यह सामूहिक शर्म और चिंता का समय है

-सिद्धार्थ शंकर गौतम-

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विडम्बना देखिए, हमारे कृषि प्रधान देश में अन्नदाता आत्महत्या करने को मजबूर हैं। ताजा मामला दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित आम आदमी पार्टी (आप) की किसान रैली का है जिसमें राजस्थान के दौसा में रहने वाले किसान गजेंद्र सिंह को पूरे देश ने फांसी लगाते देखा। जो रस्सी बैल के गले में घुंघरू बांधने के लिए थी वो गजेंद्र के गले का फंदा बन गई। इससे पहले किसान या तो घरों-खेतों में खुद की इहलीला समाप्त करते थे या अपनी उपज जलाकर सरकारी तंत्र का विरोध करते थे। किन्तु यह विरला मामला ही था कि किसी किसान ने भीड़ के बीच राजनीतिज्ञों को आईना दिखाते हुए किसान बिरादरी के दर्द का एहसास करवा दिया। हालांकि उसकी मौत पर भी बेशर्म सियासत हो रही है और सभी अपना दामन पाक साफ़ बताते हुए दूसरों को दोषी ठहरा रहे हैं। अब तक सबसे आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया ‘आप’ की रही है जिसके कथित नेतागण ऐसे बेवकूफाना तर्क दे रहे हैं मानो किसान ने मजबूरी में आत्महत्या नहीं, पब्लिसिटी स्टंट किया हो। शर्म आती है ऐसे नेताओं को देखकर जो संवेदनाविहीन हो चुके हैं। बुधवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर जो हुआ वह किसानी इतिहास का स्याह पक्ष है। यह भी कम दुखद नहीं कि जिस दिन गजेंद्र ने खुद की इहलीला समाप्त की, उसी शाम उसकी दो भतीजियों की शादी थी। जरा सोचिए, क्या बीती होगी उसके परिवार पर? मगर राजनीतिज्ञों को इससे क्या? उन्हें तो किसानों का रहनुमा बनने की होड़ करने से ही फुर्सत नहीं है। सोचिए, जिन किसानों के हितों का नारा लगाकर ‘आप’ ने ये मजमा जमाया था, उनके बीच के भाई की आत्महत्या के बाद भी उसके नेता पूरे 80 मिनट तक भाषण देते रहे। यहां तक कि पत्रकार से नेता का चोला ओढ़ चुके आशुतोष ने तो बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर गजेंद्र की मौत को तमाशा बना दिया। इससे भी बढ़कर ‘आप’ विधायक अलका लांबा ने गजेंद्र की मौत के 20 मिनट पहले ही ट्विटर पर उसकी मौत की पुष्टि कर दी। कुल मिलाकर ‘आप’ ने इस हृदय विदारक घटना को भी अपने पक्ष में भुनाने की बेहिसाब कोशिश की किन्तु इस बार उनका यह चेहरा देश को पसंद नहीं आया। उलटे ‘आप’ के मुंह पर ऐसी कालिख पुत गई जिसके दाग ताउम्र उसके चेहरे को दागदार करते रहेंगे।
गजेंद्र की आत्महत्या के बाद जो तथ्य छनकर सामने आ रहे हैं वे किसी साजिश का हिस्सा भी हो सकते हैं। मसलन, गजेंद्र रैली से पहले दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया से मिलने उनके घर गया था और रैली के बाद भी उनसे मिलने का समय उसके पास था। उसकी कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी थीं जिसकी वजह से वह भाजपा, कांग्रेस, सपा के बाद ‘आप’ में खुद की संभावनाएं तलाश रहा था। संभव है कि ‘आप’ ने उससे कुछ वादे किए हों जिनसे बाद में वे अपने चरित्र के अनुरूप मुकर गए हों। ऐसी भी खबरें हैं कि जो सुसाइड नोट उसके पास से मिला है उसमें भी उसकी लिखावट होने से उसके परिजन इंकार कर रहे हैं। खैर, वजह जो भी मगर गजेंद्र की आत्महत्या ने देश में किसानी क्षेत्र की दुर्दशा को तो बयां कर ही दिया है। वैसे भी दुनिया भर में भारतीय किसान की छवि बेहद गरीब और दीन-हीन लाचार है। देश की राजनीतिक पार्टियां भी किसानों को वोट-बैंक का हिस्सा मानती रही हैं जिससे उनकी स्थिति अधिक दयनीय हुई है। वर्तमान में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जय जवान-जय किसान; कुंठित है राजनीति की कुटिल चालों में उलझकर। राजनेताओं को सोचना होगा कि देश का यदि एक भी किसान आत्महत्या करता है तो यह उनकी सरकार और प्रशासन की सबसे बड़ी हार है। किसान आत्महत्या देश के लिए सामूहिक शर्म और चिंता का विषय है। इस मामले में जिस तरह की लीपापोती हो रही है वह निराशाजनक और अलोकतांत्रिक है जिससे बचा जाना चाहिए। नेता अन्नदाताओं को वोट बैंक का हिस्सा नहीं वरन इस देश का भगवान समझें, तभी उनकी स्थिति में बदलाव आएगा।

1 COMMENT

  1. दिल्ली में जंतरमंतर पर जो हुआ,वह बहुत दुखद है,पर क्या एक आदमी का दिल्ली में आकर फांसी लगाना उन सब आत्म हत्याओं पर भारी पड़ता है,जो देश में किसानों द्वारा रोज की जा रही है. इस में दोष किसका है,यह उतना महत्त्व पूर्ण नहीं जितना यह जानना कि आखिर ये आत्म हत्याएं क्यों हो रही हैंऔर इनको कैसे रोका जा सकता है.,जंतर मंतर वाली घटना पर मैं अपना पक्ष रख चूका हूँ,पर इन सब बहसों के बीच क्या असली मुद्दा दब कर नहीं रह गया है?क्या यह हमारी संवेदनहीनता का द्योतक नहीं है?क्या हम सब आज केवल घड़ियाली आंसू नहीं बहा रहे हैं?

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