पिछले माह (18 जनवरी 2018) मुम्बई में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा बुलाये गए बॉलीवुड सम्मेलन में एक भी बड़ा मुस्लिम कलाकर शाहरुख, सलमान, अमीर,सैफ, जावेद अख्तर, शबाना आज़मी आदि नही पहुँचे , जानते हैं क्यों ? क्योंकि वे तथाकथित शांतिदूत पहले मुसलमान हैं और उनकी निष्ठा सर्वप्रथम इस्लाम में निहित होती हैं। क्या भारत सरकार के प्रमुख अतिथि का स्वागत करने में भी इन कट्टरपंथियों की धार्मिक आस्थाओं पर कोई कुठाराघात हो रहा था ? ये तथाकथित मानवतावादी , धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्रीयता की बड़ी बड़ी बातें करने वाले संकट में अपने देश का सदैव साथ व सहयोग देने वाले इजरायल देश से क्यों कटुतापूर्ण व्यवहार अपनाने के लिए कटिबद्ध हैं ? क्या ये अपने देश भारत से बड़ा फिलिस्तीन के उन मुसलमानों को मानते हैं जिनकी इजराइलियों (यहूदियों) के साथ जन्मजात शत्रुता बनी हुई हैं ? फिर बार बार यह क्यों कहा जाता हैं कि मज़हब नही सिखाता आपस में बैर करना ? प्रायः अनेक तथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे में कला, साहित्य, संगीत व गीत आदि को धर्म के परिदृश्य से बाहर बनें रहने की झूठी सराहना क्यों करते हैं ? धर्म व मज़हब की सीमित सीमा व कट्टरपंथी मानसिकता से किसी भी कला प्रेमी और कलाकार आदि को बांधा नही जा सकता परंतु इजराइल के प्रधानमंत्री के साथ हुए इन फिल्मी कलाकारों के उदासीन व अपमानित करने वाले व्यवहार ने ऐसे विचार की पोल खोल कर उनकी संकीर्ण इस्लामिक सोच का परिचय दिया हैं। क्या इस सोच का आधार यह है कि विश्व के अधिकांश इस्लामिक देश व मुस्लिम समाज यहूदी राष्ट्र इजराइल के प्रति शत्रुता का व्यवहार रखते हैं। समाचारों से यह भी ज्ञात हुआ है कि हिंदी फिल्मों के कारण भारत में प्रसिद्ध हुए लेखक व गीतकार एवं भूतपूर्व राज्यसभा सदस्य जावेद अख्तर ने भी इजरायली प्रधानमंत्री द्वारा बुलाये गये सम्मेलन में न जाने की अपनी भी कुछ ऐसी ही धारणा के संकेत दिये । जबकि इनको प्रगतिशील लेखक व विचारक माना जाता है और भारत सरकार द्वारा इनको पूर्व में पदमश्री व पदमविभूषण सम्मान से सम्मानित भी किया जा चुका है। क्या ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में इन सम्मानित भारतीयों का राष्ट्र के प्रति कोई दायित्व नही होता ? क्या पूर्व में जब पाकिस्तानी मूल के मुसलमान सादिक खान जो लंदन के मेयर है जब मुम्बई आये थे तो इसी फ़िल्मी जगत द्वारा उनका बड़ा भव्य स्वागत किया जाना उचित था ? बॉलीवुड का प्रत्येक खान, भट्ट, जौहर और कपूर आदि सभी बड़ी प्रसन्नता से उनके स्वागत में डटे हुए थे । जबकि मेयर सादिक खान कश्मीर विवाद पर खुलकर भारत का विरोध करके पाकिस्तान का पक्ष लेते रहें है।
यह भी ध्यान रहें कि भारत सरकार के आमंत्रण पर आये इजराइल के प्रधानमंत्री का नई दिल्ली आगमन पर भी कुछ मुस्लिम संगठनों ,मौलानाओं व उलेमाओं के अतिरिक्त वामपंथियों ने भी इजराइल द्वारा फिलस्तीनी मुसलमानों पर हो रहें तथाकथित अत्याचारों के विरोध में अपने अपने बैनर पर प्रदर्शन किये । अनेक अवसरों पर अपने को धर्म के घेरे से बाहर रखते हुए नास्तिक बताने का छदम स्वभाव भी कुछ व्यक्तियों की नकारात्मक सोच का ही परिणाम है। भारतीय , धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक कहलाये जाने वाले ऐसे देशवासी कब तक उदार भारतीयों को भ्रमित करते रहेंगे ? ऐसे में ‘इंसान से इंसान का हैं भाईचारा’ लिखने वाले अब उसमें संशोधन करके यह क्यों नही कहते कि ‘इस्लाम से हैं इस्लाम का भाईचारा’ ? यहां डॉ. अम्बेडकर जी कि पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (1940) की वह पंक्तियां लिखना अनुचित नही होगा जिसमें उन्होंने लिखा था कि ” इस्लाम का भाईचारा मानव समाज का सार्वभौमिक भाईचारा नही हैं। यह केवल मुस्लिमों का मुस्लिमों से भाईचारा हैं। यह वह भाईचारा है जिसका लाभ केवल इसी धर्म से संबंधित लोगों तक सीमित हैं। जो लोग इस धर्म से बाहर हैं उनके लिए कुछ नही, सिवाय बेइज्जती व दुश्मनी के “।
