ऋषि दयानन्द की ईश्वर से स्वराज्य, साम्राज्य व चक्रवर्ती राज्य की प्राप्ति की प्रार्थना व चर्चा

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मनमोहन कुमार आर्य

ऋषि दयानन्द ने अपने साहित्य में अनेक स्थानों पर ‘साम्राज्य’ व ‘चक्रवर्ती-राज्य’ की ईश्वर से प्रार्थना व मांग की है। राज्य वह होता है जिस पर किसी राजा व राज्याधिकारी का शासन व नियंत्रण होता है। यदि कई राज्यों को मिला दिया जाये तो उसे एक देश विशेष कह सकते हैं। ऐसे अनेक देशों के समूह जिन पर किसी एक देश का शासन व अधिकार हो, एसे साम्राज्य कहा जाता व कहा जा सकता है। संसार को हम अनेक राज्य व देशों का समूह मानते हैं। सभी राष्ट्रों व राज्यों से मिलकर विश्व राज्य व संयुक्त राष्ट्र बनाया गया है। अतीत में इस प्रकार का संयुक्त राष्ट्र न होकर पूरे विश्व में किसी एक देश के राजा का राज्य होता था। अन्य राज्य माण्डलिक राज्य होते थे। इन सभी माण्डलिक व क्षेत्रीय राज्यों से मिलकर ही चक्रवर्ती राज्य व साम्राज्य हुआ करता होगा, अथवा महाभारत काल तक आर्यावर्तीय देशीय राजाओं का पूरे विश्व पर एकमात्र अखण्ड सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य था, ऐसा ऋषि दयानन्द जी की साक्षी से विदित होता है। महर्षि दयानन्द लगभग 154 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय जीवन में सक्रिय हुए थे। उन्होंने भारत वर्ष में घूम-घूम कर योग विद्या सीखने के साथ सर्वत्र उपलब्ध हस्तलिखित व मुद्रित संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ा था। सन् 1860 से सन् 1863 तक उन्होंने मथुरा में गुरु विरजानन्द सरस्वती से आर्ष संस्कृत व्याकरण पढ़ा और उसके आधार पर अनेक प्राचीन संस्कृत भाषा के ग्रन्थों व पाण्डुलिपियों का अवलोकन व अध्ययन किया।

 

कुछ समय बाद उन्होंने वेद प्राप्त किये और उनका भी अध्ययन किया। आर्ष संस्कृत व्याकरण, वेदांग, उपांग और वेदों का अध्ययन कर वह वेदों के अपूर्व विद्वान बने थे। उन्होंने अपनी ऊहा व अध्ययन से वेदों को न केवल ईश्वरीय ज्ञान जाना अपितु उनकी परीक्षा कर उसे सत्य भी पाया था। यही कारण था कि उन्होंने अधिकारपूर्वक घोषणा की थी कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ाना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (मनुष्यों) का परम धर्म है।’ परमधर्म पर विचार करते हुए हमें लगता है कि जिस प्रकार कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट शब्दों का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार से धर्म व परमधर्म का भी प्रयोग किया जाता है। धर्म में ऋषि मुनियों व विद्वानों की अपनी बुद्धि के अनुसार मनुष्यों के लिए निर्धारित कर्तव्य विषयक सत्य मान्यताओं को ले सकते हैं परन्तु सुप्रीम धर्म वा परमधर्म में तो जो मान्यतायें व विधान वेदों में हैं, वह ईश्वरीय, सृष्टिकर्ता, सृष्टिपालनकर्ता की ओर से होने से प्रत्येक मनुष्य को हर स्थिति में मानने अनिवार्य हैं। उसमें सन्देह, किन्तु-परन्तु या आशंका नहीं की जा सकती। यह दुःख व खेद का विषय है कि आज के लोगों ने सांसारिक अल्पज्ञ व्यक्तियों के ग्रन्थों को तो मान्यतायें दे रखी हैं और उसे ही आदर्श मानकर आचरण भी करते हैं, परन्तु ईश्वरीय ज्ञान वेद की उपेक्षा की जाती है।

 

