ईश्वर को जानना, उसके स्वरूप व गुणों का चिन्तन मनन तथा ध्यान तथा सदाचरण ही उपासना है

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य मननशील प्राणी है। मनन का अर्थ सत्य व असत्य का विचार व निर्णय करना है। इसके लिए हमें चिन्त्य विषय का अध्ययन करना होता है। इसके लिए हमारे शास्त्र या फिर आजकल के लौकिक विषयों की अनेक पुस्तकें व ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अनुभवी विद्वानों से भी विचारणीय विषय के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। विचार व मनन करने पर संसार में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति यह तीन महत्वपूर्ण पदार्थ ज्ञात होते हैं। इन्हें जानना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। ज्ञान भी दो प्रकार का कहा जा सकता है। एक सद्ज्ञान व दूसरा मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान को अविद्या भी कह सकते हैं। आजकल ईश्वर के स्वरूप के विषय में संसार व अपने देश के अधिकांश लोग अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त है। ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान हमें वेदों व वेदानुकूल ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। वेद संस्कृत में हैं। वेदों की संस्कृत लौकिक संस्कृत न होकर एक विशिष्ट संस्कृत है जो ईश्वर की अपनी भाषा है। इसी भाषा में ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ काल में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। ईश्वर से वेदों का ज्ञान मिलने के बाद कुछ काल बाद लिपि व व्याकरण आदि का ज्ञान ऋषियों ने रचा और वेदों को लिपिबद्ध किया। तभी से अर्थात् सृष्टि के आरम्भ से ही वेदाध्ययन व वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हो गई थी। किसी भी भाषा को जानने के लिए उसके शब्दों का अर्थ व उसका व्याकरण आना चाहिये। इसके लिए ऋषियों व विद्वानों के समुचित ग्रन्थ उपलब्घ हैं जिसका अध्ययन कर वेद व ऋषियों के बनाये इतर शास्त्रों को जाना जा सकता है। इससे ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित जीवात्मा और सृष्टि का भी यथोचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

 

ईश्वर के सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए सबसे सरल उपाय सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन है। सत्यार्थप्रकाश ऋषि दयानन्द की विश्व प्रसिद्ध कृति है। इसमें ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित ईश्वर से संबंधित सभी प्रकार की शंकाओं व प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। ऋषि दयानन्द के अन्य ग्रन्थों पंचमहायज्ञविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय एवं संस्कारविधि आदि का अध्ययन व अभ्यास कर भी ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर के स्वरूप पर दृष्टि डालें तो आर्यसमाज के दूसरे नियम से इसका ज्ञान हो जाता है। इस नियम में ईश्वर का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। यही ईश्वर का सत्यस्वरूप है। ईश्वर जीवों के कर्मानुसार फल प्रदाता होने सहित मृत्यु के समय बचे मनुष्य के अभुक्त कर्मों के आधार पर मनुष्य का अगला जन्म, जाति, आयु व भोग भी प्रदान करता है। जीवात्मा पर दृष्टि डालें तो जीवात्मा एक सत् व चित्त स्वरूप वाली सूक्ष्म सत्ता है। यह आनन्द से रहित है। यह अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान्, एकदेशी, ससीम, कर्मानुसार ईश्वर की कृपा से जन्म-मरण प्राप्त करने वाली, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर स्वरूप वाली भी है। प्रकृति अत्यन्त सूक्ष्म सत्व, रज व तम गुणों वाली है। इनकी साम्यावस्था ही प्रकृति कहलाती है। इस कारण प्रकृति के विकार से ही परमात्मा स्थूल पंच भौतिक पदार्थों की रचना व सृष्टि की उत्पत्ति करतर है। अतः वेदों सहित दर्शन व उपनिषदों आदि का स्वाध्याय कर ईश्वर, जीव व सृष्टि के सत्य व शुद्ध स्वरूप को जानाना भी ईश्वर की उपासना के अन्तर्गत ही आता है। यदि यह ज्ञान न हुआ तो मनुष्य द्वारा की जाने वाली उपासना सफल नहीं हो सकती है।

 

