हिन्दुत्व को सबसे बड़ा खतरा छद्महिन्दुत्वादियों से है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ 

यदि हिन्दुओं को इस शताब्दी को अपनी अर्थात् हिन्दुओं की शताब्दी बनाना है तो धर्मग्रंथों के मार्फत पोषित जन्मजातीय कुलीन अहंकार से परिपूर्ण वर्णवादी, अवैज्ञानिक, अतार्किक, संकीर्ण, शुद्र, अव्यावहारिक और साम्प्रदायिक बातों से मुक्त होकर हिन्दुओं को न मात्र भारतीय, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय लोकतान्त्रितक मूल्यों को स्वीकार करके और इन्हें अपने जीवन में अपनाते हुए आगे बढना होगा| दुराग्रह और पूर्वाग्रहों को स्वेच्छा से त्यागना होगा| देश और समाज में अशान्ति एवं कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा करने या हुड़दंग मचाने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा| कन्या भ्रूण हत्या पर वर्षभर चुप्पी साधे रहने वाले हिन्दुत्व के ठेकेदारों को हिन्दुत्व और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के नाम पर वेलेंसटाइन्स-डे पर युवक-युवतियों को तार्किक एवं आत्मीय तरीके से समझाने के बजाय अपमानित करने की प्रवृत्ति को त्यागकर, तेजी से बदलती अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के प्रति सहज स्वीकार भाव पैदा करना होगा और उदारमना बनना होगा|

अल्पसंख्यक आर्यों के बेतुके और अहंकारपूर्ण तर्कों के अलावा भारत में सर्वाधिक स्वीकार्य मत के अनुसार सिन्धु नदी के किनारे आदिकाल से रहने वाले भारतीयों को आर्यों ने सबसे पहले हिन्दू सम्बोधन दिया था| इसलिये इस निर्विवाद तथ्य की सत्यता पर सन्देह किये बिना हम भारतीयों ने इस बात को स्वीकार लिया है कि आर्य विदेशी नस्ल है|

इतिहासविदों द्वारा बार-बार प्रमाणिक तथ्यों से यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि आर्यों ने कालान्तर में अपनी कूटनीति और अपने बौद्धिक व्यभिचार, दुराचार, अपचार, अत्याचार और दुष्टताओं के जरिये मूल भारतीयों के धर्म (जिसे अब हिन्दू धर्म कहा जाता है) पर जबरन कब्जा कर लिया और स्वयं हिन्दू धर्म के सर्वेसर्वा बन बैठे| इसके बाद इन्होंने जो नीतियॉं बनाई उन्हीं को उन्होंने हिन्दू धर्म कहना शुरू कर दिया और अपने इस थोपे गये हिन्दू धर्म को स्वीकार नहीं करने वालों के लिये नर्क के दण्ड की सजा निर्धारित करदी|

आर्यों के सर्वेसर्वा ब्राह्मणों ने स्वयं को ब्रह्मा के मुख से पैदा करवाकर, क्षत्रियों को ब्रह्मा की भुजाओं से, वैश्यों को ब्रह्मा की जंघाओं से और शूद्रों को ब्रह्मा के पैरों से पैदा करवा कर समाज को चार वर्गों (वर्णों) में हमेशा के लिये विभाजित कर दिया|

समाजशास्त्रियों का स्पष्ट मत है कि इन वर्णों की सीमाओं को लांघने वाले लोगों को उनके अपने वर्ण या अन्य किसी वर्ण द्वारा नहीं अपनाये जाने और अपने वर्ण से बहिष्कृत कर दिये जाने के कारण ही कालान्तर में जातियों का उदय हुआ| ब्राह्मण वर्ण के अलावा अन्य वर्णों के जिन लोगों ने आर्यों द्वारा जबरन थोपे गये वर्ण की सीमाओं को लांघना शुरू कर दिया, उनसे निपटने के लिये क्रुर आर्यों ने अपने कथित धर्म ग्रंथों में धर्म की चासनी लपेटकर ऐसे-ऐसे अमानवीय नियमों तथा प्रावधानों का उल्लेख किया कि आर्यों की आज्ञा का पालन नहीं करने वालों को पशुवत जीवन जीने को विवश होना पड़ा| आर्यों के इसी धर्म को ब्राह्मण धर्म या मनुवाद कहा जाता है|

हजारों वर्षों तक इस व्यवस्था के लागू रहने पर इस देश के हिन्दुओं ने आर्यों के इस अत्याचारी धर्म को ही हिन्दू धर्म और अपनी नियति मान लिया| आज आर्यों के बचे-खुचे अवशेष अपनी अनीतियों के दुष्परिणामस्वरूप इस देश पर थोपे गये इस कुधर्म को ही हिन्दू धर्म का नाम देकर मौलिक हिन्दुत्व को शर्मसार कर रहे हैं और तालिबानी प्रवृत्ति को बढावा दे रहे हैं|

आर्यों द्वारा काबिज हिन्दू धर्म में सती प्रथा, छुआछूत, जातिगत भेदभाव, शूद्रों को शिक्षा से वंचित करना, बाल विवाह करना, शूद्रों को सार्वजनिक जलाशयों एवं कुओं से पानी नहीं भरने देना, शूद्रों को देव मन्दिरों में प्रवेश नहीं करने देना, विधवा स्त्री को पुनर्विवाह नहीं करने देना, स्त्री को शिक्षा एवं समानता से वंचित करना आदि कुकर्म धर्मानुसार माने जाते रहे हैं| इन सबके विरुद्ध अनेक महापुरूषों ने संघर्ष किया है जो आज भी जारी है|

इस मानवीय संघर्ष को दबाने के लिये क्रूर और अमानवीय आर्य मानसिकता के बचे-खुचे लोग अपने चेहरे और चरित्र बदल-बदलकर और नये-नये लोकलुभावन मुखौटे लगाकर अभी भी जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं| अपने पूर्वजों के पापों और कुकर्मों की आलोचना करने वालों को हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करने वाला, विदेशों का ऐजेंण्ट आदि घोषित करके देश में तालिबानी विचारधारा को पैदा कर रहे हैं|

कोई इन्हें कैसे समझाये कि अब इनके संस्कृत में रचित शास्त्रों को आँख बन्द करके पढने वाली पीढी का अवसान हो चुका है| आज की पीढी विवेक और तर्क पर विश्‍वास करती है| आज अन्धश्रृद्धा के स्थान पर बौद्धिकता को प्राथमिकता दी जाने लगी है| आज लोगों के स्वतन्त्र चिन्तन में स्वाभिमान एवं वैज्ञानिक आधार की मौलिकता है| सच्चाई जानने के बाद क्रूर आर्यों के अवशेषों के अत्याचारों के कारण अनेक मूल भारतीय अपने आपको हिन्दू मानने तक को तैयार नहीं हैं|

रामकृष्ण मिशन वालों ने तो इस बात के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी है| क्योंकि हिन्दू धर्म पर काबिज लोगों ने हिन्दत्व को घुटन रूपी कैदखानों में बदलने में कोई कोर सर नहीं छोड़ी है| इसी के चलते अनेक हिन्दू धर्म परिवर्तन करने को विवश हैं| जिसमें इन्हें विदेशी शक्तियों का हाथ नजर आता है| लेकिन अपने कुकर्म जरा भी नहीं दिखते| इस बात में कोई दो राय नहीं कि हिन्दुओं की इस दशा का इस्लाम एवं ईसाई धर्म के अनुयाईयों ने पूरा-पूरा लाभ उठाया| हिन्दुओं के लिये सर्वस्वकार्य माने जाने वाले धर्मग्रंथ गीता तक को इन्होंने नहीं बख्सा| जिसमें भगवान कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि-

‘‘मां हि पाथ्र व्यपाश्रित्य येअ्पि स्यु: पापयोनय:|

स्त्रियो वैश्यास्तथा शमद्रास्तेअ्पि यांति परां गतिम्॥ 

इस श्‍लोक का हिन्दी अनुवाद हिन्दुओं में आदरणीय माने जाने वाले विद्वान आदिशंकर ने आठवीं शताब्दि में इस प्रकार किया है-