यही मनुष्य समाज, देश व विश्व की समस्याओं का प्रमुख कारण हैं। प्रायः ऐसा होता है कि मनुष्य पर्वत पर चढ़ रहा हो, उसका पैर फिसल जाये व असावधानी के कारण वह गिर पड़े, उसे चोंटें भी लग सकती हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह मंजिल पर पहुंचने का पुनः प्रयास ही न करे। ऐसा ही महाभारतकाल में हुआ। युद्ध के कारण हमारे बहुत से विद्वान व शासक मारे गये। विद्या व वेद-धर्म का अध्ययन व अध्यापन तथा प्रचार-प्रसार बन्द हो गया। लोग वेदों से दूर हो गये। मिथ्या-विश्वास व अन्ध-विश्वास समाज में प्रचलित हो गये। तब हमारे पूर्वजों का कर्तव्य था कि हम पुराने सत्य वेद-मार्ग को पकड़ते परन्तु किन्हीं कारणों से देर हो गई और इस बीच मिथ्या-विश्वास बढ़ते रहे। यह कारण बनें भावी मिथ्या विश्वासों में वृद्धि व वाममार्ग सहित बौद्ध, जैनमत, पौराणिक मत व देश के अनेक भागों में अनेक मत-मतान्तरों के प्रचलन होने के। इसके बाद गुजरात में फरवरी, 1825 में मूलशंकर नामी एक बालक का जन्म होता है। शिवरात्रि के दिन उन्हें बोध होता है, वह सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न शील होते हैं और 24 वर्षों की खोज, अनुसंधान व साधना से वह सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं और ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के कारण व कार्य रूप को जानकर निर्भ्रान्त हो जाते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी ने सन् 1863 के बाद के अपने सामाजिक व व्यस्त जीवन में 16 नवम्बर, सन् 1869 को काशी के 30 से अधिक विद्वानों के साथ अकेले शास्त्रार्थ कर उन्हें मूर्तिपूजा विषयक वेद का प्रमाण देने को हा था परन्तु व उसका उत्तर नहीं दे सके थे। बाद में उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। आर्याभिविनय में ऋषि दयानन्द ने अनेक स्थानों पर स्वराज्य, साम्राज्य व चक्रवर्ती राज्य आदि शब्दों का प्रयोग किया है। यह बता दें कि आर्याभिविनय ऋषि दयानन्द जी की ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना की पुस्तक है। इस पुस्तक में दिया गया 18 वां मन्त्र ऋग्वेद का 1/6/17/1 मन्त्र है। मन्त्र है ‘‘ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो जनयतु विद्वान्। अर्यमा देवैः सजोषाः।।” इस मन्त्र का अर्थ करते हुए ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के लिए महाराजाधिराज परमेश्वर सहित चक्रवर्ती राजाओं की नीति, हमें आज ही साम्राज्याधिकारी कीजिए और हम पर कृपा करें जिससे सुनीति से युक्त हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े। ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ का प्रणयन सन् 1876 में किया था। उन दिनों न तो कांग्रेस का अस्तित्व था और न किसी अन्य राजनैतिक दल का। कांग्रेस की स्थापना सन् 1885 में की गई थी जिसका उद्देश्य अंग्र्रेजों को प्रसन्न रखते हुए उनसे कुछ अधिकार प्राप्त करना था। आजादी प्राप्त करना उस समय कांग्रेस का उद्देश्य नहीं था। न ही इससे पूर्व, अर्थात् सन् 1876 से पूर्व, किसी व्यक्ति ने स्वराज्य, साम्राज्य और चक्रवर्ती साम्राज्य शब्दों का प्रयोग किया था। ऋषि दयानन्द इन राजधर्म व राजनीति से जुड़े शब्दों का प्रयोग करने वाले परतन्त्रता के उस काल में पहले व्यक्ति थे। इसलिए यह मानना होगा कि स्वराज्य व सामा्रज्य व चक्रवर्ती राज्य आदि शब्द व इनका प्रयोग उन्हीं की देन है। दूसरी बात यह है कि उन्होंने किस प्रयोजन के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है? इसका उत्तर है कि वह ईश्वर से प्रार्थना करते हुए स्वराज्य आदि की प्राप्ति की कामना करते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि मनुष्य ईश्वर से जो प्रार्थना करता है, उसे उसके अनुरूप प्रयत्न व कार्य भी करना चाहिये तो देर सवेर ईश्वर उस प्रार्थना को पूरी करते हैं। आर्याभिविनय में स्वराज्य आदि शब्दों के प्रयोग का प्रयोजन स्वराज्य की प्राप्ति करना ही प्रतीत होता है। अतः परतन्त्रता समाप्त कर स्वराज्य की बात सबसे पहले करने वाले प्रथम महापुरुष कोई और नहीं अपितु केवल स्वामी दयानन्द सरस्वती ही थे, यह स्पष्ट होता है।

