संयम बरतना बहुत ही आवश्यक है राजनेताओं के लिए

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लिमटी खरे

मंच से उद्बोधन के दरम्यान तालियों की गड़गड़ाहट के लिए लालायित राजनेताओं द्वारा अक्सर ही संयमित भाषा का प्रयोग करने से गुरेज ही किया जाता है। मामला चाहे उत्तर भारतियों का हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे या बाला साहेब ठाकरे का। हर मामले में ही नेताओं ने जात पात और क्षेत्रवाद का जहर जनता के मानस पटल पर बो ही दिया है।

कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने भी कुछ कम नहीं किया है। भारत गणराज्य पर हुए अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले में शहीद हुए एटीएस चीफ करकरे की शहादत पर ही सवालिया निशान लगा दिया है दिग्विजय सिंह ने। इसके पीछे उनकी मंशा क्या है, यह तो वे ही जाने किन्तु उनके बयान से न केवल उनकी वरन् कांग्रेस की भी बुरी तरह से भद्द पिटी है।

हाल ही में देश के गृह मंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे धीर गंभीर राजनेता पलनिअप्पम चिदम्बरम ने दिल्ली में आए प्रवासियों पर ही छीटाकशी कर डाली। चिदम्बरम भूल गए कि वे भी दिल्ली मूल के नहीं हैं। चिदम्बरम देश के गृह मंत्री हैं, एवं देशवासियों को अमन चैन का माहौल मुहैया करवाना उनकी नैतिक जवाबदारी है। उन्हीं की नाक के नीचे अगर भारत की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में अपराधों का ग्राफ सारे रिकार्ड तोड़ रहा हो, तो मीडिया की चीख पुकार स्वाभाविक ही है। इससे चिदम्बरम को कतई विचलित नहीं होना चाहिए।

एक संभावना यह भी है कि दिग्विजय सिंह के विवादास्पद बयान के बाद उन्हें मिली पब्लिसिटी के चलते भी चिदम्बरम ने मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह का बयान दे डाला हो। देखा जाए तो दिग्विजय सिंह और पलनिअप्पम चिदम्बरम ने एक के बाद एक विवादस्पद बयान देकर लोगों का ध्यान टूजी के बाद हुए जेपीसी के हंगामे से हटाने के लिए दिया हो, पर इसे किसी भी रणनीति के तहत उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

मामला चाहे जो और जैसा भी हो किन्तु भारत गणराज्य के गृह मंत्री का यह कहना कि दिल्ली एवं अन्य महानगरों में बाहर से आने वाले लोगों के चलते अपराध बढ़े हैं। अस्सी के दशक के आगाज के साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का मध्य प्रदेश की एक सभा में कहा वक्तव्य यहां दोहराना लाजिमी होगा। अटल जी ने उस वक्त कहा था कि हमारे देश के गृह मंत्री कहते हैं कि 56 घुसपैठिए पाकिस्तान से भारत में घुसे हैं। उन्होंने उस वक्त मंच से तत्कालीन गृह मंत्री से पूछा था कि क्या भारत की सेना घुसपैठियों की तादाद गिनने के लिए बैठी है। अगर आंकड़ा पता है तो उन्हें पकड़ा क्यों नहीं गया।

पुलिस का तंत्र बेहद मजबूत होता है। पुलिस को सब कुछ पता होता है कि उसके इलाके में कौन चौर है कोन राहजनी करता है। सब मिले होते हैं। हमारे एक मुंबई के मित्र ने कुछ दशक पहले एक वाक्या सुनाया था। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में एक सहायक पुलिस आयुक्त की पदस्थापना हुई। वे बिना किसी को बताए मंुबई पहुंचे और होटल में रूक गए। दुर्योग से उनका बटुआ चोरी हो गया। उन्होने थाने में जाकर शिकायत दर्ज करानी चाही। दीवान जी (एफआईआर लिखने वाले मुंशी) ने उनसे पैसों की मांग की। उन्होंने खूब चिरौरी की कि उनका बटुआ ही गुम गया है तो पैसे कैसे दें। एसएचओ तक ने उनकी एक न सुनी। अगले दिन वे वर्दी कसकर कार्यभार ग्रहण करने गए, सबसे पहले उन्होंने उसी दीवानजी और एसएचओ को तलब किया। दोनों ने एसीपी की कुर्सी पर मान्यवर को देखा तो होश हो गए फाख्ता। एसीपी ने दो घंटे का समय दिया। दो घंटे के पहले ही एसीपी का बटुआ और उसमें रखे पैसे सही सलामत वापस मिल गए।

कुल मिलाकर जरूरत व्यवस्था में सुधार की है न कि किसी पर तोहमत लगाने की। क्या देश के जिम्मेदार गृह मंत्री इस बात से अनजान हैं कि बाहर से आए लोग यहां रोजी रोटी की तलाश में आते हैं न कि अपराध करने। अपराध रोकने का जिम्मा गृह विभाग का है। अपनी गल्ति पर पर्दा डालने के लिए प्रवासियों पर आरोप मढ़ना कहां तक उचित है। आज राजधानी में दिल्ली मूल का कौन है? दिल्ली मूल के लोग तो आज ‘अल्पसंख्यक‘ बनकर रह गए हैं, शेष सभी प्रवासी हैं जो यहां आकर आजीविकोपार्जन में लगे हैं।

इसके पहले भी दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित द्वारा बदरपुर में भी उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले नेताओं को लानत मलानत भेज चुकी हैं। हमारे मतानुसार राजनेताओं को अनेक लोग अपना पायोनियर या अगुआ मानते हैं। जनसेवकों को चाहिए कि वे अपनी बयानबाजी में इस तरह का कोई भी प्रयास न करें कि भारत गणराज्य की एकता और अखंडता को इससे कहीं चोट पहुचे।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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