‘‘पापयोनि, पापमय है योनि जन्म जिनका अर्थात् पापी जन्मवाले| वे कौन हैं? इसका उत्तर है-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र’’ 

आज के समय में उपलब्ध गीतानुवाद में इस श्‍लोक का अर्थ इस प्रकार से लिखा गया है|

‘‘हे पार्थ, मेरा आश्रय लेने से पापों से उपजे ये लोग अर्थात्-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र भी परमगति को प्राप्त होते हैं|’’ 

इसी कुप्रवृत्ति के मतिमन्द हिन्दुत्व के ठेकेदारों की सरकारें ‘गीता’ को स्कूल पाठ्यक्रम में अनिवार्य करके किस वर्ग को खुश करके, हिन्दुत्व का कितना भला कर रहे हैं, ये बात सहज समझी जा सकती है! इससे गीता जैसे पवित्र ग्रंथ को अकारण ही विवाद का विषय बनाया जा रहा है| जिसके लिये और कोई नहीं, केवल ढोंगी और छद्महिन्दूवादी जिम्मेदार हैं|

इसके साथ-साथ इन अहंकारी लोगों की ओर से लोकलुभावन शिविरों में आमन्त्रित करके हिन्दुओं को कुमार्ग पर ले जाने के लगातार प्रयास किये जा रहे हैं| यह तो हिन्दू धर्म पर काबिज लोगों का चरित्र है, दूसरी ओर देश के सभी इलाकों में आतंकवाद का दैत्य लगातार सिर उठा रहा है| जिसका एकमात्र लक्ष्य हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के अनुयाईयों को तहस-नहस करना है| भारत की भूमि से हिन्दुत्व को नेस्तनाबूत कर देना इन आतंकियों का लक्ष्य है| इसका एकजुट होकर मुकाबला करने के बजाय हिन्दू धर्म के कथित ठेकेदारों ने अपनी कुबद्धि का दुरूपयोग करके हिन्दू आतंकी दस्ते तैयार करना शुरू कर दिया है! जिससे सारे संसार में हिन्दुत्व और हिन्दू शर्मसार हो रहे हैं| छद्मधर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढने वाले राजनैतिक दल इस बहाने अपनी राजनैतिक रोटियॉं सेंक रहे हैं|

ऐसे हालात में आदिम और पुरातनपंथी सोच को त्यागकर सभी हिन्दुओं पर और विशेषकर हिन्दू धर्म पर हजारों वर्षों से काबिज हिन्दुत्व के कथित ठेकेदारों को आज के परिप्रेक्ष्य में सच्चाई को जानने और समझने की जरूरत है| जिन लोगों ने हिन्दू धर्म या हिन्दुत्व को अपनी क्षुद्र और संकीर्ण मानसिकता के चलते राजनीति की चाशनी में लपेट लिया है, वे हिन्दू धर्म के सबसे बड़े और असली दुश्मन हैं| ये लोग हिन्दुओं को जगाने या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जागरूक नागरिक बनाने के बजाय संकीर्ण, उग्र और आतंकी बनाने पर उतारू हैं|

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान में सारे संसार में ब्राह्मणों एवं उनके अनुयाईयों द्वारा हजारों सालों से शोधित, पोषित, अनुदेशित और संचालित धर्म को ही अलिखित रूप में हिन्दू धर्म मान लिया गया है| ऐसे में हिन्दू धर्मस्थलों और हिन्दूवादी संस्थाओं पर काबिज या पदस्थ लोगों का यह पवित्र धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे इस बात को समझें कि आज के समय में वे लम्बे समय तक दौहरा अपना चरित्र नहीं गढ सकते| अर्थात् एक और तो वे आपने पूर्वजों के धार्मिक अत्याचारों को न्यायसंगत ठहराने के लिये विदेशी ताकतों को जिम्मेदार ठहराकर अमानवीय, असमतावादी और भेदभावों से भरे पड़े धार्मिक ग्रंथों को पावन एवं पवित्र ठहराने के लिये कुतर्क गढते रहें और दूसरी ओर दिखावे के लिये धर्मनिरपेक्षता, मानवता, समानता जैसे पवित्र लोकतान्त्रित मूल्यों के प्रति अपने आपको समर्पित दिखाने का नाटक भी करते रहें| ऐसे दुर्बुद्धि और चालाक लोगों को यह बात आज नहीं तो कल स्वीकार करनी ही होगी कि इक्कीसवीं शताब्दी में धार्मिक भेदभाव, जातिपांत, छुआछूत, जन्मजात उच्च कुलीनता जैसे अमानवीय, अवैज्ञानिक, विघटनकारी, भेदभावपूर्ण, अतार्किक और अलोकतान्त्रित बातें धर्म की आड़ में भी लम्बे समय तक नहीं चल सकती!

यदि हिन्दुओं को इस शताब्दी को अपनी अर्थात् हिन्दुओं की शताब्दी बनाना है तो धर्मग्रंथों के मार्फत पोषित जन्मजातीय कुलीन अहंकार से परिपूर्ण वर्णवादी, अवैज्ञानिक, अतार्किक, संकीर्ण, शुद्र, अव्यावहारिक और साम्प्रदायिक बातों से मुक्त होकर हिन्दुओं को न मात्र भारतीय, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय लोकतान्त्रितक मूल्यों को स्वीकार करके और इन्हें अपने जीवन में अपनाते हुए आगे बढना होगा| दुराग्रह और पूर्वाग्रहों को स्वेच्छा से त्यागना होगा| देश और समाज में अशान्ति एवं कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा करने या हुड़दंग मचाने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा| कन्या भ्रूण हत्या पर वर्षभर चुप्पी साधे रहने वाले हिन्दुत्व के ठेकेदारों को हिन्दुत्व और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के नाम पर वेलेंसटाइन्स-डे पर युवक-युवतियों को तार्किक एवं आत्मीय तरीके से समझाने के बजाय अपमानित करने की प्रवृत्ति को त्यागकर, तेजी से बदलती अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के प्रति सहज स्वीकार भाव पैदा करना होगा और उदारमना बनना होगा|

हिन्दुवाद को सत्ताप्राप्ति का साधन बनाने के बजाय जीवन में सरलता, सजगता, सुगमता, स्वभाविकता, प्राकृतिक सौन्दर्यता और वैचारिक तरलता जैसे भाव पैदा करने होंगे| हिन्दू धर्म के स्वघोषित मठाधीशों को अपने धर्म की कमियों को छिपाने या वास्तविक कमियों का दोष विदेशियों पर थोपने के बजाय उन्हें, जहॉं जैसी हैं, उसी रूप में सहजता से स्वीकारना होगा| हमें वर्तमान पीढी से अपने अतीत को छुपाना नहीं है| यह वर्तमान पीढी के प्रति अपराध है| यह सूचना छिपाने का नहीं पाने का युग है| आज के तकनीकी युग में अधिक समय तक कुछ छुपाया भी नहीं जा सकता|

हमें हिन्दू धर्म की अच्छी बातों के साथ-साथ आज के सन्दर्भ में अतार्किक और अवैज्ञानिक बातों को भी उदारता से सामने लाना होगा| बेशक वे सब बातें हिन्दू समाज को फिसड्डी, अवैज्ञानिक या कुछ भी प्रमाणित करती हों, लेकिन हम उन्हें झुठलाकर सच्चे हिन्दू बनने के बजाय ढोंगी ही कहलायेंगे|

हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि आलोचना का मार्ग अप्रिय जरूर है, लेकिन यही कल्याण का सच्चा मार्ग है| इसलिये हमें अपने धर्म, धर्मग्रंथों, धर्माधीशों, ॠषियों, मुनियों, वेदों, उपनिषदों आदि सभी के अन्दर जाने का मार्ग सबके लिये खोलना होगा| हमारी वर्तमान पीढी को इन सभी के अन्दर झांकर देखने और खुद निर्णय करने का अवसर प्रदान करना चाहिये| यदि आज का हिन्दू अपने धार्मिक इतिहास की अच्छाईयों के साथ-साथ हिन्दू धर्म की कमियों, कमजोरियों और बुराईयों को देखने, पढने और समझने से ही वंचित कर दिया गया तो इन कमियों को ठीक कैसे किया जा सकता है? ऐसी कटु किन्तु सच्ची बातें को छुपाने या इनसे मुंह फेरने के दुष्परिणाम ही आज का हिन्दू झेल रहा है|

