आसान नहीं है परस्पर नदियों को जोड़ना

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प्रमोद भार्गव

किसी देश की विकासशील अर्थव्यव्स्था के तीन प्रमुख सिरे हैं, पानी, बिजली और आधुनिकतम तकनीक ! तकनीक की उपलब्धता तो भारत में सर्व-सुलभ हो गर्इ है, लेकिन पानी और बिजली की भयावह समस्या से कमोवेश पूरा देश जूझ रहा है। दुनिया का तीन चौथार्इ हिस्सा पानी से लबालब होने के बावजूद करोड़ों लोग शुद्ध पेयजल से वंचित हैं। इसलिए देश की सर्वोच्च न्यायालय को केंद्र सरकार को निर्देश देना पड़ा है कि नदी जोड़ने की महात्वाकांक्षी परियोजना को समयबद्ध तरीके से जल्द लागू किया जाए। न्यायालय को नदियों को जोड़ने की बात आसान लग सकती है, किंतु मैदान में इस परियोजना को उतारना बेहद जटिल, दुष्कर और जोखिम भरा काम है। पर्यावरणीय और भौगोलिक संतुलन के बिगड़ने जैसे हालात तो पैदा होंगे ही, राज्यों में परस्पर टकराव के साथ कर्इ देशों से भी मतभेद उत्पन्न होंगे। चीन से ब्रह्रापुत्र नदी के जल को लेकर विवाद पहले से ही बना हुआ है। बंगलादेश, पाकिस्तान और नेपाल से भी तालमेल बिठाना आसान नहीं होगा। बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के विस्थापन और पुनर्वास का संकट भी झेलना होगा। हालांकि नदियां जुड़ जाती हैं तो किसी हद तक बाढ़ की विनाश लीला से तो निजात मिलेगी ही, 2050 तक 16 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में सिंचार्इ भी होने लगेगी। जबकि वर्तमान में सिंचार्इ के सभी संसाधनों व तकनीकों का उपयोग करने के बावजूद 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में ही बमुशिकल सिंचार्इ हो पा रही है। वैसे नदियों को जोड़ना तब आसान होगा जब देश की जिन नदियों को जोड़ा जाना है उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर केंद्र सरकार के हवाले कर दिया जाए और इस परियोजना को, ‘राष्ट्रीय परियोजना की श्रेणी में लाकर इस पर अमल शुरू हो।

प्रसिद्ध समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने सबसे पहले नदियों को आपस में जोड़ने की बात कही थी। इसके बाद अटलबिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान 2002 में सरकार को भंयकर सूखा का सामना करना पड़ा, नतीजतन नदियों को जोड़ने की परियोजना सामने आर्इ। लेकिन मामला सर्वोच्च न्यायाल पहुंचा दिया गया। तब से अब जाकर एक दशक बाद इस परियोजना को अदालत ने हरी झण्डी दी है। अदालत ने सूझबूझ से काम लेते हुए परियोजना पर अमल के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति का गठन भी कर दिया है। ताकि समय सीमा में काम पूरे हों और पर्यावरण व विस्थापन जैसी समस्याओं से कानूनी स्तर पर जल्दी निपटा जा सके।

2008 में राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) द्वारा आहूत की गर्इ मुख्यमंत्रियों की बैठक में राज्यों के साथ जल बंटवारा विवाद में उलझे तमिलनाडू ने प्रस्ताव रखा था कि नदियों को परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा मिलना चाहिए। इसी क्रम में केंद्र सरकार ने सिंचार्इ और पन बिजली के बढ़ते संकट पर काबू पाने की दृषिट से 14 नदियों को राष्ट्रीय परियोजना में शामिल कर इस दिशा में एक अभिनव पहल की थी। न्यायालय के निर्देश के बाद ये सुझाव एक दूसरे के पूरक होने के साथ जल संकट के भयावह दौर से गुजर रहे राष्ट्र को जल समस्या से किसी हद तक निजात दिलाने के ठोस उपाय बन सकते हैं।

