अब अन्दर की वास्तविकता तो कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व या दिल्ली बुलाये गए हिमाचल कांग्रेस के नेता ही जानते हैं कि सोनिया गांधी द्वारा दिल्ली बुलाये गए इन नेताओं को दुलार मिला या फटकार . परन्तु छन-छन कर आ रहे समाचारों से इतना तो स्पष्ट होता है कि शीर्ष नेतृत्व ने कम शब्दों में इन नेताओं के आचरण पर चेतावनी देते हुए मिलकर कार्य करने के सन्देश के साथ ही चुनावों के नतीजों तक किसी को भी संभावित मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव की कमान देने से स्पष्ट इनकार कर दिया. वैसे भी यह कांग्रेस की परंपरा रही है कि बहुमत मिलने के पश्चात् ही निर्वाचित सदस्यों की बैठक में आलाकमान का फरमान सुनाया जाता है कि कौन बनेगा प्रदेश का मुख्यमंत्री. अभी हाल में ही उत्तराखंड राज्य में भी ऐसा ही हुआ है. यह तय करना पूर्ण रूप से आलाकमान के हाथ में रहता है कि वह निर्वाचित सदस्यों में से किसी को नेता घोषित करे या बाहर से किसी को ला कर बैठाये. यह बात दीगर है कि कांग्रेस की इस स्थापित परम्परा से अधिकतर नेता नाखुश हैं और इसे लोकतान्त्रिक पद्दति के विपरीत बताते हैं.
हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में भी विगत काफी समय चल रही नेताओं की गुटबाजी से साधारण कार्यकर्ता बहुत ही असमंजस की स्थिति में थे. गुटबाजी और भीतरघात व बढ रहे अनुशासनहीनता के कारण ही पांच राज्यों व दिल्ली के स्थानीय निकायों के चुनावों में कांग्रेस की यह (दुर) दशा हुई है. दिल्ली नगर निगम के चुनावों में कांग्रेस की पराजय के लिए जहाँ कांग्रेस के कुछ नेताओं द्वारा दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की नीतियों को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है वहीँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पराजय में यूपीए की केंद्र सरकार और कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी बराबर का उत्तरदायी है. गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे और योगगुरु बाबा राम देव के पिछले वर्ष हुए आंदोलनों में दिल्ली की जनता ने जिस प्रकार से खुल कर दोनों का साथ दिया था उससे तो इनकी कुम्भकर्णी नींद खुलनी चाहिए थी. परन्तु सत्ता के मद में मस्त दिल्ली में बैठी दोनों सरकारों और इनके संगठन के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी कमियों को दूर करने की अपेक्षा भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त आम जनता को ही ऑंखें तरेरना शुरू कर दिया. पांच राज्यों के चुनावों के नतीजों के बाद तो इनको समझ जाना चाहिए था कि बयार किस ओर बह रही है. भ्रष्टाचार और घोटालों के चलते आम जनता की नाराजगी के साथ ही सरकार और संगठन पर कमजोर पकड़ भी अब स्पष्ट दिखाई देने लगी है जिसके कारण संगठन और सरकार में अनुशासनहीनता अपनी चरम सीमा पर है. लोकसभा के चुनावों से पूर्व ग्यारह राज्यों की विधानसभा के चुनावों का सामना भी सभी दलों के साथ अभी कांग्रेस ने भी करना है. यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो ऐसे में एक के बाद चुनावों के नतीजे क्या होंगे यह समझाने की आवश्यकता नहीं है कांग्रेस को.
