इसका, उसका, किसका मीडिया

0
223

संजय स्वदेश
बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था.
 सौ साल पहले पत्रकारिता पर अंग्रेजी हुकूमत का दबाव था. दबाव से कई चीजे प्रभावित होती थी. सत्ता के खिलाफ बगावत के सूर शब्दों से भी फूटते थे. आजाद भारत में यह दबाव धीरे धीरे मार्केट ने ले लिया. मार्केट का प्रभाव अप्रत्यक्ष ज्यादा है. इस प्रभाव को समझने के बाद बदलाव की बारीकियां समझी जा सकती हैं. यह कोई नई बात नहीं है कि आज जर्नलिज्म में मार्केट के दबाव के कारण अनेक कंटेन्ट प्रभावित होने लगे हैं. यह चर्चा नई नहीं है कि इस मार्केट को नियंत्रित करने वाले कौन हैं, उनका मकसद क्या है, यह समझ कर ही हम पत्रकारिता के सरोकारों की बात कर सकते हैं. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां पब्लिक है, वहीं मीडिया है. और जहां मीडिया है, वही मार्केट है.
मतलब साफ है कि पब्लिक मूवमेंट ही मीडिया को ज्यादा प्रभावित करती है. इस मूवमेंट को सुक्ष्म और व्यापकता के स्तर पर समझने की जरूरत है. मीडिया से पब्लिक तभी तक जुडी है जब तक उसके प्रति उसमें भरोसा है. और भरोसा कैसे कायम रहे इसका ट्रैक समाचारों की विश्वसनीयता की निरंतरता है. लेकिन इसके साथ ही इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मीडिया संस्थानों ने अपने प्रति पब्लिक की विश्वसनीयता का निजी हित में लाभ भी लिया है. इसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना पड रहा है. वह खामियाजा है, उसकी साख पर सवाल. साख यानी विश्वसनीयता ही नहीं रहेगी तो मीडिया का मार्केट ही खत्म फिर तो उसे कोई मार्केट नहीं बचा पाएगा. इसलिए विश्वसनीयता की मदकता में भटकी हुए मीडिया संस्थान का जनसरोकारों को स्पर्श करना, उसके मुद्दे को शिद्दत से उठाना वैसे ही मजबूरी है जिस तरह से समुंद्री जहाज का पक्षी लौट कर जहाज पर ही लौटने को मजबूर होता है.
उदारीकरण के दौर के बाद से ही मीडिया का संक्रमण काल चालू हुआ. इंलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में कई प्रयोग हुए. तरह तरह की बातें हुई. तब यह कहा गया कि प्रिंट मीडिया का अस्तित्व की खत्म हो जाएगा. जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ, पब्लिक ने सुबह छपे हुए अखबार के आखर में प्रमाणिकता देखना शुरू किया. यह सब क्या है. आप इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जब हर चीज बदल रही है तो पब्लिक की सोच और उसके परखने की क्षमता और विकसित नहीं हो रही होगी. निश्चत रूप से पब्लिक होशियार हो चुकी है. उसे बहुत देर तक भ्रम में नहीं डाला जा सकता है. वे दौर हवा हो चुके हैं जब सूचनाएं किसी एक के बाद होती थी. अब चंद मीनटों के अंतराल पर हर सूचना लाखों करोडों के पास है. पहली सूचना पाने वाला उसे कुछ क्षण चाहे जितना खेल ले. यदि वह सूचना पब्लिक के बीच तैर गई तब पब्लिक खुद ही उसकी गंभीरता, विश्वसनीयता और सच्चाई परख लेती है.
अब सवाल यह है कि फास्ट टैक्ट पर दौडती भागती सूचनाओं के दौर में मीडिया संस्थान किन सूचनाओं पर फोकस कर पब्लिक को प्रभावित करते हैं. यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि मीडिया संस्थानों की भी यह मजबूरी है कि वे उसी सूचनाओं को एकजुट कर फोकस करने लगी हैं, जहां सबसे ज्यादा पब्लिक प्रभावित होती है. यह स्थिति अधिकांश मामलों में हैं. यह रेसियो 80 : 20 का हो सकता है. यदि यही रेसियो उलटा होकर 20 : 80 का हो जाए तो पब्लिक खुद ही परख लेगी. दरअसल यह 20 प्रतिशत मार्केट केंद्रीत न्यूज ही मीडिया संस्थानों की संजीवनी है. क्या बिना धन का अखबार निकल सकता है. क्या खालिस खबरों वाली मैगजीन या समाचारपत्र शत प्रतिशत लागत मूल्य पर पाठकों के हाथ तक पहुंच सकते हैं. यहां तो पाठक बाल्टी, टब, चायपत्ति तक के आफर पर अखबर बदल लेते हैं. लेकिन यह भी सच है कि ऐसे पाठकों की संख्या का औसत भी उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में मार्केट की खबरें हैं, जो संजीवनी का काम करती हैं. सैद्धांतिक रूप से भले आप लाख गलत कहें लेकिन इस बात को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं कि जनसरोकारों की खबरों के लिए कैरियर का काम मार्केट आधारित वहीं 20 प्रतिशत खबरें ही करती हैं.