 

उपर्युक्त वेद मन्त्र का जो रहस्य स्वामी जी ने आर्याभिविनय पुस्तक में दिया है उसके अनुसार ऋषि दयानन्द ईश्वर को महाराजाधिराज परमेश्वर के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह भी स्वामी दयानन्द द्वारा धर्म व साहित्य के क्षेत्र में परमात्मा को इस प्रकार से सम्बोधित करने की प्रथम घटना है। वह परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि आप हमें चक्रवर्ती राजाओं की सरल व कोमलत्व आदि विशिष्ट गुणों वाली नीति अपनी कृपा दृष्टि से प्रदान करो। इस मन्त्र की व्याख्या में वह ईश्वर को सर्वोत्कृष्ट बताते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि अंग्रेंज राज्याधिकारी सर्वश्रेष्ठ नहीं हैं अपितु उनसे भी श्रेष्ठ परमेश्वर है। ईश्वर से हमें वर-राज्य (श्रेष्ठ राज्य), वरविद्या (श्रेष्ठ व सर्वोत्तम विद्या) तथा वरनीति (श्रेष्ठ राजनीति जिससे परतन्त्रता दूर होकर और स्वराज्य स्थापित हो) की भी वह इस मन्त्र में प्रार्थना कर रहे हैं। ईश्वर को वह शत्रुता से रहित सबका मित्र बताते हैं और प्रार्थना करते हैं कि हमें भी अपने समान मित्र के गुणों से युक्त न्यायाधीश बनाईये। ईश्वर को वह सर्वोत्कृष्ट विद्वान बताकर उनसे वह देशवासियों को सत्य विद्या से युक्त श्रेष्ठ व सुन्दर नीति देने और उन्हें साम्राज्याधिकारी सद्यः (आज ही) करने की प्रार्थना व मांग करते हैं। ईश्वर को वह प्रिय व अप्रिय मनुष्य व भकतों में अन्तर न कर न्याय से सब जीवों के पाप और पुण्यों की यथायोग्य व्यवस्था करने वाला बताते हुए कहते हैं कि हमें भी अपने जैसा बनाईये।

 

उनके अनुसार ईश्वर स्वतन्त्र व स्वावलम्बी है। ईश्वर से अपने जैसा बनाने की प्रार्थना का अर्थ यह भी है कि हमें भी अपने जैसा स्वतन्त्र व स्वावलम्बी बनाईये। इस मन्त्र में यह भी प्रार्थना की गई है कि हम दिव्य गुण वाले विद्वानों के प्रति उत्तम प्रीति से युक्त हों, आपमें रमण अर्थात् आपकी स्तुति प्रार्थना व उपासना में रत रहें और आपके ही सभी गुणों का सेवन करने वाले हों। अन्तिम वाक्य यह कहते हैं कि हे कृपा सिन्धों भगवन! हमें अपनी तरह से सुनीतियुक्त करें जिससे हमारा स्वराज्य अर्थात् भारत देश स्वराज्य की अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हो। इस एक ही वेदमन्त्र में स्वामी जी ने अंग्रेजों की दासता से देश को स्वतन्त्र कराने का सन्देश दिया है और अपने अनुयायियों को स्वराज्य प्राप्ति व तत्पश्चात चक्रवती राज्य वा साम्राज्य की प्राप्ति के लिए तैयार करते हुए प्रतीत होते हैं। हमें स्वामी जी के ऐसे विचारों को पढ़कर आश्चर्य होता है। उनके पूर्व व पश्चात किसी धार्मिक नेता ने ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया। अतः देश की आजादी में स्वामी दयानन्द की भूमिका एक आचार्य व प्रथम नेता की है। वह न केवल अकेले देश की आजादी के शीर्ष नेता थे अपितु उनके दो प्रमुख शिष्य श्यामजी कृष्ण वर्मा और महादेव गोविन्द रानाडे क्रान्तिकारियों व अहिंसक क्रान्ति के नेताओं के अग्रणीय व मान्य प्रथम गुरु थे।

