“सही विधि से ईश्वरोपासना न करने पर उसका लाभ नहीं होता”

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मनमोहन कुमार आर्य,

आस्तिक लोग ईश्वर की पूजा व उपासना करते हैं। पूजा व उपासना को भक्ति का नाम भी दिया जाता है। हम जानते हैं कि हमें हर काम को सीखना पड़ता है। हम यह प्रयास करते हैं कि हमें सीखाने वाला व्यक्ति उस विषय का पूर्ण जानकार हो। अपूर्ण जानकार से कोई भी ज्ञान लेना नहीं चाहता। बच्चे को उठना, बैठना व चलना माता-पिता सीखाते हैं जो कि इसे जानते हैं। बच्चे को अच्छी-अच्छी बातें सीखाते हैं। बच्चा कुछ बड़ा हो जाता है तो माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे अच्छे विद्यालय में अध्ययन के लिये भेजते हैं। अच्छे विद्यालय का अर्थ होता है कि जहां पढ़ाने वाले शिक्षक वा अध्यापक ज्ञानी, सज्जन, धार्मिक तथा बच्चों से स्नेह करने वाले हों। जहां अच्छे अध्यापक न हो वहां कोई भी अपने बच्चों को पढ़ने के लिये भेजना नहीं चाहता। इसी प्रकार संसार का रचयिता व पालक ईश्वर है। ईश्वर का अस्तित्व अनेक प्रमाणों से सिद्ध है परन्तु ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं, इसे मनुष्य को जानना होता है। इसका ज्ञान बिना ऋषि दयानन्द जैसे सत्गुरु व वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय के बिना नहीं होता। यदि कोई बिना जाने ईश्वर की उपासना, पूजा या भक्ति करेंगे तो गलती होने की शत-प्रतिशत सम्भावनायें हैं। इसे दूर करने के लिये मनुष्य को सावधानी रखनी होगी।

 

पहला प्रश्न उसे अपने धर्म गुरु या जिस मत व उसके पण्डे-पुजारी आदि पर वह आस्था रखता है, उससे पूछना चाहिये कि वह उसे ईश्वर का सत्य स्वरूप बताये? अपने आचार्य व पुजारी से आत्मा का स्वरूप भी पूछना चाहिये। यह जान लेने के बाद कुछ अन्य विद्वानों की शरण में जाकर भी ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। यदि यह सब ईश्वर व आत्मा का एक ही स्वरूप बतातें हैं और जिज्ञासु की इससे पूर्ण सन्तुष्टि हो जाती है तो बात ठीक हो सकती है। हम तो यही कहेंगे कि आजकल धर्म व पूजा आदि की बातें बताने की दुकाने खुली हुई हैं जो सच्ची ईश्वर भक्ति से सर्वथा अपरिचित हैं। उन्हें तो ईश्वर के सत्यस्वरूप का भी ज्ञान नहीं है। अतः उन लोगों की शरण में जाने से लाभ तो होता नहीं है अपितु अनेक प्रकार की हानियां होती हैं। इससे हमारा वर्तमान व भावी जीवन अर्थात् परजन्म बिगड़ जाता है। यदि कोई धर्म गुरु किसी व्यक्ति को मांसाहार, मदिरापान, अण्डों व मछली के मांस के सेवन सहित धूम्रपान व तामसिक भोजन का तिरस्कार करने की प्रेरणा व प्रतिज्ञा नहीं कराता तो वह गुरु आपका गुरु नहीं अपितु आपका शत्रु है। इसका कारण यह है कि परमात्मा ने पशु-पक्षियों आदि सभी योनियो को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग करने के लिये बनाया है और उनकी आयु भी लगभग निश्चित है। यदि हम किसी पशु को बिना उचित कारण के मार दें तो पहला पाप तो किसी निर्दोष पशु को मारने का हमें लगता है। दूसरा पाप उसका मांस खरीदने, पकाने व खाने वाले को भी लगता है। हमें लगता है कि जो माता-पिता अपनी अबोध सन्तानों को मांसाहार व अण्डों आदि का सेवन कराते हैं वह ईश्वर की दृष्टि में पापी होते हैं। अतः मनुष्य को सावधान रहने की आवश्यकता है।

 