आज छद्महिन्दुत्वादी इन सब बातों को उजागर करने का लगातार विरोध करते रहते हैं और हिन्दुत्व के यथार्थ चेहरे को छुपाकर जनता को बनावटी तरीकों से लुभाने या भ्रमाने वाली बातें करते रहते हैं| इसके साथ-साथ समाज के दबे-कुचले वर्गों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अनेक मनगढंथ एवं उकसाऊ बयानबाजी के जरिये जहर उगलते रहते हैं| जिससे समाज में शान्ति एवं सौहार्द नष्ट हो रहा है| इन सब कर्मों से ये लोग अपने आपको सच्चा हिन्दू कहलवाने और हिन्दुओं को अपनी विचारधारा का अनुयाई बनाने का ख्वाब देखते रहते हैं| मानसिक दिवालियेपन या मनुवाद के शिकार कुछ लोग ऐसे लोगों के बहकावे में आ भी जाते हैं और ये लोग इस प्रकार अपने आपका, हिन्दू धर्म का, समाज का तथा देश का उत्थान एवं विकास करने के बजाय केवल और केवल हिन्दू धर्म के साथ-साथ, देश के सर्वनाश को ही आमन्त्रित कर रहे हैं|

अपनी बात समाप्ति की ओर ले जाने से पूर्व हिन्दू धर्म के हित में हिन्दुओं के तैत्तिरीयोपनिषद की आत्मालोचन को समर्पित अमर वाणी का उल्लेख करना समीचीन समझता हूँ| इसमें ॠषि अपने शिष्य का मार्गदर्शन, साफ शब्दों में घोषणा करते हुए कहते हैं कि-

‘‘यान्यवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि|

यान्यस्माकं सुचरितानी, तानि त्वयोपास्यानि, नो इतनराणि॥” 

अर्थात् हमारे (ॠषियों के) जो कर्म निर्दोष हों, तुम्हें उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए, दूसरे कर्मों का नहीं| हमारे जो अच्छे आचरण हों, तुम्हें उन्हीं का सेवन करना चाहिए, दूसरों का नहीं|

यहॉं पर तैत्तिरीयोपनिषद का ॠषि अपने आपको जानता है और वह दम्भी या ढोंगी भी नहीं है| उसे इस बात का ज्ञान (अहसास) है कि कुछ आचरण गलत हो सकते हैं| मानवीय कमजोरी ॠषि से भी परिस्थितिविशेष में दोषपूर्ण या गलत कार्य करवा सकती है| ॠषि इस बात को सीधे-सीधे स्वीकार कर रहे हैं कि कोई भी दूध का धुला नहीं है| ॠषि को यह सब कहने में कोई शर्म या ग्लानि का अनुभव नहीं हो रहा है| ऐसे में हमें आज हजारों वर्ष पुरानी, किन्तु आज के समय में अप्रासंगिक हो चुकी बातों को छुपाने की क्या जरूरत है? हमें सबकुछ आज की पीढी को आम बोलचाल की सभी भाषाओं में अनुवाद करके बतलाना चाहिये, लेकिन अनुवाद में गली नहीं ढॅूंढी जावें| क्योंकि आज हिन्दुओं की सभी जातियों में तथा गैर-हिन्दुओं में भी संस्कृत को पढने और समझने वालों की कमी नहीं है| अब असत्य बात, तर्क के समक्ष टिक नहीं सकती| हमें यह मानना ही होगा कि हिन्दू धर्म में और हिन्दू धर्मग्रंथों में सब कुछ है, जिसमें श्रेृष्ठतम है, बहुत अच्छा है, अच्छा है और साथ ही साथ बुरा भी है, बहुत बुरा भी है तथा निकृष्टतम भी है| अपने इस मत के समर्थन में निरुक्क का एक कथन समाहित करके अपनी बात को विराम देना चाहूँगा|

निरुक्त कहते हैं कि जब ॠषि लोग दुनिया से उठने लगे, तब उनसे मनुष्यों ने पूछा कि अब हमारा ॠषि कौन होगा? इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि-

‘अब तर्क ही तुम्हारा ॠषि हुआ करेगा|’ 

आज हमें हिन्दुत्व के संरक्षण और संवर्द्धन के लिये कुतर्क करने और इतिहास या धर्म की अप्रासंगिक हो चुकी बातों को छुपाने या उनका नाटकीय अनुवाद करके उन्हें दबाने की नहीं, बल्कि सच्चाई को स्वीकार करके तर्क तथा वैज्ञानिक चिन्तन को अपनाने की जरूरत है!

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

20 COMMENTS

  1. एक बार एक आदमी की नाक कट गयी. शब्दशः नाक कट गयी, सच में नाक कट कर गिर गयी थी. जब वो गाव में आया तो लोग उसे चिढाने लगे, देखो नकटा आ गया! नकटा आ गया!!

    लेकिन वो आदमी भी उस्ताद था, उसने एक भोले भले गाव वाले को पकड़ा और बोला की नाक कटी नहीं बल्कि मैंने कटवा दी है, और ऐसा करने से परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं. पहले नाक बीच में आड़े आती थी, अब नहीं, अब मैं हमेशा परमात्मा को देखता रहता हूँ. ये सुनकर उस भोले आदमी ने अपनी भी नाक कटवा ली, लेकिन परमात्मा नहीं दिखे. परेशां होकर वो उसके पास गया और बोला की भाई मुझे तो परमात्मा नहीं दिख रहे, क्यों? तो उत्तर मिला “परमात्मा तो मुझे भी नहीं दिखा, लेकिन कोई पूछे तो यही बताना की हाँ परमात्मा दिखता है”.
    आखिरकार उस गाव के लगभग सारे लोगो ने अपनी नाक कटवा ली. और ये सब लोग मिलकर अब उन लोगो को नक्कू-नक्कू बोलकर चिढाते हैं…

    जहाँ तक मीना जी का सवाल है, तो इनकी नाक कट चुकी है और अब ये किसी भोले-भले की तलाश में बड़ी शिद्दत से है….
    लेकिन चिपलूनकर जी, कपूर जी, दिवस भाई आदि इनके इस काम में आड़े आ रहे हैं. अरे भाई कुछ दया करो… मीना जी कटी हुई नाक लेकर अकेले घूम रहे हैं….

  2. क्षमा करेंगे ,
    टिप्पणी का शेषांश यहाँ है ………

    ५ – “मीणा जी की चिंता के विषय हैं – मुसलमान, क्रिश्चियन, आर्य और आतंकवादी हिन्दू ठेकेदार. ये लोग भारत के मूल धर्म को नष्ट कर देने में लगे हुए हैं”

    मैं एक आर्य ब्राह्मण यह वचन देता हूँ कि यदि मीणा जी मूल भारतीय धर्म की स्थापना के लिए कोई पथ निर्धारित करते हैं तो मैं उसमें अपना निर्दुष्ट सहयोग अवश्य दूंगा. किन्तु यह न समझा जाय कि मैं इस बहाने से भारत में ही टिके रहने की दुष्ट कूट नीति का सहारा ले रहा हूँ . मीणा साहब यदि कहेंगे तो ही मैं यह कार्य करूंगा अन्यथा तो मैं वचन दे चुका हूँ कि मैं भारत छोड़ने के लिए तैयार हूँ.

