अन्ना आ-जा रहे हैं, तो पंकज पचौरी जैसे कांग्रेसी सलाहकार अन्ना को रिमोट की तरह चला रहे हैं। अन्ना की आदत है, खुद को राजनीति से बाहर बताना, लेकिन अन्ना इतना नहीं समझते कि जिस दिन संसद का सत्र शुरू हो रहा है, उसी दिन से आपका प्रदर्शन भी शुरू हो रहा है। राहुल गांधी संसद सत्र से छुट्टी  लेकर आत्मचिंतन करने चले जाते हैं, निश्चिंतता है कि संसद में बहस से कुछ होना नहीं तो नज़रें अन्ना जैसे प्यादे पर टिकी होती है।
लेकिन केंद्र सरकार को चाहिए कि इस मामले की पूरी तरह से जांच करवाए और कांग्रेस का अन्ना के साथ कनेक्शन को बेनकाब करे। क्योंकि देश जानना चाहता है और प्रवक्ता डॉट कॉम की ओर से अन्ना के लिए यही सवाल है कि… अन्ना जी, आखिर क्यों नहीं ला पाए मजबूत लोकपाल बिल?
आखिर क्यों करते हैं दिग्विजय आपकी तारीफ?
आखिर क्यों घूमते हैं आपके आस-पास कांग्रेस के सिपहसालार?

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  1. अन्ना समय समय पर आंदोलन के जरिये सुर्ख़ियों में इसलिए रहते हैं की आंदोलन का समय चुनते वक्त वे सावधान रहते हैं. वैसे उनके आंदोलनों और शिकायतों ने कई भ्रष्ट अफसरों और मंत्रियों को घर पर बैठने के लिए मजबूर कर दिया है. युवा सम्राट के भाषण और अन्ना के भाषण में काफी अंतर है. दिल्ली चुनाव में युवा नेता सूट को मुद्दा बनाते हैं किन्तु महाराष्ट्र चुनाव में एक ऐसे नेता का जिक्र नहीं करते जो भारतीय वायु सेवा का पूरा विमान अपनी बेटी के ससुरालवालों को ले जाने में लगाया गया हो। दूसरे अन्ना के आंदोलनों से उपजे केजरीवाल हैं जो बार बार पलटीवाल का काम करते हैं. राजनीती से दूर रहने की बात करतें हैं दो बार पद पर आरूढ़ हो जाते हैं, रात-दिन अन्य दलों को चंदा लेने पर कोसते हैं और स्वयं के दल द्वारा चंदा लेने को उचित बताते हैं. तीसरे जिस महान नेता का आपने जिक्र किया उसे तो उसकी पार्टी ही गंभीरता से नहीं लेतीं ।

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