जीवनदायी नदियां हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। नदियों के किनारे ही ऐसी आधुनिकतम बढ़ी सभ्यतायें विकसित हुर्इं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। सिंधु घाटी और सारस्वत (सरस्वती) सभ्यतायें इसके उदाहरण हैं। भारत के सांस्कृतिक उन्नयन के नायकों में भागीरथी, राम और कृष्ण का नदियों से गहरा संबंध रहा है। भारतीय वांगमय में इन्द्र विपुल जल राशि के प्राचीनतम वैज्ञानिक-प्रबंधक रहे हैं। भारत भूखण्ड में आग, हवा और पानी को सर्वसुलभ नियामत माना गया है। हवा और पानी की शुद्धता और सहज उपलब्धता नदियों से है। दुनिया के महासागरों, हिमखण्ड़ों, नदियों और बड़े जलाशयों में अकूत जल भण्डार है। लेकिन मानव के लिए उपयोग जीवनदायी जल और बढ़ती आबादी के लिए जल की उपलब्धता का बिगड़ता अनुपात चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है। ऐसे में भी बढ़ते तापमान के कारण हिमखण्डों के पिघलने और अवर्षा के चलते जल स्त्रोतों के सूखने का सिलसिला जारी है। वर्तमान में जल की खपत कृषि, उधोग, विधुत और पेयजल के रूप में सर्वाधिक हो रही है। हालांकि पेयजल की खपत मात्र आठ फीसदी है। जिसका मुख्य स्त्रोत नदियां और भू-जल हैं। औधोगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के दबाव के चलते एक ओर नदियां सिकुड़ रही हैं, वहीं औधोगिक कचरा और मल मूत्र बहाने का सिलसिला जारी रहने से गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियां इतनी प्रदूषित हो गर्इ हैं कि यमुना नदी को तो एक पर्यावरण संस्था ने ‘मरी हुर्इ नदी तक घोषित कर दिया है। मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेन्द्र सिंह ने तो यमुना के किनारे राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए बनाए गए परिसरों और मेट्रो रेल बिछाए जाने के कारण इस ‘जीवनदायी नदी को मौत की नदी तक कहा था। अक्षरधाम मंदिर के निर्माण से भी यमुना का जल ग्रहण क्षेत्र प्रभावित हुआ है।

केंद्रीय भू-जल बोर्ड ने राष्ट्र के लगभग 800 ऐसे भू-खण्डों को चिनिहत किया है, जिनमें भू-जल का स्तर निरंतर घट रहा है। ये भू-खण्ड दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, गुजरात और तमिलनाडू में हैं। यदि भू-जल स्तर के गिरावट में निरंतरता बनी रहती है तो भयावह जल संकट तो पैदा होगा ही भारत का पारिसिथतिकी तंत्र भी गड़बड़ा जाएगा। केंद्र सरकार ने दूरदर्शिता से काम लेते हुए 43 भू-खण्डों से जल निकासी पर प्रतिबंध लगा दिया है। भू-संवर्धन की दुषिट से यह एक कारगर पहल है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया शुरू होती है तो जहां-जहां नदियां जुड़ जाएंगी वहां-वहां नदियों के बीच की पटिटयां जल भरण की अंत-प्रक्रियाओं के चलते गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र की तरह भू-जल के भण्डार हो जाएंगे। जो सदियों तक पेयजल और सिंचार्इ सुविधा के बड़े स्त्रोत बने रहेंगे।