    6- “ब्राह्मणों ने हज़ारों साल पहले हिन्दू धर्म पर कब्ज़ा कर लिया था. उनका धर्म असमानता, अन्याय और भेदभाव से भरा है. किन्तु वे धर्मनिरपेक्षता, मानवता आदि गुणों का ढोंग करते हैं. ”

    मीणा जी ! अन्य ब्राह्मणों की तो नहीं जानता किन्तु मैं धर्म निरपेक्षता के अवैज्ञानिक सिद्धांत का दृढ विरोधी हूँ. जहाँ तक मेरा विचार है वैदिक ब्राह्मण तो शिक्षा संस्कार और भिक्षा तक ही सीमित रहा है ….उसने समाज से जितना लिया है ( भर पेट भोजन और एक कोपीन ) समाज को उसकी अपेक्षा कई गुना ज्ञान के रूप में वापस भी किया है.जहाँ तक मानवता के ढोंग की बात है मेरा स्पष्ट मत है कि ब्राह्मणों की उदारता व् समदर्शिता के कारण ही अन्य वर्णों को ब्राह्मणों के समान स्तर पर लाने के प्रयास हुए हैं. विचारणीय बात है कि यदि ब्राह्मण समाज का सर्वेसर्वा था तो वह यथास्थिति बनाए रख सकता था . और सामाजिक तरलता कभी आ ही नहीं पाती.

    ६- “ऐसे दुर्बुद्धि और चालाक लोगों को यह बात आज नहीं तो कल स्वीकार करनी ही होगी कि इक्कीसवीं शताब्दी में धार्मिक भेदभाव, जातिपांत, छुआछूत, जन्मजात उच्च कुलीनता जैसे अमानवीय, अवैज्ञानिक, विघटनकारी, भेदभावपूर्ण, अतार्किक और अलोकतान्त्रित बातें धर्म की आड़ में भी लम्बे समय तक नहीं चल सकती!”

    मीणा जी आपने कई बातों को एक साथ रख दिया है, एक ही वर्ग में. छुआछूत को यदि आप हाइजेनिक प्वाइंट ऑफ़ व्यू से देखें तो यह वैज्ञानिक है. बहुत से रोग छुआछूत के कारण ही फैलते हैं. इसमें जातिगत नहीं अपितु स्थितिगत दृष्टिकोण ही अभिप्रेत है …आर्यों का भी यही दृष्टिकोण रहा है . इसीलिये इस अस्पर्श्यता की श्रेणी में घर का ही पीड़ित सदस्य राजयक्ष्मा का रोगी भी आता है.
    विश्व के अनेकों देशों में जातियां एवं वर्ग हैं …उनके नाम भिन्न हो सकते हैं …पर श्रेणियां हैं …और इन श्रेणियों को समाप्त नहीं किया जा सकता. सरकार एक ओर इन्हें समाप्त करना चाहती है दूसरी और सरकारी अभिलेखों में इनको लिखने का अनिवार्य नियम बनाती है. परीक्षाओं के परिणामों में भी श्रेणियां होती हैं, नौकरियों के पदों में भी श्रेणियां हैं, अच्छे-बुरे की श्रेणियां हैं, बदमाश और शरीफ की श्रेणियां हैं, निर्धन और धनवान की श्रेणियां हैं , रूखेस्वभाव और सरस स्वभाव की श्रेणियां हैं ….कितनी गिनाऊँ ? स्वयं आपने क्रूर आर्यों और मूल भारतीयों की दो श्रेणियों का उल्लेख किया है . मानव समाज में योग्यता-क्षमता के आधार पर श्रेणी विभाजन एक अनिवार्य आवश्यकता है यह अवैज्ञानिक कैसे हो सकती है ? एक समान योग्यता-क्षमता असंभव है इसलिए वर्ग विहीन समाज की कल्पना एक यूटोपिया ही है.

    ७- अब तर्क ही तुम्हारा ॠषि हुआ करेगा|’

    किन्तु यह कैसे निर्धारित होगा कि तर्क कौन सा है और कुतर्क कौन सा है ?

    मैं पुनः विनम्र निवेदन करता हूँ कि मीणा जी किसी विचार के प्रतिनिधि हैं …..इसलिए हमें उनके विचारों को गंभीरता से लेना चाहिए …और यथा संभव आर्यों को भी अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिए . कारण यह है कि अब आर्यों और अनार्यों की पहचान शायद ही हो सके ..क्योंकि डी.एन.ए. टेस्ट में तो सबको एक ही बता दिया गया है . और जब तक यह नहीं हो पाता तब तक आर्यों को यहाँ से भगाया नहीं जा सकता.. दूसरी बात इतनी बड़ी संख्या में आर्यों को भारत से कहाँ भगाया जाएगा ….भगा भी दिया जाय तो इन्हें स्वीकार कौन करेगा ?
    यह स्पष्ट है कि हर समाज में सुस्थापित किये गए सिद्धांतों….आदर्शों…मानदंडों ….आदि में काल-क्रम से क्षरण होता है …समय-समय पर समाज-सुधारक इनका परिमार्जन भी करते हैं. किसी सिद्धांत में से जब तर्क और प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है तब वह रूढ़ी बन जाती है …तब समाज के लिए वह लाभ के स्थान पर हानि का ही कारण बनती है. महान लोग इसमें पुनः सुधार करते हैं ….पुनः कुछ समय बाद अमहान लोग विकृत कर देते हैं ….और यह क्रम इसी तरह चलता रहता है. इसमें किसी प्राचीन सिद्धांत को दोष देने का कोई औचित्य नहीं है.

    मीणा जी ! ब्राह्मणों के मूल देश के बारे में अवश्य बताइयेगा……मैं अपने मूल देश जाना चाहूंगा -:)

  3. प्रिय भारतीय अनार्य ……..एवं …..विदेशी आर्य बंधुओ ! सादर नमन ! ! !
    निवेदन है कि मीणा जी के विचारों पर आक्रोशित होने की नहीं बल्कि चिंतित होने की आवश्यकता है….कारण यह है कि यह मात्र मीणा जी का ही नहीं बल्कि मीणा जी जैसे अनेकों लोगों का विचार है…अतः उनके विचारों की उपेक्षा नहीं की जा सकती .
    डॉक्टर कपूर जी ! धर्मपाल जी की पुस्तकों का मैंने भी अवलोकन किया है …उनके तथ्य प्रामाणिक हैं क्योंकि भारत में तत्कालीन प्रवासी यूरोपियन्स ने अपने स्वजनों-बंधुओं और इंग्लैण्ड के तत्कालीन राजपरिवार के लोगों को जो व्यक्तिगत पत्र लिखे थे धर्मपाल जी ने उन्हें अपने लेखों का आधार बनाया है. मीणा जी ! दूसरी बात प्रक्षिप्तांशों की है …आर्ष ग्रंथों के अध्ययन के समय हमें इसका भी ध्यान रखना होगा. थोड़ी सी सावधानी से ही प्रक्षिप्तांशों को आसानी से पहचाना जा सकता है .वर्ण व्यवस्था पर टिप्पणी के समय हमें यह भी विचार करना है कि “जन्मना जायते शूद्र , कर्मणा जायते द्विजः” की स्पष्ट व्यवस्था भी उन्हीं आर्यों की ही देन है …तो भाई हमें तो स्वयं के हिन्दू होने पर गर्व है .
    मीणा जी आपकी बात पर आते हैं. मैं आपके विचारों का सारांश प्रस्तुत कर रहा हूँ –

    १ -“भारत में आर्य बाहर से आये , वे क्रूर थे और उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों और उनके धर्म पर अधिकार कर लिया और फिर उसे विकृत कर दिया .”

    आदरणीय मीणा जी ! यहाँ के मूल निवासियों एवं बाहर से आये आर्यों की वर्त्तमान समाज में सामाजिक एवं बायोलोजिकल पहचान करनी होगी ताकि उन्हें आर्यों के चंगुल से बचाने के लिए एक बृहत् अभियान प्रारम्भ किया जा सके .