हिमाचल कांग्रेस की धड़ेबंदी की लड़ाई जिस प्रकार से अब गली-कूचों में तब्दील हो रही है उससे कांग्रेस आलाकमान अवश्य ही चिंतित है. पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश संगठन के प्रधान का अलग-अलग दौरा और मंच व मीडिया में बेवजह की बयानबाजी के साथ ही अब युवा कांग्रेस में भी प्रदेश स्तर की गुटबाजी सतह पर आ गई है. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही अनुशासन भी बहुत आवश्यक है. हिमाचल कांग्रेस में चुनावों से पूर्व जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे नेताओं का स्वार्थ या महत्वाकांक्षा ही मुख्य कारण माना जा सकता है. स्वार्थ की राजनीति के चलते नैतिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है. कभी राजनीति त्याग और समाजसेवा का एक माध्यम माना जाता था. आज सभी दलों में ऊपर से नीचे तक वंशवाद और परिवारवाद को प्रश्रय देने का साधन बन चुकी है राजनीति. अब तो मात्र एक ही उद्देश्य रह गया है कि जब तक जिन्दा हूँ मैं ही मुख्यमंत्री बनूँ और मेरे बाद मेरा बेटा. शेष सभी नेता या कार्यकर्ता भाड़ में जाएँ. यही सब तो हो रहा है कांग्रेस, भाजपा और सभी प्रादेशिक दलों में, और यही झगडे का मुख्य कारण भी है. अन्य राज्यों के चुनावों में मिली पराजय और हिमाचल के चुनावों से पूर्व कांग्रेस के नेताओं की आपसी लड़ाई से साधारण कार्यकर्ताओं के मनोबल पर क्या असर पड़ रहा है यह मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नेताओं को समझना चाहिए. इसी सब को देखते हुए विगत सप्ताह कांग्रेस आलाकमान ने पूर्व मुख्य मंत्री और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह, प्रदेश संगठन के अध्यक्ष कौल सिंह और विधान सभा में नेत्री विपक्ष विध्या स्टोक को दिल्ली बुलाया था, परन्तु कई प्रकार की समस्याओं और संकटों से घिरी केंद्र सरकार के चार-चार मंत्रियों द्वारा त्यागपत्र देकर संगठन का कार्य करने की इच्छा जाहिर करने की चर्चाओं के मध्य सोनिया गांधी ने हिमाचल से गए नेताओं को दुलार से या फटकार से मात्र यही मंत्र देकर रुखसत किया कि एकता बना कर रखो, मिलकर चुनाव लड़ना है. मिलकर नहीं चलोगे तो डूब जाओगे.
गुटबाजी और खेमेबंदी में मशगूल, कौन बनेगा मुख्यमंत्री की प्रतियोगिता के इन प्रतिद्वंदियों पर इसका कितना असर पड़ा है इसका कयास लगाना कठिन नहीं है. हाँ, इन दो पंक्तियों के गुरु मंत्र से असमंजस में फंसे कांग्रेस के साधारण कार्यकर्ता ने अवश्य ही राहत की साँस ली है. आलाकमान की फटकार के बाद ही हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी चौधरी विरेन्द्रसिंह की अध्यक्षता में एक १२ सदस्यीय कोर कमेटी का गठन किया गया है जो सभी प्रकार के मामलों पर मिलकर निर्णय लेने की उत्तरदायी होगी. यह कोर कमेटी नेताओं के महत्वाकांक्षा पर कहाँ तक लगाम लगाने में सक्षम होती है यह तो आने वाले दिनों में ही दिखाई देने वाला है. दूसरी ओर जीएस बाली की अध्यक्षता में हिमाचल सरकार के विरुद्ध ५० मामलों का आरोप पत्र भी लगभग तैयार है. इसके जारी होने पर प्रदेश के राजनीतिक तापमान में कितना इजाफा होता है इसकी प्रतीक्षा सभी को रहेगी. सत्ता और विपक्ष के नेताओं को यह समझना होगा कि स्वस्थ लोकतान्त्रिक राजनीति में विश्वास रखने वाले प्रबुद्धजन दलों की कार्यप्रणाली, नेताओं व कार्यकर्त्ताओं का आचरण और विकास के कार्यों का राष्ट्रीय या प्रादेशिक वृहद तुलनात्मक व निष्पक्ष अध्ययन करने के उपरांत ही यह निर्णय लेते हैं कि चुनाव में उनके मत का कौन सही हकदार है.
वैसे तो कांग्रेस की उठा-पटक उसका आन्तरिक मामला है और अन्य को इससे कोई सरोकार नहीं होना चाहिए. परन्तु स्वस्थ लोकतंत्र और राष्ट्रीय परिपेक्ष में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों में बराबर की टक्कर रहना आवश्यक है अन्यथा क्षेत्रीय और जातीय विचारधारा और आधारवाले प्रादेशिक दलों का वर्चस्व देश और समाज का हित साधने में कितना सफल रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है. अनुभव तो यही बताता है कि यह प्रादेशिक और छोटे दल समर्थन के एवज में जिन बाध्य शर्तों को मनवाते हैं, ऐसी शर्तों से ही राजनीति में भ्रष्टाचार फैलता है. इतना ही नहीं समय-समय पर जिस प्रकार से यह दल भय-दोहन करते हैं यह भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल भली-भांति समझते हैं. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को अपनी महत्वाकांक्षाओं व पनप रही आन्तरिक कलह को दबाते हुए एकजुट होकर चुनाव के मैदान में उतरना होगा तभी उसकी नैया पार लगेगी. अब यह निश्चित करना कांग्रेस के नेताओं का काम है हिमाचल में भाजपा के मिशन रिपीट को मिशन डिफीट में कैसे बदलना है.