वैसे भी अनेक वर्षों से विभिन्न अवसरों पर यह संज्ञान में आया हैं कि इस्लाम की आलोचना हो या उस पर किसी अन्य प्रकार से प्रहार करने वाली कोई भी उचित या अनुचित घटना विश्व के किसी भी कोने में कहीं भी हो सारा मुस्लिम समाज आक्रोशित व एकजुट होकर भारत सहित अनेक देशों में उसका हिंसात्मक व अहिंसात्मक गतिविधियों से विरोध प्रदर्शन करता आया हैं। उसमें चाहे अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश द्वारा (2003) ईराक़ पर अवैध शस्त्रों की खोज में किया गया विवादित आक्रमण हो, चाहे पैग़बर मोहम्मद के विवादित कार्टून हो जो सर्वप्रथम (सितंबर-अक्टूबर 2005) डेनमार्क में छपे व अमरीका सहित अन्य यूरोपियन देशों की विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं (जनवरी 2006) में फिर इससे संबंधित कार्टून पेरिस की पत्रिका शार्ली अब्दों में भी प्रकाशित (2015) हुए थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इन विवादित चित्रों को छापने वाले पत्र-पत्रिकाओं को क्या मुस्लिम जगत कभी क्षमा करेगा ? संभवतः नही । इसी संदर्भ में यह भी समझना चाहिये कि जब कभी कहीं भी इस्लाम की मज़हबी पुस्तक के तथाकथित अपमान के सत्य या असत्य समाचारों के भ्रमित प्रचार होने पर भी मुस्लिम आक्रामकता का व्यापक रुप दिखता हैं। क्योंकि उग्रता इस्लाम की मूलभूत पहचान हैं तभी तो इन विवादों में विभिन्न देशों में कितने निर्दोषों का रक्त बहा व नष्ट हुई संपत्ति के आंकडों का अनुमान भी नही लगाया जा सका ?
यहां यह भी लिखना अनुचित नही होगा कि मुस्लिम चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन द्वारा जब हिन्दू देवी-देवताओं के अश्लील व अपमानजनक चित्र बनाकर उनको प्रदर्शित किया जाता था तब ये मुस्लिम कट्टरपंथी अपनी घृणित मज़हबी मान्यताओं से ग्रस्त होने के कारण ऐसे कार्यों का विरोध करने का विचार भी नही करते। यह सत्य है कि अन्य मान्यताओं वाली संस्कृति व धर्मों को नष्ट-भ्रष्ट करने में इस्लाम का अधिकतम योगदान रहा हैं । हमारे इतिहास में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदुत्व को अपमानित करने व उनको समाप्त करने के इतने अध्याय समाये हुए हैं कि हम आज तक उनके दूषित प्रभावों से मुक्त नही हो पाते हैं। यह भी समझना चाहिये कि जब कभी भी मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा जिहाद के लिए आगजनी व बम विस्फोट आदि की रक्तरंजित भयानक घटनायें होती हैं तब क्यों नही ऐसा समाज कोई विरोध प्रदर्शन करता ? क्या पिछले 27 वर्षों से अपने ही देश में नारकीय जीवन जीने को विवश हुए लगभग 5 लाख कश्मीरी हिंदुओं के प्रति इन कट्टरपंथी मुसलमानों ने कभी कोई संवेदनशीलता व्यक्त करी या कोई आंदोलन किया हैं ?
अतः क्योंकि हमारी संस्कृति हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का ज्ञान कराती हैं जिससे हम ‘इंसान से इंसान का हैं भाईचारा’ के लिए संकल्पित रहते हैं । फिर भी हमें यह नही भूलना चाहिये कि ” इस्लाम से हैं इस्लाम का भाईचारा ” अधिक साम्प्रदायिक व विघटनकारी हैं। इसलिए हमको कट्टरपंथी धर्मांधों की घृणित व संकीर्ण मानसिकता के दोहरे मापदंडों से सावधान रहना होगा। ऐसे प्रकरणों से हमें एक शिक्षा अवश्य मिलती हैं कि ये मुसलमान अपने तथाकथित शत्रुओं (अविश्वासियों व काफिरों) को पहचानने में कभी कोई त्रुटि नही करते और साथ ही जब भी अवसर मिलता हैं तो वे उनसे घृणित व आक्रामक व्यवहार से भी पीछे नही हटते । ऐसे में क्या यह उचित होगा कि हम धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उनके प्रति उदार व सहिष्णु होकर अतिरिक्त लाभ दे कर उन्हेँ अपना बनाने की आत्मघाती भूल निरंतर करते रहें ?
विनोद कुमार सर्वोदय