    २- आर्यों ने भारतीय समाज को अपने तरीके से ….अपने लाभ के लिए स्तेमाल करने के लिए कई प्रकार के धर्म ग्रंथों की रचना की जिनमें स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रों को हेय और पापी निरूपित किया गया. आर्यों के सिरमौर ब्राह्मणों के “ब्राह्मण-धर्म” का एक धर्मग्रन्थ मनुस्मृति” है

    आदरणीय जी ! यह भी पहचान की जानी चाहिए कि आर्यों द्वारा रचित मनुस्मृति के अतिरिक्त अन्य धर्म ग्रन्थ और कौन-कौन से हैं, उनका अध्ययन कर यदि उनमें आपत्तिजनक बातें पायी जाती हैं तो उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए. साथ ही भारत के मूल निवासियों के मौलिक धर्म ग्रंथों को प्रकाश में लाया जाना चाहिए. हम चाहेंगे कि धर्म ग्रंथों का वर्गीकरण हो जाना चाहिए – “आर्य रचित गलत धर्म ग्रन्थ” और “मूल भारतीयों द्वारा रचित अच्छे वाले धर्म ग्रन्थ ”

    ३- मीणा जी का स्पष्ट संकेत ब्राह्मणों और क्षत्रियों की ओर है …. “ये ही बाहर से आये हुए क्रूर आर्य हैं ?”

    यह शोध का विषय होना चाहिए ….वंश परम्परा से ज्ञात हुआ है कि मैं ब्राह्मण हूँ …अर्थात बाहर से आया हुआ क्रूर आर्य . तब ऐसे लोगों के लिए अब क्या व्यवस्था होनी चाहिए ? क्या हमें यह देश छोड़कर कहीं और जाना होगा ? हाँ , तो कहाँ ? डी.एन.ए. रिपोर्ट्स से तो पता चला है कि भारत में रहने वाले सभी द्रविणों, आदिवासियों और उत्तर भारतीयों के जींस में समानता है. ब्राह्मण ( क्रूर आर्य ) होने और विदेशी होने के कारण नैतिक दृष्टि से मुझे यह देश त्याग कर अपने मूल देश में चले जाना चाहिए . मैं व्यक्तिगत रूप से भारत को छोड़कर धरती पर कहीं भी जाने के लिए तैयार हूँ …मुझे मेरा मूल देश बताया जाना चाहिए.

    ४- “आज़ादी से पूर्व हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों को पढ़ने का अधिकार सभी को नहीं था. इन धर्म ग्रंथों को सभी के लिए सुलभ और बोधगम्य बनाया जाना चाहिए. ताकि लोग इन ग्रंथों की वास्तविकता को जान सकें. ”

    मीणा जी ने यह स्वीकारा है कि इन ग्रंथों में अच्छा भी है और बुरा भी. अच्छी बात है यदि वे “सार-सार को गहि लहे…थोथा देय उडाय” के अनुरूप आर्यों के बर्बरतापूर्ण ग्रन्थों में से मूल भारतीयों के लिए कुछ अच्छा शोध करके उन्हें उपादेय बनाना चाहते हैं. किन्तु कदाचित इसकी आवश्यकता ही न रहे यदि हमें मूल भारतीयों द्वारा रचित धर्म ग्रंथो का पता चल जाय तो . क्योंकि निश्चित ही आर्यों की अपेक्षा मूल भारतीयों द्वारा रचित उनके धर्म ग्रन्थ अनुकरणीय होंगे . जहाँ तक संस्कृत में रचित धर्म ग्रंथों की बात है ….आज तो लिप्यन्तरण और भाषांतरण की सुविधाएं सर्व सुलभ हैं जिसको जिस भाषा में अच्छा लगे पढ़ ले …यह कोई समस्या नहीं रह गयी है …आर्य रचित ग्रंथों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हैं. हमारे इस छोटे से कस्बे में तो एक मुसलमान की दूकान पर हिन्दी भाषा में वेद-पुराण-उपनिषद्…आदि बिक रहे हैं …खाली समय में खान साहब खुद भी उन्हें पढ़ते रहते हैं.

  4. मीना जी आपको धरम ग्रंथो में क्या पवित्रता दिखती है समझ से परे है .
    मेरे ख्याल से ये सारे धर्मग्रंथ निरे बेवकूफ लोगो ने लिखे है आपका क्या विचार है
    कभी समय मिले तो जरूर लिखना कि क्या क्या पवित्र और अच्छा है इन third क्लास हिन्दू धर्मग्रंथो में

    ज्ञान हासिल करना अपने वश में होता है कोई लाख रूकावटे डाले हासिल करने वाला हासिल कर ही लेता हैं .
    जैसे – आदिशंकर ने हासिल किया

    ‘‘मां हि पाथ्र व्यपाश्रित्य येअ्पि स्यु: पापयोनय:|

    स्त्रियो वैश्यास्तथा शमद्रास्तेअ्पि यांति परां गतिम्॥

    इस श्‍लोक का हिन्दी अनुवाद हिन्दुओं में आदरणीय माने जाने वाले विद्वान आदिशंकर ने आठवीं शताब्दि में इस प्रकार किया है-

    ‘‘पापयोनि, पापमय है योनि जन्म जिनका अर्थात् पापी जन्मवाले| वे कौन हैं? इसका उत्तर है-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र’’

    आज के समय में उपलब्ध गीतानुवाद में इस श्‍लोक का अर्थ इस प्रकार से लिखा गया है|

    ‘‘हे पार्थ, मेरा आश्रय लेने से पापों से उपजे ये लोग अर्थात्-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र भी परमगति को प्राप्त होते हैं|’’

    उपरोक्त से लेखक के ज्ञान का पैमाना छलकता है कैसे अर्थ का अनर्थ हो सकता है मीना जी जैसे लोग ऐसे विद्वानों की भद्द पीटने के लिए तैयार रहते है.
    मुझे कक्षा ६ का एक प्रसंग याद है अध्यापक जी ने एक संस्क्रत के सूक्ति का अर्थ मेरे सहपाठी से पूछा था
    सूक्ति- जाते समुद्रे पिह पोत भंगे ……….(किसी को याद हो तो भाई पूरी कर देना)
    क्षमा करे सूक्ति याद नहीं है किन्तु उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था

    समुद्र में जहाज के ड़ूब जाने पर भी नाविक अपना साहस नही खोता अपितु लकड़ी के तख्तो के सहारे बाहर आने की कोशिस करता है

    किन्तु मेरे सहपाठी जो आज कल सेना में है उनका जवाब था –
    जो कोई भी समुद्र में जाता है उसका पोता भंग हो जाता है

    मीणा जी उपरोक्त प्रसंग और आपके द्वारा वर्णित प्रसंग में काफी समानता है .
    गलती व्याख करने वाले कि है न कि विषय वास्तु कि .
    किन्तु आप विषय वास्तु को दोष दे रहे है न कि व्वाख्यता को .

    मुझ सहित जितने लोगो ने टिप्पणी कि है वे सब अल्प ज्ञानी है निर्बुद्दी है ,
    आप पुरुष नहीं है आप महा ……है.

    आज

  5. मीणा जी, मैं भी विमलेश जी वाला प्रश्न दोहराना चाहता हूँ कि आखिर आप इससे समझाना क्या चाहते हैं| मुझे भी समझने में जरा परेशानी हो रही है| एक ओर तो आपने भगवत गीता को भी अत्याचारी कहा वहीँ दूसरी ओर आपने इसे पवित्र ग्रन्थ की संज्ञा दे डाली…
    बताइये कि आखिर आप चाहते क्या हैं?

