सृष्टि के विधानानुसार प्राप्त होता है मनुष्य को सुख और दुःख – अखिलेश आर्येन्दु

आमतौर पर सुख और दुःख की जो लोक-प्रचलित धारणाएं या मान्यताएं हैं, उनमें ज्यादातर न तो तर्क संगत लगती हैं और न तो शास्त्र सम्मत ही। इसलिए जब कभी सदाचारी को दुःख पाते और दुराचारी को सुख पाते हम देखते हैं तो यह धारणा बना लेते हें कि सदाचार सुख का कारण और दुराचार दुःख का कारण नहीं है। इसलिए वे लोग भी भ्रष्टाचार और र्बइमानी पर उतर आते हैं जो सदाचार और नैतिकता में विश्वास करते रहते हैं। वे जोर-जोर से शोर मचाने लगते हैं कि कलियुग में वही फूलता-फलता है जो जमाने के मुताबिक कार्य करता है। मतलब गलत तरीके से कार्य करके यदि सुख के सारे संसाधनों की प्राप्ति होती हो तो गलत करने में कोई पाप नहीं लगता है। बस सुबह-शाम भगवान का दो-चार बार नाम ले लो और मंदिर में लडडू चढ़ा आओ, काफी है। भगवान बड़ा दयालु है, वह सब माफ कर देता है। जाहिर है इसी धारणा के कारण आज बड़ा आदमी बनने और अपना दबदबा कायम रखने की इच्छा के कारण लोग बड़ा-सा-बड़ा अनर्थ कर रहे हैं।

भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं-हे अर्जुन! इन्द्रियजनित कार्य करने पर मनुष्य में आसक्ति पेैदा हो जाती है। यह आसक्ति इंसान को धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, अपकार, उपकार और सत्य-असत्य के भेद को समझने नहीं देती है। इस लिए अधर्म और भ्रष्टाचार से पहले वह खूब फूलता-फलता है लेकिन एक समय ऐसा आता है कि उसका सर्वनाश हो जाता है। आए दिन ऐसी अनेकानेक घटनाएं घटतीं रहती हैं। भगवान मनु कहते हैं- पहले अधर्म और पाप कर्म से धनवान बनने वाला खूब फूलता-फलता है लेकिन दस वर्ष में उसका कमाया धन ब्याज के साथ सर्वनाश को प्राप्त हो जाता है। कहने का मतलब यह है कि धन के लिए अनर्थ करने वाला मनुष्य हमेशा न सुखी रहता है और न सदाचार से जिन्दगी बिताने वाला हमेशा दुखी रहता है। यहां एक बात सबसे अधिक समझने वाली है, वह यह कि सुख-दुख महसूस करने का विषय है। धनहीन यदि वासनावृति से ऊपर उठ गया है तो धन न रहने पर वह खुद को सुखी महसूस करेगा। यदि वासनावृति वाले के पास करोड़ों रुपए है तब भी वह सुख नहीं भोग पाता है। क्योंकि उसमें हमेशा अधिक से अधिक धन कमाने की लालसा बनी रहती है। यह वासना ही मनुष्य को गलतकर्म या पाप कर्म करने की तरफ ले जाती है।और यही तमाम दुःखों का कारण भी है। यदि इन्द्रिय बलवान हैं, धर्म-अधर्म का भेद समझने की कूबत है तो उसके अंदर यह धारणा कभी नहीं पैदा हो सकती कि कलियुग में भ्रष्टाचार करने वाला ही हर तरह से सुखी होता है। आज के समय में न तो लोग शास्त्र पढ़ते-पढ़ाते हैं और न तो धर्म और अधर्म पर चिन्तन ही करते हैं। लोग एक तर्क और भी देने लगे हैं कि ब्राह्यण जब गलत तरीके से कार्य करने लगे हैं तो हम तो अमुक जाति के हैं, हमें करने में क्या हर्ज है! इसी धारणा के चलते समाज में मांसाहार, दुराचार और पापाचार बढ़ता जा रहा है। जब कि हकीकत यह है कि भ्रष्ट इंसान ब्राह्यण हो ही नहीं सकता है। ब्राह्यण वह है जो वेद पढ़ता-पढ़ाता है, यज्ञ करता-कराता हो और सदाचार को बढ़ाने वाला हो। इसलिए यह धारणा भी तर्क संगत नहीं है। एक बात और भी समझने वाली है, वह यह कि दुराचार या पापाचार में लिप्त वही होता है जो ईश्वरीय-व्यवस्था में विश्वास नहीं करता है। जो ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास करता है उसकी धारणा यह कभी बन ही नहीं सकती कि कलियुग में परमात्मा का नाम लेते रहिए और जैसा चाहो वैसा कर्म करते रहो। वेद में कहा गया है कि -हे मानव, तू ऐसा कर्म न कर जो तुम्हारे और समाज के हित में न हो। मतलब जो आत्मानुकूल न लगे उस कर्म को कभी नहीं करना चाहिए। जैसा कोई व्यक्ति शराब पीता है, लेकिन शराब जब पीने को होता है तो उसे अंदर से एक आवाज आती है कि यह खराब है, इससे न तुम्हारा हित नहीं बल्कि बहुत बड़ा अहित होगा। लेकिन शराबी इस आवाज को अनसुना कर शराब पीने लगता है। फिर आगे उसकी क्या गति होती है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह हर गलत कर्म करने वाले को परमात्मा सचेत करता है, लेकिन भोग की आसक्ति के कारण वह अनसुना कर दुराचार में लिप्त हो जाता है। इसलिए कोई कर्म करने के पहले हमें विचार अवश्य कर लेना चाहिए कि जो कर्म वह करने जा रहा है, वह धर्म संगत है या अधर्म। जाहिर है अंदर से जो आवाज आती है, वह आत्मा में परमात्मा की होती है। यही वेद-शास्त्रों में कहा गया है। सृष्टि का नियम है हम जितने अंश में उत्तम या अधम कर्म करते हैं हमें उतने अंश में सुख या दुख प्राप्त होता है। हां, सुख-दुख जरूरी नहीं है कि तुरंत प्राप्त हो जाए। इस लिए बहुत से लोग पाप कर्म करके भी जब सुख भोगते हम देखते हैं तो यह भ्रम हो जाता है कि अच्छाई और बुराई का या सुख अथवा दुख का कर्मों से कोई रिश्ता नहीं है। अब तो विज्ञान भी यह मानने लगा है कि हमारी प्रवृति या कर्म जिस तरह के होते हैं हमें उसी प्रकार के परिणाम भी प्राप्त होते हैं। यह धर्म और शास्त्र सम्मत तो है ही, तर्क सम्मत भी है। एक महत्त्वपूर्ण बात और समझने की है। वह है हमारी सोच से संबंधित। मनोविज्ञान मानता है कि इंसान जितना सकारात्मक सोचता है उसकी प्रवृति उसी अनुपात में सकारात्मक होती जाती है। और जितने अनुपात में ऋणात्मक सोचता है उतने अनुपात में उसकी प्रवृति ऋणात्मक होती जाती है। और ऋणात्मक सोचने वाला इंसान हमेशा तनाव और तमाम तरह के दुखों से हमेशा ग्रासित रहता है। साथ ही ऐसे व्यक्ति ही आत्महत्या और दूसरों का अहित करने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं।

प्राकृति की गोद में इंसान अपने अनुसार सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है। लेकिन यह सम्भव नहीं है। सृष्टि का विधान यह है कि हम वैसा बने, वैसा कर्म करें और वैसा जीवन बिताएं जो अपने अनुकूल तो हो ही, सृष्टि, समाज और सृष्टि के हर प्राणी के अनुकूल हो। सृष्टि के विधान का उल्लंघन करके हम अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारते हैं। और जो अपना और सृष्टि-दोनों का हित नहीं चाहता है वह कभी भी वास्तविक सुख को हासिल नहीं कर सकता है। इस विधान को हम समझ जाएं तो हम तमाम अनर्थों से तो बचेंगे ही, दूसरों और प्रकृति का अहित करने से बच जाएंगे।

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