ईश्वर के गुणों का ज्ञान प्राप्त करने का प्राचीन उपाय तो वेद व उपनिषद आदि ग्रन्थ ही हैं परन्तु वर्तमान में इनकी आंशिक व अधिकांश पूर्ति सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों से भी हो जाती है। इसके साथ ही वेद व वेदभाष्य का अध्ययन कर भी अनन्त गुणों वाले ईश्वर के अनेकानेक गुणों का ज्ञान प्राप्त होता है। कुछ व अनेक गुण तो आर्यसमाज के दूसरे नियम में आ ही गये हैं जिनका उल्लेख ईश्वर के स्वरूप की चर्चा में किया गया है। ऐसे अनेक गुणों का वर्णन ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों व वेदभाष्य के स्वाध्याय करने पर मिलता है। आर्याभिविनय में प्रथम मंत्र के व्याख्यान में आये ईश्वर के कुछ गुणों पर दृष्टि डालते हैं। कुछ गुण हैं सच्चिदानन्दान्तरस्वरूप, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, अज, निराकार, सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, करुणाकरास्मत्पितः, परमसहायक, सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, अविद्यान्धकारनिर्मूलक, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार आदि। ऐसे अनेक गुण आर्याभिविनय के प्रथम मन्त्र में दिये हैं जिन्हें पुस्तक में देखना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ का अध्ययन कर मनुष्य को ईश्वर के अधिकांश वा पर्याप्त गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। उपासना में इनका विचार, चिन्तन, मनन व ध्यान ही उपासना कहलाता है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर इनका मनन व ध्यान करना, उसकी स्तुति करना व उससे प्रार्थना करना भी ईश्वर की उपासना के अन्तर्गत है। इससे मनुष्य की ईश्वर से निकटता होकर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार मनुष्य के गुणकर्मस्वभाव आदि भी बन जाते हैं। आत्मा का बल भी बढ़ता है। वह पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी घबराता नहीं है। महर्षि दयानन्द का सम्पूर्ण जीवन इसका जीता जागता उदाहरण है। इसके लिए महर्षि दयानन्द जी के पं. लेखराम जी, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय और स्वामी सत्यानन्द जी लिखित जीवन चरितों को पढ़ना चाहिये। इसके बाद अन्य लेखकों के जीवन चरितों को भी पढ़ना चाहिये जिससे मनुष्य जीवन जीने की कला जानी व सीखी जा सकती है।

 

यह सब कुछ करने के बाद भी मनुष्य का ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप अपना जीवन बनाना और वैसा ही आचरण करना आवश्यक है। जो ऐसा करते हैं वह सच्चे उपासक होते हैं। इससे इतर तो दिखावे के भक्त व उपासक कहे जा सकते हैं। यही कारण है कि संसार में सच्चे उपासक बहुत ही कम हैं। अधिकांश उपासक बनावटी व दिखावटी अर्थात् छद्म उपासक ही हैं। यदि मनुष्य ईश्वर व आत्मा के स्वरूप को जान ले और ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अपना आचरण बना ले, तो वह सफल मनुष्य वा सच्चा उपासक बन जाता है। उपासना की सफलता पर समाधि का लाभ प्राप्त होता है। समाधि लाभ से ईश्वर साक्षात्कार और विवेक की उत्पत्ति होती है। उपासक जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है और जब उसके अधिकांश भोग समाप्त होने पर मृत्यु आती है तो वह जन्म व मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। जहां वह ईश्वर के साथ रहकर सुख व आनन्द को भोगता है और पूरे ब्रह्माण्ड में अव्याहत् गति करता है। मोक्ष में विचर रही अन्य मुक्तात्माओं से भी मिलता व संवाद करता है। यही जीवन की अन्तिम व प्रमुख उपलब्धि होती है। जिसे यह प्राप्त हो गई, उसका जीवन सफल होता है और वह सबसे अधिक सन्तुष्ट व सुखों को प्राप्त जीवात्मा होती है। हमने ईश्वर उपासना का मुख्य रूप से वर्णन किया है। हम आशा करते हैं कि नये पाठकों को इससे कुछ लाभ हो सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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