मनुष्य को अध्यात्म में प्रवेश करते हुए सबसे पहले ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना चाहिये। इसके लिये सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय सहित आर्यसमाज के प्रथम दूसरे नियम को समझने का प्रयत्न करना चाहिये। आर्याभिविनय स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश अति लघु ग्रन्थ हैं। इनका भी अध्ययन करना चाहिये। यह कुछ ही घण्टों में पूरा हो जाता है। आर्यसमाज के नियमों की विद्वानों द्वारा की हुई व्याख्यायें भी उपलब्ध हैं। इसके साथ ही ऋषि दयानन्द जी की सन्ध्या पद्धति का अध्ययन भी आवश्यक है। यदि मनुष्य इतना भी कर ले तो वह ईश्वर के स्वरूप व ईश्वर की उपासना पद्धति किंवा भक्ति को भली प्रकार से जान सकता है और इससे लाभ उठा कर अपनी आत्मा, शरीर की उन्नति सहित अपने परजन्म का सुधार भी कर सकता है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर उपासना आरम्भ करने से पूर्व या करते हुए इस बात की समीक्षा करते रहना चाहिये कि वह जो उपासना कर रहा है वह ठीक भी है या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि जिस लिये उपासना की जाती है उसका वह उद्देश्य ही पूरा न हो रहा हो।उपासना क्यों की जाती है? इसका उत्तर है कि ईश्वर का धन्यवाद करने के लिये ईग्श्वर की उपासना की जाती है। ईश्वर के धन्यवाद की आवश्यकता क्यों है? इसका उत्तर है कि किसी से उपकृत होने पर धन्यवाद करने से अनेक लाभ होते हैं। इसे यूं समझ सकते हैं कि हम किसी के प्रति उपकार करें और वह उपकार लेकर हमें धन्यवाद भी न कहे, तब भले ही हम उससे रुष्ट न हों, परन्तु यह उचित प्रतीत होता कि किसी का उपकृत होने पर उसका धन्यवाद अवश्य करना चाहिये। ईश्वर ने अनन्त संख्या वाले जीवों को उनके कर्मानुसार सुख देने के लिये इस सृष्टि को बनाया है। यह सृष्टि बनाना क्या आसान काम है? नहीं, यह अत्यन्त कठिन व सभी जीवों के लिये असम्भव है। मनुष्य जीवन व अन्य जीवनों पर दृष्टि डालें तो देखते हैं कि तुलनात्मक दृष्टि से जीवन में सुख अधिक व दुःख कम होते हैं। हम अपने स्वरूप पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हम जीवात्मा हैं जो एक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व है। इसे एक अणु नहीं अपितु अणु के समान मान सकते हैं। यह चेतन पदार्थ है जिसमें ज्ञान व कर्म करने की अल्प सामर्थ्य विद्यमान होती है परन्तु यह मनुष्य योनि मिलने पर ही अपनी आत्मा की उन्नति कर सकता है। आत्मा की उन्नति के अनुरुप ही यह कर्म करके सुखी होता है। जीवात्मा को जो मनुष्य शरीर मिला है वह भी परमात्मा ने ही बनाकर दिया है। इसमें माता-पिता व अन्य लोग अवश्य सहायक रहे हैं परन्तु हमारा शरीर, जीवन व भोग की वस्तुयें परमात्मा की ही देन हैं। अतः सभी मनुष्यों, स्त्री व पुरुषों, का कर्तव्य हैं कि वह प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर का धन्यवाद करने के लिये सन्ध्या व उपासना कर ईश्वर का धन्यवाद करें।

 

सन्ध्या की विधि जानने के लिये ऋषि दयानन्द की पुस्तक पंचमहायज्ञविधि प्राप्त करनी चाहिये। बहुत कम मूल्य पर यह पुस्तक मिल जाती है। इसकी पीडीएफ आदि भी नैट से डाउनलोड की जा सकती है। हिन्दी व अंग्रेजी में उपलब्ध होने के कारण इसका सामान्य जन लाभ उठा सकते हैं। इसके लिये हमें नित्यकर्मों वा स्नानादि से निवृत्त होकर एक आसन में भूमि पर बैठना चाहिये। आचमन, इन्द्रियस्पर्श, मार्जन, प्रायाणाम, अघमर्षण आदि के मन्त्रों से विहित क्रियायें करनी चाहियें। सन्ध्या में स्वाध्याय भी सम्मिलित है। इसके लिये ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन सहित वेद, उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने से आत्मा के दोष व अशुद्धियां धीरे-धीरे दूर होना आरम्भ हो जाती हैं। इन अशुद्धियां के दूर होने से बहुत बड़ा लाभ होता है। आत्मा से अज्ञान घट कर ज्ञान का प्रकाश होता है। अशुद्धियां दूर होने के साथ ध्याता ईश्वर के गुणों के अनुरूप मनुष्य के गुण बनने आरम्भ भी हो जाते हैं। यह उपासना का लाभ है। इस लाभ में समय के साथ उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। अतः सभी को पुस्तक में लिखी विधि को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये और उपासना करनी चाहिये। यदि कहीं शंका हो तो आर्य विद्वानों से उसका समाधान करा लेना चाहिये।

 

ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरूप संक्षिप्त स्वरूप ऋषि दयानन्द जी के अनुसार प्रस्तुत करते हैं। ईश्वर के ब्रह्म तथा परमात्मा आदि अनेक नाम हैं। वह सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। उसी को परमेश्वर कहते हैं। ईश्वर का ऐसा स्वरूप ही वेद एवं वेदानुकूल ऋषियों के ग्रन्थों में पाया जाता है। ईश्वर के इन गुणों व स्वरूप के विपरीत जो बातें कहीं लिखी व कही जाती हैं वह असत्य एवं त्याज्य हैं। इस पर सभी मनुष्यों को विशेष ध्यान देना चाहिये।

 

अब जीवात्मा का स्वरूप जानते हैं। जीवात्मा एक चेतन पदार्थ है। मनुष्य ज्ञान व बुद्धि की दृष्टि से जीवात्माओं की संख्या अनन्त हैं। सभी जीवात्मा का पृथक अस्तित्व है। जीवात्मा ईश्वर की तरह सर्वव्यापक न होकर एकदेशी व ससीम है। यह अणु के समान एक अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है। यह अनादि, अमर, नित्य व अविनाशी है। जीव इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणों से युक्त अल्पज्ञ है। यही हमारी आत्मा का स्वरूप है। उपासक को जीव व ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुणों को अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिये तभी वह ईश्वर की उपासना कर सकता है। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

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