    आपने कहा-
    “”हिन्दुओं के लिये सर्वस्वकार्य माने जाने वाले धर्मग्रंथ गीता तक को इन्होंने नहीं बख्सा| जिसमें भगवान कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि-

    ‘‘मां हि पाथ्र व्यपाश्रित्य येअ्पि स्यु: पापयोनय:|

    स्त्रियो वैश्यास्तथा शमद्रास्तेअ्पि यांति परां गतिम्॥

    इस श्‍लोक का हिन्दी अनुवाद हिन्दुओं में आदरणीय माने जाने वाले विद्वान आदिशंकर ने आठवीं शताब्दि में इस प्रकार किया है-

    ‘‘पापयोनि, पापमय है योनि जन्म जिनका अर्थात् पापी जन्मवाले| वे कौन हैं? इसका उत्तर है-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र’’

    आज के समय में उपलब्ध गीतानुवाद में इस श्‍लोक का अर्थ इस प्रकार से लिखा गया है|

    ‘‘हे पार्थ, मेरा आश्रय लेने से पापों से उपजे ये लोग अर्थात्-स्त्रियॉं, वैश्य और शूद्र भी परमगति को प्राप्त होते हैं|’’

    इसी कुप्रवृत्ति के मतिमन्द हिन्दुत्व के ठेकेदारों की सरकारें ‘गीता’ को स्कूल पाठ्यक्रम में अनिवार्य करके किस वर्ग को खुश करके, हिन्दुत्व का कितना भला कर रहे हैं, ये बात सहज समझी जा सकती है! इससे गीता जैसे पवित्र ग्रंथ को अकारण ही विवाद का विषय बनाया जा रहा है| जिसके लिये और कोई नहीं, केवल ढोंगी और छद्महिन्दूवादी जिम्मेदार हैं|””

    मीणा जी यहाँ आपकी बात बिलकुल भी समझ नहीं आई| भगवान् कृष्ण के मुख से कहलवाया गया???
    क्या भगवान् कृष्ण हमारे कहे अनुसार गीता गढ़ रहे थे?
    यदि गीता एक अत्याचारी ग्रन्थ दिखाई पड़ रहा है तो आप इसे पवित्र ग्रन्थ क्यों कह रहे हैं? और यदि यह पवित्र ग्रन्थ है तो पाठ्यक्रमों में इसे शामिल करने में आपको आपत्ति क्यों है?
    अपनी दृष्टि तो स्पष्ट कीजिये|

    आपने कहा-
    “आर्यों के सर्वेसर्वा ब्राह्मणों ने स्वयं को ब्रह्मा के मुख से पैदा करवाकर, क्षत्रियों को ब्रह्मा की भुजाओं से, वैश्यों को ब्रह्मा की जंघाओं से और शूद्रों को ब्रह्मा के पैरों से पैदा करवा कर समाज को चार वर्गों (वर्णों) में हमेशा के लिये विभाजित कर दिया”

    श्रीमान जिस मनुस्मृति को आप गालियाँ दे रहे हैं, पहले ठीक से उसका अध्ययन करें|
    मनुस्मृति में भगवान् को अनंत निराकार कहा गया है, उसका कोई शरीर नहीं है| तो जिसका कोई शरीर ही न हो उसका मुख, भुजाएं, जंघाएँ व चरण कहाँ से आ गए?
    आपने तो अर्थ का अनर्थ कर दिया|
    ब्राह्मण वह है जो विद्वान् है, जो शिक्षा व ज्ञान दे रहा है, अथवा ले रहा है| ऐसे में यह कहा गया कि ब्राह्मण धर्म के उपदेशों को समाज तक पहुंचा रहा है, अत: वह भगवान् का मुख है न कि मुख से पैदा हुआ|
    क्षत्रिय वह है जो धर्म की रक्षा के लिए युद्ध लड़ता है| युद्ध लड़ना प्राय: भुजाओं से ही सम्बंधित है, अत: यह कहा गया कि क्षत्रिय इश्वर की भुजा है न की भुजा से पैदा हुआ|
    वैश्य वह है जो पूँजी का निर्माण करता है| व्यापार, खेती बाड़ी, पशुपालन आदि करता है| कुल मिलाकर कह सकते हैं की वह कुछ निर्माण कर रहा है| अत: वह जंघा है जिससे निर्माण होता है|जंघा से आप मेरा तात्पर्य समझ रहे होंगे की निर्माण शरीर के किस अंग से होता है| वेदों में ऐसे शब्दों का उपयोग असभ्य है इसलिए इसे जंघा कहा गया| इसीलिए वैश्यों को भगवान् की जंघाएँ कहा गया न की जंघाओं से पैदा हुआ|
    अंत में क्षुद्र वह है जो इन सब वर्गों की सेवा कर रहा है| क्षुद्र ही है जिसके बल पर यह समाज चल रहा है, गतिशील है| अत: क्षुद्रों को भगवान् के चरण कहा गया न की चरण से पैदा हुआ|

    अब आप ही बताएं कि किसे ध्यान देने की आवश्यकता है?

    हिन्दू धर्म को नष्ट करने वाला विदेशी एजेंट ही कहलाएगा| यदि आप जानबूझ कर ऐसा नहीं कर रहे तो भी आप विदेशी एजेंट ही कहलाएंगे| क्यों कि अनजाने में ही सही आप वही कर रहे हैं जो मैकॉले हमसे करवाना चाहता था| Indirectly ही सही, हैं तो आप विदेशी एजेंट ही| अब आपको खुद नहीं पता कि आप क्या कर रहे हैं? अपने ही हाथों अपने ही समाज का नाश व अपने ही मुख से अपने ही पुरखों का अपमान|
    सोच लीजिये मीणा जी कहीं आप कोई गलती तो नहीं कर रहे|

  6. मीणा जी, अब तक aai टिप्पणियों से तो आप समझ ही चुके होंगे कि आप अपना ही सत्यानाश कर रहे हैं…
    आपने जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं, विमलेश जी ने उन्हें तोडा मरोड़ा बताया है…आपने प्रतिप्रश्न किया कि कहाँ क्या तोडा मरोड़ा गया है? यह प्रश्न करने से पहले आदरणीय डॉ. राजेश कपूर साहब की टिप्पणियाँ तो पढ़ लेते| आपके समस्त प्रश्नों का समाधान इसमें किया जा चूका है| फिर भी आपको कुछ समझ न आए तो iska मतलब आपको जगाना बेकार है क्यों कि आप सोने का ढोंग कर रहे हैं|
    सबसे अच्छा तर्क तो भाई शैलेन्द्र जी ने दे ही दिया है| यदि आप इतने ही ग्यानी हैं कि आर्यों को विदेशी बता दिया तो जरा यह भी बता दीजिये कि ये आर्य आखिर कौनसे देश से आए थे? आए तो आए क्या अपना नामोंनिशाँ भी उस देश से मिटा आए?
    हिंदुत्व को खतरा किस्से है ये आप हमे न बताएं तो ही उचित होगा, क्यों कि जो बात आप जानते ही नहीं उसका बखान करना गलत है…

  7. पुनश्च
    मीणाजी यह बताने की कृपा करें की कौन से ग्रन्थ में लिखा है की ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से kshattria भुजा से वैश्य जंघा से तथा शुद्र पैरों से पैदा हुए. आप का विकृत मस्तिष्क गीता के श्लोक का भी अनर्थ करने से नहीं चूकता .आप का हिन्दू, हिन्दू सभ्यता तथा हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रति असीम द्वेष सार्थक वातालाप करने की संभावना को एकदम नकार देता है . स्वाभाव वश टिपण्णी करने को विवश हो जाता हूँ यह जानते हुए भी की इसका आप पर कोई असर होने वाला नहीं

  8. यह सत्य है की कुछ ढोंगी और पाखंडी हिन्दू बाबाओ ने (नित्यानंद आसाराम इत्यादि ) हिन्दू धर्म को बहुत नुक्सान पहुचाया है. हमें ऐसे पाखंडी लोगो के हाथो हिन्दू धर्म को नष्ट होने से बचाना चाहिए. जितना कला धन नेताओं के पास है उस से भी कही अधिक ऐसे पाखंडी बाबाओ के पास है

