ईश्वर का ध्यान व उपासना तथा मूर्तिपूजा

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ईश्वर व मनुष्य में क्या अन्तर है? यह प्रश्न आपको अनुपयुक्त सा लग सकता है परन्तु प्रश्न तो प्रश्न है। हम इसका उत्तर देने का प्रयास करते हैं। ईश्वर वह है जो जीवात्माओं के सुख व दुःखों के भोग के लिए सत्व, रज व तम गुण से युक्त सूक्ष्म जड़ प्रकृति के द्वारा इस दृश्यमान सृष्टि को बनाता है। ईश्वर ने यह सृष्टि अल्पज्ञ, एकदेशी, चेतन जीवात्माओं के लिए बनाई है। उसका अपना क्या कोई प्रयोजन इस सृष्टि को इस सृष्टि के बनाने व चलाने में दृष्टिगोचर नहीं होता। एक और प्रश्न लेते हैं कि जीवात्मा क्या है? इसका उत्तर बनाने में है? वैदिक साहित्य सहित युक्ति व तर्क द्वारा विचार करने पर ईश्वर का अपना निजी कोई प्रयोजन है जीवात्मा एक ज्ञान ग्रहण करने व कर्म करने वाली अल्पज्ञ, सूक्ष्म, एकदेशी व ससीम चेतन सत्ता का नाम है। इस जीवात्मा के सुख व मुक्ति के लिए ही ईश्वर ने अपने ज्ञान व बल की पराकाष्ठा, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता, से इस सृष्टि को बनाया है जिससे सभी जीवात्मायें अपने अपने पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के फलों का भोग कर सके। हमने वैदिक व अन्य मतों के सिद्धान्तों को जानने व समझने का प्रयास किया है। अनेक दशकों के अध्ययन व युक्ति व तर्क के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वैदिक साहित्य से पुष्ट यह उत्तर सत्य व अकाट्य सिद्धान्त है।  इन्हीं सिद्धान्तों पर वैदिक विचारधारा आधारित हैं।

 

जीवात्मा के स्वरुप का विचार करने पर यह एक सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ चेतन पदार्थ विदित होता है जो ज्ञान व कर्म की सामथ्र्य से युक्त अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, मनुष्यादि योनियों में जन्म लेकर शुभाशुभ कर्म करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला हैं। जीवात्मा में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी इच्छा से किसी योनि में बिना ईश्वर की सहायता व कृपा के स्वयं जन्म ले सके। जीवात्मा के दो जीवनों के बीच एक मृत्यु अवश्य आती है। मृत्यु होने के बाद व जन्म लेने से पूर्व यह प्रायः सुषुप्ति अवस्था अर्थात् निद्रा जैसी निष्क्रिय अवस्था में रहता है। यदि ईश्वर इसको इसके कर्मानुसार जन्म न दे तो इसका अस्तित्व होकर भी यह अनुपयोगी वा निष्क्रिय ही रहेगा। ईश्वर द्वारा जन्म मिल जाने पर यह मनुष्यादि योनियों में कर्मों को करता भी है व पूर्वकृत प्रारब्ध व क्रियमाण कर्मों के फलों को भोगता हुआ सुख दुःख पाता है और इसका अस्तित्व सार्थक बन जाता है। जीव की सार्थकता ईश्वर से जन्म मिलने व इसके पाप-पुण्यरूपी फलों का भोग सुख दुःख रूप में मिलने से ही होती है।

 

ईश्वर का स्वरुप कैसा है? इसका उत्तर है कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप है। इसके प्रमुख गुणों इसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता होना सम्मिलित है। ईश्वर के यह कुछ गुण भी ईश्वर का स्वरुप प्रकाशित करते है। आनन्द की पराकाष्ठा ईश्वर का निजी स्वरुप व गुण है जो उसमें सदा-सर्वदा से है और रहेगा, अतः उसे किसी भौतिक पदार्थ व जीवों से किसी वस्तु, स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि की अपेक्षा नहीं है। ईश्वर अपने बिना किसी निजी प्रयोजन के जीवों के कल्याणार्थ इस विशाल ब्रह्माण्ड वा सृष्टि को बनाता है और जीवों के पूर्व जन्मों के कर्मानुसार उन्हें भिन्न भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देता है जिससे वह अपने अपने कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोग सकें।

 

