क्या मनुस्मृति इतिहास की कूड़ेदानी है

—विनय कुमार विनायक
दैनिक जागरण के 10 फरवरी 2001 ई.के संपादकीय पृष्ठ
में छपे श्री ह्रदय नारायण दीक्षित के आलेख ‘नए भारत की
संरचना’ को पढ़ा था। आलेख की भाषा शैली अच्छी थी किन्तु
प्रस्तुति तथ्य छिपाऊं एवं अधूरी है। लेखक के कुछ विचार
ऐसे हैं जिससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। खासकर मनुस्मृति
के संबंध में लेखक की एक टिप्पणी ‘सम्प्रति वह (मनुस्मृति)
इतिहास की कूड़ेदानी में है।‘ माना कि दीक्षित जी धर्म-
संस्कृति के गहरे अध्येता हैं, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर
को भी उन्होंने खूब पढ़ा है। किन्तु शायद मनुस्मृति को
पढ़ने और समझने से वे चूक गए अथवा पढ़े भी होंगे तो
आज के चालू राजनेताओं की तरह सतही तौर पर ही।
अन्यथा स्वायंभुव मनु की आचरण संहिता ‘मनुस्मृति’
पर ऐसी हल्की टिप्पणी कदापि नही करते।यह मनुस्मृति
का ही अमिट दूरगामी प्रभाव है कि सृष्टि के आरंभ से
आज तक हम भारतीयों और वृहद भारतवंशियों का संपूर्ण
चरित्र का निर्माण जाने अनजाने मनुस्मृति के अनुसार
ही होता आ रहा है। सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न(सत्य बोलो
प्रिय बोलो अप्रिय सत्य नही बोलो) जैसा मनुस्मृति श्लोकों
का अमृतमय स्लोगन चाहे ब्राह्मण हो या हरिजन, बौद्ध या
जैनी,सिख हो या आर्यसमाजी, प्रकृति पूजक आदिवासी या
टोटमवादी सरना समाजी सभी अपने दुधमुंहे नौनिहालों को
जन्मघूंटी की तरह सदियों से पिलाते आ रहे हैं।इस बात
को हिन्दू मूल से धर्मांतरित उदार मुस्लिम तथा ईसाई
समाज के संदर्भ में भी कही जाए तो अतिशयोक्ति नहीं
होगी।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:’
(जहां नारी पूजी जाती वहां देवता का बास होता है)
जैसी सूक्तियों का उदाहरण देकर भारतीय संस्कृति
को विश्व की सबसे अच्छी संस्कृति कह तो लेते हैं
तथा विश्व समुदाय से मनवा भी लेते हैं किन्तु हम
यह अक्सरा भूल जाते हैं कि ऐसी शिक्षा और उच्च
संस्कार हमें मनुस्मृति से ही विरासत में मिलती रही
है। यह मानव पिता स्वायंभुव मनु की ही सिख है-
‘श्रद्धा पूर्वक नीच से भी अच्छी विद्या को, चांडाल
से भी परम धर्म को और नीच कुल से भी स्त्री रत्न
को ग्रहण करे।‘ और तो और ‘आचार्य परमात्मा की
मूर्ति है, पिता ब्रह्मा की मूर्ति,माता धरती की मूर्ति है
और भाई बहन अपनी ही मूर्ति हैं’ जैसे संस्कार हमें
कहां से मिले? या नारी जाति रक्षणीय है-बचपन पिता
के अधीन, यौवन पति के अधीन, बुढ़ापा पुत्र के अधीन
किन्तु अकेली कभी भी छोड़ी नहीं जा सकती है।
वस्तुत: मनुस्मृति विश्व की सर्व श्रेष्ठ आचरण संहिता है
किन्तु समयांतराल में कुछ स्वार्थी तत्वों ने अपने
मनोनुकूल जाति वर्चस्व वादी श्लोकों को मनुस्मृति में
प्रक्षेप के रुप में धुसेड़ दिया है। इस आचार संहिता को
ध्यान पूर्वक पढ़ने पर इसके प्रक्षिप्त श्लोकों का स्वत:
पता चल जाता है। एक दूसरी बात यह भी है कि इस
मनुस्मृति को स्वयं मनु महाराज ने नहीं लिखा है
बल्कि उन्होंने भृगु ऋषि को सभी श्लोकों को वाचिक
रुप से सुनाकर लिखने कहा है। जो मनुस्मृति के
प्रथम अध्याय के उनसठवें श्लोक में उन्होंने स्वयं
कहा है-
“एतद्धोऽयं भृगु:शास्त्रं श्रावयिष्यस्यशेषत:।
एतद्धि मतोऽधिजगे सर्वमेषोऽखिलंमनि:।। मनु.1/59
यानि कि मैंने भृगु ऋषि को मानव आचरण
की बातें मौखिक रूप से पढ़ा और समझा दिया
है। आगे मनुस्मृति की रचना भृगु ऋषि करेंगे।
इस तरह से ज्ञात होता है कि जैसे ब्रह्मा के
मुख से निसृत चारों वेद, अठारह पुराण एवं एक
सौ आठ उपनिषद आदि को महर्षि वेद व्यास ने
अपनी लेखनी से लिपिबद्ध किया है और आगे
व्यास पीठ के परवर्ती ऋषियों द्वारा समय-समय
पर संपादित किया गया है। ठीक उसी तरह यह
मनुस्मृति भृगु ऋषि तथा उनके वंशज भार्गवों
द्वारा समय-समय पर संपादित किया गया है।
भृगु और उनके वंशज भार्गव ब्राह्मणों में ब्राह्मणी
वर्चस्व की भावना प्रबल रही है। दानव गुरु शुक्राचार्य,
ऋचिक,जमदग्नि एवं परशुराम जैसे उग्र भार्गव
आर्य क्षत्रिय आदि विरोधी ब्राह्मण थे। मनुस्मृति में
अधिकांश प्रक्षेपन महाभारत काल के बाद उग्र
ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग के काल में हुआ है!

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