पत्रकारिता के इस पूरे फलक पर ही हम अंबेडकरवादी पत्रकारिता के सरोकारेां को समझना चाहिए. देश में दलित विमर्श की सैकडों समाचार पत्र व मैगजीन प्रकाशित हुए, कुछ साल चले और बंद हुए. यह बंद होने के कारण आप उनके संचालकों व प्रकाशकों से पूछिए. दर्द छलक आएगा. उन्होंने मुद्दे तो मजबूती से उठाएं, लेकिन मार्केट में उन्हें खींच कर निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कोई हुक नहीं मिला. अब मार्केट के बीच से गुजरने का रास्ता ही यही है तो आप कर क्या सकते हैं. इसलिए हम चाहे सरोकारों की पत्रकारिता की बात करें या बाबा साहब अंबेडर के विचारधारा आधारित पत्रकारिता की, सर्वाइवल तभी होगा, जब हम फीट रहेंगे और यह फीटनेश की गोलियां चाहे मार्केट से लें या वैध जी के घर से, मूल्य तो चूकाने ही पडेंगे. मर्ज की दवा कडवी भी होती है. बाबा साहब का ‘मूकनायक’ अप्रैल 1923 में बंद हो गया. उसके चार साल बाद 3 अप्रैल 1927 को आंबेडकर ने दूसरा मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला. वह 1929 तक निकलता रहा. आजादी से पूर्व और बाद प्रकाशन शुरू करने वाले अनेक समाचार पत्र बंद हो गए. कई आज भी चल रहे हैं, चल तभी रहें है जब उन्होंने मार्केट से मदद लेकर अपनी बजट को मेंटेन रखा. हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि जंग मरकर नहीं जिंदा रह कर ही जीती जाती है. पत्रकारिता में दलित बहुजन या अंबेडकरवादी विचारधारा को आगे ले जाने की जंग मीडिया मार्केट में जिंदा रह कर ही जीती जा सकती है.
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का कहना था कि वंचितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना स्वयं का मीडिया अति आवश्यक है. इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 31 जनवरी 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया था. ‘मूकनायक’ यानी मूक लोगों का नायक. आज हालात बदल चुके हैं. बाबा साहब के निर्मित संविधान ने मूक को स्वर दे दिया है. संविधान का हक और मार्केट दबाव से बदले समाजिक हालात ने जातियों के मिनार में सुरंग कर दिया है.
बाबा साहब यह मानते थे कि अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय के खिलाफ दलित पत्रकारिता ही संघर्ष कर सकती है. स्वयं आंबेडकर की पत्रकारिता कैसे इस सवाल पर मुखर थी, ‘मूकनायक’ के 14 अगस्त 1920 के अंक की संपादकीय में वे लिखते हैं, “कुत्ते-बिल्ली जो अछूतों का भी जूठा खाते हैं, वे बच्चों का मल भी खाते हैं. उसके बाद वरिष्ठों-स्पृश्यों के घरों में जाते हैं तो उन्हें छूत नहीं लगती. वे उनके बदन से लिपटते-चिपटते हैं. उनकी थाली तक में मुंह डालते हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती. लेकिन यदि अछूत उनके घर काम से भी जाता है तो वह पहले से बाहर दीवार से सटकर खड़ा हो जाता है. घर का मालिक दूर से देखते ही कहता है-अरे-अरे दूर हो, यहां बच्चे की टट्टी डालने का खपड़ा रखा है, तू उसे छूएगा ? तब के समाजिक यथार्थ पर बाबा साहब यह दर्दनाक टिप्पणी आज के बाजार में कितना प्रासंगिक है. समाज में काफी कुछ बदलाव हुआ है. अब यदि ऐसा या इससे कुछ कम भी होता है तो मेन स्ट्रीम मीडिया में खबरें जरूर आती हैं. ये खबरें बडे जनमानस को झकझोरने वाली भी होती है, इसलिए इसका महत्व मीडिया समझ कर उसे प्रसारित भी करता है.
बाबा साहब अंबेडकर के विचारों का फलक बहुत बडा है. हां यह सही है कि उन्होंने वंचित व अछूत वर्ग के लिए दमदारी से हमाकत की, लेकिन उनका मानवतावादी दष्टिकोण हर वर्ग को छूता है. यह केवल शब्दों का अंतर है. हम जनसरोकारों की पत्रकारिता की बात तो करते हैं, लेकिन जैसे ही उस पर अंबेडरवादी विचारधारा का नाम जोड दिया जाता है, वह जाति विशेष की हो जाती है. दरअसल जनसरोकारों में ही दलित बहुजन, वंचित अछूत आदि सब हैं.  आंबेडकर की पत्रकारिता हमें यही सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग आदि शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए. दरअसल यही मीडिया का मूल मंत्र हैं. एक ही विचारधारा विशेष को लेकर चलने वाले अनेक अखबार किस अंधेरे में गुम हो चुके हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here