जीवात्मा और ईश्वर का स्वरुप विदित हो जाने पर अब हमें अर्थात् जीवात्मा को अपनी उन्नति व सुखों की वृद्धि के लिए अपना कर्तव्य निर्धारित करना है। वह क्या-क्या कार्य करें जिससे उनके सभी दुःखों का पराभव और सद्गुणों व सुखों की अभिवृद्धि हो? इसका एक सरल उत्तर तो यह है कि उसे सदैव ईश्वर के प्रति आभारी व कृतज्ञ होना चाहिये और मनुष्य जन्म देने के लिए उसकी प्रशंसा, स्तुति, धन्यवाद, आभार व कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। इन कार्यों को करने का नाम ही स्तुति-प्रार्थना-उपासना वा ईश्वर की पूजा है। जो व्यक्ति भलीप्रकार से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि के द्वारा उसका आभार व धन्यवाद कर कृतज्ञ होता है वह कर्तव्यापालक और जो नहीं करता वह अविवेकी, मूर्ख, भ्रष्ट, अज्ञानी, स्वार्थी, अहंकारी व कृतघ्न होता व कहलाता है। ईश्वर की स्तुति आदि को कर्तव्य समझ लेने के बाद अन्य कर्तव्यों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। दूसरा प्रमुख कर्तव्य है कि हम मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध अन्न व शुद्ध व स्वच्छ पृथिवी वा पर्यावरण की आवश्यकता है। यदि वायु व जल सहित हमारा पर्यावरण शुद्ध, स्वच्छ व पवित्र नहीं होगा तो हमारे सुखों में बाधा आयेगी और हमारा जीवन अनेक रोगों से ग्रस्त होकर दुःखी हो जायेगा जिससे हम ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि सहित जीवन के अन्य निजी कार्यों का सम्पादन भी न कर पाने के कारण अधोगति व अवनति को प्राप्त होंगे। ईश्वर ने वेदों के द्वारा अग्निहोत्र करने की आज्ञा भी प्रदान की है जिसको जानकर हमारे ऋषियों ने अग्निहोत्र से अश्वमेध यज्ञ पर्यन्त यज्ञों का विधान किया है। इसके अतिरिक्त गोपालन, अन्य उपयोगी पशुओं का पालन, कृषि जिससे शुद्ध, पवित्र व बल-शक्ति से युक्त अन्न व फल आदि प्राप्त हो सकें आदि कार्यों को करना भी हमारा कर्तव्य सिद्ध होता है। मनुष्य को अज्ञानयुक्त कर्मों का त्याग कर विद्यायुक्त कर्मों को ही करना चाहिये। उसे विद्या व विज्ञान को उन्नत कर अपने उपयोग की सभी वस्तुओं का निर्माण कर सुख को सम्पादित करना चाहिये। मध्यकाल की दृष्टि से आधुनिक समय में इस दिशा में कुछ उन्नति अवश्य हुई है परन्तु लक्ष्य प्राप्ति से संसार की समग्र मनुष्य जाति अभी कोसों दूर है।

 