  9. डाक्टर राजेश कपूर जी की विद्वत्ता पूर्ण संयमित टिप्पणी से मैं पूर्णतया सहमत हूँ. मीणा जी के तर्क (यदि इसे तर्क मान लिया जाये )का आधार ही पाश्चात्य विद्वानों द्वारा ब्रिटिश शासन कल में गढ़ी हुई आर्यन इंवेज़न थेओरी है जो आधुनिक पुरातत्वविदों की खोज से पूर्णतया खंडित हो चुकी है .भारतीय संस्कृति आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विशेष प्रशंसा अर्जित कर चुकी है जहाँ तक मनुस्मृति का प्रश्न है इस पर भी शोध हो चुकी है . प्रोफ सुरेन्द्र कुमार ने मनु स्मृति का मूल ग्रन्थ विशुद्ध मनुस्मृति के नाम से प्रकाशित किया है जिस में प्रक्षिप्त अंश जो दुर्बुद्धि लोगों ने कालांतर में जोड़ दिए थे निकाल दिए गए हैं.इस मनुस्मृति में कोई ऐसा नियम नहीं है जो आधुनिक समाज में भी अनुचित लगे . समाज में कथित निम्न वर्णों तथा शूद्रों को शिक्षा सुविधायों के लिए श्री धर्मपाल का बहुचर्चित शोधग्रन्थ देखें.
    मीणा जी का हिदुद्रोह उनके लेखों से बार बार प्रकट होता रहा है साथ ही वे अल्पसंख्यकों के भी कट्टर पक्षधर हैं. पता नहीं कौन कौन सी युक्तियाँ द्वारा कांग्रेस पार्टी के संविधान के नितांत विरुद्ध मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतिओं को उचित ठहराएंगे मीणा जी ने यदि कुरान और बाइबिल का थोडा भी अद्ध्ययन किया होता तो शायद वे कुछ संयम से काम लेते. अभी तो ऐसा लगता है की वे जान बूझ कर या अनजाने में विदेशिओं द्वारा छेड़े गए भारत तोड़ो अभियान जिसका खुलासा राजीव मल्होत्रा ने अपनी पुस्तक “ब्रेअकिंग इंडिया” में किया है उस में एक अयन के सेनापति की भूमिका निभा रहे हैं.
    मैं स्वयं हिन्दू धर्मं की विक्रतिओं को शीघ्रातिशीघ्र दूर किये जाने के लिए कृतसंकल्प हूँ और इस कार्य में यदि मीणा जी सार्थक सहयोग करें तो उनका आभारी हूँगा

  10. श्री राजेश कपूर जी व विमलेश जी सरीखे विद्वत जनों ने काफी कुछ लिख दिया है मेरे लिखने की आवश्यकता तो नहीं है फिर भी केवल इतना और जोड़ना चाहूँगा की आर्यों के आने व तथाकथित मूल निवासियों को खदेड़े जाने की बातें कोरी बकवास के सिवा कुछ नहीं हैं.डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने हाल में एक वक्तव्य में बताया था की उत्तर दक्षिण व यहाँ तक की भारत में रहने वाले मुसलमानों व ईसाईयों के खून की जांच से पता चला है की इस देश के सभी लोगों का डी एन ऐ एक ही है. आर्यों के बहार से आने की कपोलकल्पित कहानी के सम्बन्ध में कृपया फ़्रांसिसी विद्वान् मिचेल दनिमो की विद्वता पूर्ण पुस्तक ” द इनवेजन देट नेवर वाज ” को पढ़कर शायद कुछ गलत अव्धार्नाएं सुधर जाएँ.

  11. मीनअ जी, गुणगान और प्रशस्ति गान करने वाले विद्वानों को ”खट्टर काका(हरिमोहन झा लिखित)” और पराशर स्मृति भी पढ़ लेने की सलाह दे रहा हूँ……………ये लोग गौरवगान करने में ये भूल जाते हैं की इनके पास जितने तर्क हैं खुद को महान और सर्वश्रेस्ट साबित करने के उससे कम तर्क किसी अन्य धर्म और संस्कृति में नहीं हैं………..फिर भी धर्म और संस्कृति का मादक प्प्याला इनको madmast रखकर सच्चाइयों का विश्लेषण करने और use स्वीकार करने से कोसों दूर रखता है….खैर किया भी क्या जा सकता है ”जो जिसका खाता है, उसी का न गाता है” ये तो नमक की फ़र्ज़-अदायगी है….

  12. लेखक हीन भावना से पीडित हैं ,ध्यान-अकर्र्शन व् निहित स्वर्थोवश शायद कहना चाहते हैं इनके इस तरह के लेखो पर टिपण्णी न करें तो खुद ही इनका मनोबल व् उद्देश्य समाप्त हो जायेगा….क्या आप के पास कचरे का डब्बा है?????

  13. श्री विमलेश जी लिखते हैं कि-

    ‘‘आखिर आप क्या साबित करना चाहते है’’

    श्री विमलेश जी मैं नया कुछ भी साबित नहीं करना चाहता, जो कुछ भी हम हिन्दुओं के पवित्र बताये जाने वाले धर्म ग्रंथों में लिखा है, उसी को जनता के सामने उसी रूप में लाने का छोटा सा प्रयास कर रहा हूँ, जिससे उन सभी हिन्दुओं को जिन्हें आजादी से पूर्व इन धर्मग्रंथों को पढने का अधिकार नहीं था को पता चल सके कि हिन्दू धर्म के ठेकेदारों की हकीकत क्या है? जानने और बताने के मूल अधिकार में संविधान मुझे एवं देश के लोगों को यह अधिकार प्रदान करता है|

    श्री विमलेश जी आप आगे लिखते हैं कि

    ‘‘इस तरह के लेख जो तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर आप पेश करते है..’’

    श्री विमलेश जी मैंने तो समय खराब नहीं किया, लेकिन आप थोडा समय नष्ट करके ये तो बतलाते कि मैंने क्या तोडा-मरोड़ा है?

    जब तक आरोप को सिद्ध न किया जावे ऐसी बातें भांडों की बकवास कहलाती हैं! मैं समझता हूँ कि आप भांड कहलाना पसंद नहीं करेंगे?

    आशा है कि आपको ये बात समझ में आ गयी होगी कि टिप्पणी करते समय संजदगी की भी जरूरत होती है|

  14. एक ख़ास बात रह गयी. हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों और संस्कृति की आलोचना करने को उचित ठहराने की बात अनेकों बार सही ठहराने के कोशिश आप द्वारा की जा चुकी है. ताकि हम अपनी जड़ें स्वयं खोदते रहें और दूसरों द्वारा हमारे जड़ें खोदे जाने को गलत न कहें ? यही मतलब हुआ न ? … यदि ये आत्म आलोचना या स्व निंदा बड़ी उत्तम बात है तो मीना जी आपने यह उपदेश कभी मुस्लिम बंधुओं को दिया ? अनेक सम्प्रदायों में बनते हुए ईसाई मित्रों को ये परामर्श दिया ? नहीं न ? तो फिर ये आत्म निंदा का उपदेश, ये हीन भावना बढ़ने व जगाने वाला उपदेश हिन्दू समाज के लिए ही क्यूँ है ? यही चाहते हैं न आप लोग कि आत्म आलोचना के नाम पर हिन्दू समाज के ग्रंथो, परम्पराओं व संस्कृति की इतनी दुर्दशा की जाये कि कोई भी हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहलाने में शर्म महसूस करे. मुझे तो स्पष्ट लगता है कि आपके अधिकांश लेखों का छद्म उद्देश्य यही है. एक उद्देश्य होता है आप सरीखों का कि समाज को अधिक से अधिक टुकड़ों में कैसे बांटा जाए. आपके सारे लेखों को यदि एकत्रित कर के देखा जाए तो कोई भी यह अर्थ सरलता से निकाल लेगा. यदि आप अल्प संख्यकों के सचमुच हित चिन्तक हैं तो बतलाईये कि आज तक आपने किस किस के कोई काम करवाए जिनसे उन अल्प संख्यकों का कोई भला हुआ हो ? आखिर इतनी बड़ी संस्था है न आप की जिसके आप प्रमुख हैं . क्या काम किये हैं आप लोगों ने अभीतक जो समाज के हित में या भारत देश के हित में हों ? उचित समझें तो ज़रा पाठकों को बतलाने की कृपा करें. .. महोदय आप इतना कड़वा, इतना अनर्गल व अनुचित लेखन करते हैं, इतनी कुटिलता होती है, इतने गुप्त प्रहार होते हैं कि न चाहते हुए भी कुछ कठोर भाषा का प्रयोग करना ही पड़ जाता है….. अस्तु आपका शुभचिंतक,

    • ‘अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है’…..और ‘हम सुधरेंगे जग सुधरेगा’….
      ‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्य कोय,
      जो जग देखा आपने, मुझसे बुरा न कोय’