 

स्वामी जी ने जो कार्य आरम्भ किया था उसमें उनके शिष्यों व अनुयायियों सहित अन्यों ने भी आहुतियां दी हैं। देश को आंशिक वा खण्डित आजादी मिली है। अभी उनके साम्राज्य व चक्रवर्ती राज्य के स्वप्नों को उनके शिष्यों को पूरा करना है। उनके शिष्यों को यह स्मरण रखना चाहिये कि आर्यसमाज एक धार्मिक, सामाजिक संस्था होने के साथ राष्ट्रीय संस्था भी है। आर्यसमाज का काम है कि वह देश को वेद व वैदिक राजधर्म की नीतियों के अनुरूप जाग्रत करती रहे व समय समय पर इस प्रकार के आन्दोलन भी करती रहे। केवल आर्यसमाज मन्दिर में सत्संग तक आर्यसमाज को सीमित रखना ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों के अनुरूप नहीं है। आर्यसमाज को पहले अपनी अन्दरूनी संगठनात्मक कमजोरियों को दूर करना चाहिये और उसके बाद धर्म प्रचार के साथ साथ राष्ट्र धर्म का प्रचार भी करना चाहिये। देश हित में काम करने वाले राजनीतिक दलों व उनकी नीतियों के अनुसार देशहित करने वाले दलों का ही समर्थन करना चाहिये भले ही उससे किसी राजनीतिक दल को बुरा ही क्यों न लगता हो और उस दल से हमारा कुछ कुछ सैद्धान्तिक मतभेद भी हो। एक वर्ग विशेष का तुष्टिकरण व वोट बैंक की राजनीति करने वालों का खुल कर विरोध भी करना चाहिये। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमें लगता है भविष्य में हमारी सन्तत्तियों को कष्ट झेलने होंगे। हमारी वर्तमान की निष्क्रियता भविष्य में हमारे लिए घातक हो सकती है। हमें उन लोगों व नेताओं से भी सावधान रहना चाहिये जो आर्यसमाज में रहकर किन्हीं राजनीतिक दलों व विदेशियों के लिए काम कर रहे हों। इसके प्रति भी सतर्क रहने की आवश्यकता है।

 

हमें लगता है कि ऋषि दयानन्द सच्चे राष्ट्र पुरुष थे। उन्होंने ही देश में आजादी का मन्त्र दिया था। देश की आजादी का सबसे अधिक श्रेय हमारी दृष्टि में ऋषि दयानन्द जी को ही है। ‘वैदिक पथ’ आर्यजगत् की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका है। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री इसके सम्पादक हैं। इस पत्रिका ने फरवरी-मार्च, 2017 तथा अप्रैल-मई, 2017 में दो विशेषांक प्रकाशित किये हैं जिनके विषय ‘राष्ट्र-धर्म’ और ‘राष्ट्रवादी दयानन्द’ हैं। इन ग्रन्थों के लेखक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान और देश की आजादी के जुझारू आर्य सत्याग्रही विद्वान् पं. सत्यदेव विद्यालंकार हैं। राष्ट्रधर्म और ऋषि दयानन्द की राष्ट्रवादिता पर इन ग्रंथों में प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ आर्यसमाज के विद्वानों के लिए पठनीय है। इन्हें पढ़कर ऋषि दयानन्द के राष्ट्रवादी स्वरूप को जाना जा सकता है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

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