हमने ईश्वरोपासना सहित मनुष्य के कुछ प्रमुख कर्तव्यों की संक्षिप्त चर्चा की है। ईश्वर की कृपाओं के प्रति उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर उसका धन्यवाद करना ही ईश्वरोपासना है। हम देख रहे हैं कि मध्यकाल में ईश्वर उपासना का रूप विकृत होकर मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया और निराकार ईश्वर के ध्यान, चिन्तन तथा वैदिक प्रार्थनाओं से उसकी स्तुति आदि का स्थान मूर्तिपूजा ने ले लिया। मूर्तिपूजा वस्तुतः है क्या? मूर्तिपूजा निराकार ईश्वर को साकार मानने की एक मिथ्या कल्पना है। ईश्वर का स्वरूप अर्थात् निराकार व सर्वव्यापक आदि होना तो कभी बदलता नहीं, वह अपने मूल स्वरूप में ही सदा सर्वदा विद्यमान रहता है, परन्तु मनुष्यों ने मध्यकाल में अपने अज्ञान के कारण ईश्वर की स्थानापन्न मूर्तिपूजा का प्रचलन किया। मूर्तिपूजा में हम देखते हैं कि पाषाण, धातु व काष्ठ की मूर्तियां भिन्न-भिन्न मनुष्य, महापुरुषों व पशुओं की आकृतियों की बनाई जाती हैं। उनमें से कुछ को भवन व मन्दिर बना कर उसमें रखा जाता है। कुछ वेद व अन्य ग्रन्थों के मन्त्रों का पाठ कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा का नाम दे दिया जाता है। यह सब कर्मकाण्ड कर दिया जाता है और मूर्ति के आगे हाथ जोड़ कर खड़े होने या मनुष्य रचित कुछ पद्यों व गीतों को गाकर या फिर मूर्ति के आगे कुछ घूप व अगरबत्ती जला कर उसे घुमान व हिलाने-डुलाने को ही मूर्तिपूजा कहा जाता है। मूर्तिपूजा करने वाले कभी यह विचार नहीं करते कि उनके इस कृत्य से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर प्रसन्न व सन्तुष्ट होता है या नहीं? कहीं असन्तुष्ट व अप्रसन्न तो नहीं होता, यह विचार ही मुर्तिपूजा करने वाले नहीं करते। हमारे प्राचीन ऋषि व विद्वान जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती भी सम्मिलित हैं, इस मूर्तिपूजा से किसी प्रकार का लाभ नहीं मानते, अपितु इससे मूर्तिपूजा करने वालों को अनेक प्रकार की हानि ही होती है। ऐसा स्वामी दयानन्द का मत था जो कि अनेक प्रमाणों से पुष्ट है। मूर्तिपूजा पाषाण, धातु व काष्ठ से बनी हुई प्रतिमाओं की ही की जाती है जो कि जड़, भाव व संवेदनाशून्य हैं। जड़ पदार्थों में किसी भी प्रकार से सुख व दुःखी व प्रसन्न होना नहीं घटता। वह तो अपनी रक्षा तक भी नहीं कर सकती। जहां तक प्राण-प्रतिष्ठा की बात है, ऐसा करना व यह मानता कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है, मानवीय बुद्धि का एक अज्ञानमूलक हास्यापद पहलू है। यही कारण है कि यवनों ने हमारे देश में सोमनाथ मन्दिर सहित सहस्रों मन्दिरों व मूर्तियों को भ्रष्ट किया परन्तु कोई मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर सकी। हमारी पराधीनता का एक प्रमुख कारण भी मूर्तिपूजा व मूर्तियों से किन्हीं शुभ परिणामों की अपेक्षायें ही था जो कि कभी पूरी नहीं र्हुइं। अतः यदि ईश्वर की पूजा करनी है तो वह केवल वेदाध्ययन, वेदानुकूल शास्त्रों का अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय आदि के अध्ययन सहित मुख्यतः योगदर्शन के अध्ययन व उसके अनुसार ईश्वर के ध्यान व समाधि के अभ्यास व प्रयत्नों से ही की जा सकती है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि मूर्तिपूजा से मनुष्य जीवन की उन्नति नहीं अपितु अवनति ही होती है। मूर्तिपूजा से हमारे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष भी प्राप्त होने के स्थान पर हम उनसे दूर हो जाते हैं। अतः हमारे सभी मूर्तिपूजा करने वाले बन्धुओं को निष्पक्ष भाव से महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन का अध्ययन करना चाहिये और उनके द्वारा निर्दिष्ट यम, नियमों का पालन, आसन व प्राणायाम का सेवन तथा प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास कर ईश्वर का साक्षात करने का प्रयास करना चाहिये। यही वस्तुत व यथार्थतः ईश्वर की पूजा है। मूर्तिपूजा ईश्वर की पूजा नहीं है, पाठक इस पर विचार करें। कहीं ऐसा न हो कि उपासना व पूजा सम्बन्धी किसी अपने गलत निर्णय के कारण हमें इस जन्म व जन्मान्तरों में भारी हानि उठानी पड़े। मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में यह भी ध्यातव्य है कि माता-पिता-आचार्य-विद्वान आदि हमारे मूर्तिमान देव हैं। इनका आदर, सेवा-सत्कार व सहायता सदा करनी चाहिये, यही यथार्थ मूर्तिपूजा का वैदिक स्वरूप है। फलित ज्योतिष भी मनुष्य की अवनति का कारण बनता है। अतः इससे भी सभी को बचना चाहिये। फलित ज्योतिष लेख का विषय न होने के कारण इस पर विस्तार से विचार नहीं कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि ईश्वर का ध्यान व उपासना सहित मूर्तिपूजा पर प्रस्तुत इस लेख में विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे। यह लेख सबके कल्याण की भावना से महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर प्रस्तुत किया है। शास्त्रों में यह बताया गया है कि जो परिणाम में लाभदायक बातें होती है वह आरम्भ में विष के समान दिखाई देती हैं परन्तु विवेकशील लोग इस सत्य को जानने के कारण परिणाम में इष्ट सिद्धि दिलाने वाली बातों का ही आचरण करते हैं।

 

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