      डॉ. कपूर जी इनमे एक दो बातें संघियों की ही मैंने उल्लेखित की है…….अपना कचरा हम नही साफ़ करके दुसरे का कचरा साफ़ करने क्यों जाय

  15. डा. मीना जी ने जो मुद्दे उठए हैं वे सारे तो ठीक से स्पष्ट नहीं होते पर जितने भी मुद्दे समझ आने वाले हैं, उन पर अपनी सम्मति प्रमाणों के आधार पर प्रकट करने का विनम्र प्रयास है. ……….
    १. आर्य कही बाहर से आये थे, इसके बारे में एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलाता. पर वे भारत से सारे संसार में गए, इस पर विश्व भर के विद्वानों ने ढेरों प्रमाण दिए है. अनेक ग्रन्थ इस पर है. पाठक चाहेंगे तो एक छोटा सा लेख इस पर सप्रमाण प्रेषित करने में कोई कठिनाई नहीं. ख़ास कर डा.मीणा जी जैसे मित्रों को तो इन तथ्यों को ज़रूर जानना चाहिए.
    २.हिन्दुओं के वास्तविक दुश्मन कौन हैं ? कमाल है, यह भी कोई छुपा हुआ है. जो हर रोज़ हिन्दुओं को सता रहे है, मार रहे हैं. जो हिन्दुओं को मारने वालों को गले लगा कर पाल-पोस रहे है, उन्हें जेलों में भी वी.आई.पी. सुविधाएं दे रहे हैं. भारत के देश भक्तों की हत्याए कर रहे हैं. संसद पर व हमारे मंदिरों पर आक्रमण करने वालों कोफांसी नहीं होने दे रहे. ये सब केवल हिंदुओंके नहीं, देश के शत्रु है. ……… देश को टुकड़ों में बांटने के लिए अगड़े, पिछड़े, अल्प संख्यक, बहुसंख्यक, प्रांत, भाषा के आधार पर टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र कर रहे हैं ; वे सब देश व समाज के शत्रु ही तो हैं. जो भारत में खतरनाक साबित हो चुकी परमाणु ऊर्जा तकनीक लगा रहे हैं, विदेशी बैंकों जमा देश के धन को वापिस लाने में रोड़े अटका रहे हैं, किसानों की ज़मीनें छीन कर मैगा कंपनियों को दे रहे है ; ये सब हमारे समाज के शत्रु हैं. …….. जिन लोगों ने अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया से लेकर मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, नागालेंड तक मूल संस्कृति वालों का सफाया कर दिया, ये सब भी तो देश व हिन्दू समाज के शत्रु है.
    ३. जिन दर्शन व धर्म ग्रंथों को विश्व भर के विचारकों व विद्वानों ने विश्व का सर्वोतम ज्ञान बतलाया, उनमें केवल कमियाँ देखने वाले, उन्हें विष भरा बतलाने वाले शत्रुओं की श्रेणी में ही तो आएंगे. … इसलिए मुझे नहीं लगता की डा. मीणा जी के कहे पर हिन्दू और अन्य अल्प संख्यक विश्वास करेंगे, भरोसा करेंगे.
    ३. जहाँ तक बात है जाती व्यवस्था और मनु की ; तो इसके बारे में विश्व के अनेक विद्वानों का मत मीणा जी जैसे मित्रों से बिलकुल अलग है. वे लिखते है की दुनिया में ईसाई क्रूसेडर जहां भी गए वहाँ की संस्कृति को समूल नष्ट कर दिया. पर भारत में ऐसा सैंकड़ों साल में भी नहीं हो सका ( इस्लामी और मुस्लिम काल मिला कर ). इसका एक मात्र कारण भारत की जाती व्यवस्था है. इस बारे में विद्वान लेखक प्रो. मधुसुदन जी (अमेरिका) शायद अधिक विस्तार से जानकारी दे सकें क्यूंकि ऐसे कुछ लेखक अमेरिकी है.
    ४. मैं अनेकों बार पहले भी निवेदन कर चुका हूँ की यह पूरी तरह से असत्य है की भारत में अतीत काल में अस्पृश्यता थी. १८२० से १८३५ तक के एडम और मैकाले के सर्वेक्षणों से इसके ठोस प्रमाण मिलते हैं की भारत में डोम, नाइ, ब्राहमण, क्षत्रीय, चंडाल तक साथ मिलकर पाठशालाओं में पढ़ते, पढाते और रहते व खाते, पीते थे. जातियां तो थीं पर उनमें छुआ-छूत या किसी भी प्रकार का ऊंच-नीच का भाव नहीं था. श्री धर्मपाल जी ने ब्रिटेन के पुस्तकालयों में ३० साल तक अध्ययन करके ये सारे तथ्य ” दी ब्यूटीफुल ट्री ” नामक पुस्तक में विस्तार से दिए हैं. सर्वेक्षण रपटें व सन्दर्भ साफ़,साफ़ उधृत किये गए है…… विचार और खोज की बात तो यह है की मैकाले व उसके साथियों और उनके डा. मीणा जी जैसे मानस पुत्रों ने भारत के इस स्वरुप को कैसे विकृत किया, जातिवाद की आग लगा कर हिन्दू समाज ही नहीं सारे देश को दुर्बल बना दिया, समाज को टुकड़ों में बाँट दिया तो कसे यह सब किया ? कमाल तो यह है की ये सब किया हमारे हित व कल्याण के नाम पर. …. इतिहास के इस अविश्वसनीय लगने वाले तथ्यों को हमारे शत्रु या काले अँगरेज़ तो कभी भी जानने का प्रयास करेंगे नहीं, पर हर देशभक्त को इन तथ्यों को जानने का प्रयास करना चाहिए. जहां से हमारी जड़े खोदी गयी हैं , वहाँ तक तो जाना ही पडेगा.

  16. आप और दिग्विजयसिंह (कांग्रेसी) एक जैसे लगते है.

  17. मुग़ल ईरान से आये, क्रिस्चियन इंग्लैंड से आये इसी तरह यहूदी और पारसी आये लेकिन एक बात जो समझ में नहीं आती की ये जहाँ से भी आये क्या वह से वो धर्म या संस्कृति नष्ट हो गयी अगर नहीं तो हिन्दू धर्म बाहर से आया आर्य बाहर से आये तो इनका मूल कहाँ है विद्वान लेखक समझाने का कष्ट करेंगे
    दूसरी बात नए वैज्ञानिक शोधो से भी ये सिद्ध हो गया की आर्य थ्योरी झूठी है देखे
    https://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5057554.cms
    मीणा जी आप कुछ भी कह सकते है

  18. आज हमें हिन्दुत्व के संरक्षण और संवर्द्धन के लिये कुतर्क करने और इतिहास या धर्म की अप्रासंगिक हो चुकी बातों को छुपाने या उनका नाटकीय अनुवाद करके उन्हें दबाने की नहीं, बल्कि सच्चाई को स्वीकार करके तर्क तथा वैज्ञानिक चिन्तन को अपनाने की जरूरत है!

    मीणा जी लेख में उपरोक्त पक्तिया तो समझ में आती है और इन पक्तियों को पूरा समर्थन करता हू .
    किन्तु इतना लम्बा लेख समझ से परे है .

    आखिर आप क्या साबित करना चाहते है . और कहना क्या चाहते है .कम से कम २ घंटा समय नष्ट करके आप किस उद्देश्य को पूरा करना चाहते है .
    इस तरह के लेख जो तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर आप पेश करते है तो सहज ही आपको कठोर टिप्पणियों के लिए लोगो को धन्यवाद कहना चाहिए तथा आत्ममंथन करना चाहिए
    .ताकि लोग दोबारा आप पर टिप्पणी करने से पहले सोचे

  19. मीना जी आप बहुत मुर्ख हो
    माफ़ करियेगा आपको इलाज करने की जरुरत है किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करिए लेकिन डॉक्टर मुस्लिम या च्रिस्चन होना चाहिए

    इस्वर आपको बुध्ही दे

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