प्रस्तावित 120 अरब डालर अनुमानित खर्च की नदी परियोजना को दो हिस्सों में बांटकर अमल में लाया जाएगा। एक प्रायद्वीप सिथत नदियों को जोड़ना। दूसरे, हिमालय से निकली नदियों को जोड़ना। प्रायद्वीप भाग में 16 नदियां हैं, जिन्हें दक्षिण जल क्षेत्र बनाकर जोड़ा जाना है। इसमें महानदी और गोदावरी को पेन्नार, कृष्णा, वैगर्इ और कावेरी से जोड़ा जाएगा। पशिचम के तटीय हिस्से में बहने वाली नदियों को पूर्व की ओर मोड़ा जाएगा। इस तट से जुड़ी तापी नदी के दक्षिण भाग को मुबंर्इ के उत्तरी भाग की नदियों से जोड़ा जाना प्रस्तावित है। केरल और कर्नाटक की पशिचम की ओर बहने वाली नदियों की जलधारा पूर्व दिशा में मोड़ी जाएगी। यमुना और दक्षिण की सहायक नदियों को भी आपस में जोड़ा जाना इस परियोजना का हिस्सा है। हिमालय क्षेत्र की नदियों के अतिरिक्त जल को संग्रह करने की दृषिट से भारत और नेपाल में गंगा, यमुना, ब्रह्रापुत्र तथा इनकी सहायक नदियों पर विशाल जलाशय बनाने के प्रावधान हैं। ताकि वर्षाजल इक्टठा हो और उत्तर-प्रदेश, बिहार एवं असम को भंयकर बाढ़ का सामना करने से निजात मिल सके। इन जलाशयों से बिजली भी उत्पादित की जाएगी। इसी क्षेत्र में कोसी, घांघरा, मेच, गंड़क, साबरमती, शारदा, फरक्का, सुन्दरवन, स्वर्णरेखा और दमोदर नदियों को गंगा, यमुना और महानदी से जोड़ा जाएगा।

करीब 13500 किमी लंबी ये नदियां भारत के संपूर्ण मैदानी क्षेत्रों में अठखेलियां करती हुर्इं मनुष्य और जीव-जगत के लिए प्रकृति का अनूठा और बहूमूल्य वरदान बनी हुर्इ हैं। 2528 लाख हेक्टेयर भू-खण्डों और वन प्रांतरों में प्रवाहित इन नदियों में प्रति व्यकित 690 घनमीटर जल है। कृषि योग्य कुल 1411 लाख हेक्टेयर भूमि में से 546 लाख हेक्टेयर भूमि इन्हीं नदियों की बदौलत प्रति वर्ष सिंचित की जाकर फसलों को लहलहाती हैं। यदि नदियां जुड़ जाती हैं तो सिंचित रकबा भी बढ़ेगा। मोक्षदायिनी इन नदियों से बाढ़ के हर साल पैदा होने वाले संकट से भी किसी हद तक छुटकारा मिलेगा ? ऐसे हालात में बाढ़ग्रस्त नदी का पानी सूखी नदी में डालकर जल की धारा मोड़ दी जाएगी।

वैसे ‘पानी हमारे संविधान में राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। परंतु जो नदियां एक से अधिक राज्यों में बहती हैं, उन्हें राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किए जाने के सवाल बीच-बीच में उठते रहे हैं। हालांकि कावेरी जल विवाद पिछले 20 सालों से उलझन में है। चंबल सिंचार्इ हेतु जल को लेकर भी राजस्थान और मध्यप्रदेश में हर साल विवाद छिड़ता है। वहीं महानदी और ब्रह्रापुत्र अंतर्राष्ट्रीय विवाद का कारण बनती हैं। हालांकि नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उन्हें परस्पर जोड़ने की प्रक्रिया को अमल में लाना कोर्इ आसान काम नहीं है। क्योंकि एक तो यह बड़े बजट और लंबी अवधि का काम है। दूसरे, विस्थापन जैसी राष्ट्रीय आपदा भी अड़ंगे लगाएगी ? जलचर भी बड़ी संख्या में प्रभावित होंगे। ऐसे ही अवरोधों के चलते मध्य-प्रदेश में काली सिंध, पार्वती, नेवज और चंबल नदियों के गठजोड़ का प्रस्ताव एक दशक से ठण्डे बस्ते में डाला है। इन विवादों का हल नदियों को राष्ट्रीय परियोजना में शामिल कर दिए जाने से शायद हल हो जाए।

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