अब तो इस तालाब का पानी बदल दो…

वीरेन्द्र सिंह परिहार

अभी गत दिनों कुछ ऐसी बातें देश के सामने आईं, जिसे लेकर पूरे देश को यह गहन चिंतन करने की जरूरत है कि आखिर इसका इलाज क्या है? यह प्रकरण है कि अरूणांचल के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल के आत्महत्या के पूर्व उनके द्वारा लिखित डायरी का। ऐसा माना जाता है कि न्यायपालिका के भ्रष्ट रवैये के चलते उन्हें आत्महत्या कर लेनी पड़ी। आत्महत्या के पूर्व कालिखो पुल ने अपनी लिखित डायरी में बताया कि पूरा सिस्टम कैसे सड़ांध मार रहा है, जिससे न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। डायरी में लेख है कि उनकी सरकार के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे प्रकरण में उनके पक्ष में फैसला करने के लिए 86 करोड़ रूपये की मांग की गई। जब उन्होंने यह अपेक्षा पूरी नहीं की तो दूसरे पक्ष से रूपये लेकर फैसला उनके विरूद्ध कर दिया गया, जिसके चलते उनकी सरकार चली गई। आश्चर्य की बात यह है कि जब स्वेच्छा से विधायक नियमानुसार दूसरी पार्टी में जा रहे हैं, संविधान का कहीं उल्ल्ंाघन नहंी हो रहा है। तो सर्वोच्च न्यायालय उसे कैसे संविधान विरोधी बता रही है? यह मामला सिर्फ अरूणंाचल प्रदेश का ही नहीं बल्कि उतराखण्ड का भी था। स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय इस तरह से जब विधि विरूद्ध फैसले देगा तो लोगों को यही अहसास होगा कि कहीं-न-कहीं दाल में कुछ काला है? वस्तुतः इस मामले का खुलासा तब हुआ जब कालिखों पुल की पत्नी ने उपरोक्त डायरी को आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की। लेकिन यह मामला आदर्श गोयल की बंेच में सुनवाई के लिए आ गया। उलेखनीय है कि आदर्श गोयल के बेटे पर ही इस संबंध में घूस मांगने का आरोप कालिखो पुल ने लगाया था। जब अधिवक्ता दुष्यंत दबे ने जज आदर्श गोयल से इस संबंध में सुनवाई से हटने की मांग की तो वह स्वतः इस बात के लिए अड़ गए कि सुनवाई वही करेंगे। निस्संदेह यह एक बड़ी ही अप्रत्याशित और अनुचित स्थित थी। क्योंकि यदि सर्वाेच्च न्यायालय के जज भी इस तरह की हेकड़ी पर उतर आए तो देश का फिर भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थित में अधिवक्ता दवे ने यह कहकर कि उन्हंे न्याय नहंी मिलेगा- याचिका वापस ले ली। निस्संदेह इसके चलते सर्वाेच्च न्यायालय की विश्वसनीयता को लेकर भारी आघात लगा है और इससे यह साबित हो चला है कि न्यायपालिका में यहां तक सर्वोच्च न्यायालय में भी स्वेच्छाचारिता और भ्रष्टाचार साधिकार चल रहा है। बड़ी बात यह कि जब पूरे समाज में भ्रष्टाचार महामारी की तरह व्याप्त है तो न्यायपालिका में कोई देवदूत तो बैठे नहीं हैं। आखिर में न्यायपालिका में भी तो इसी समाज से लोग जाते हैं।

सन 60 के दशक में संतानम समिति ने छोटी अदालतों को भ्रष्टाचार के अड्डे बताया था। एक सर्वे के अनुसार निचली अदालतें वैसे ही भ्रष्ट हैं जैसे राजस्व व पुलिस विभाग। 7-8 वर्ष पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय के एक जज शमित मुखर्जी के भू-माफिया से संबंध पाए गए थे, तो मुम्बई के एक जज ए.डब्लू सिंह के संबंध आतंकवादियांे से पाए गए थे। भ्रष्टाचार के चलते ही पांच वर्ष पूर्व कर्नाटक उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस पी.डी. दिनाकरन के विरूद्ध महाभियोग का प्रस्ताव खूब चर्चा में आया था, तो तीन वर्ष पूर्व कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक जज सौमित्र चटर्जी के विरूद्ध भी महाभियोग प्रस्ताव चर्चा में रहा। यहंा तक कि कुछ वर्षो पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन के विरुद्ध भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे, जिन पर जांच के आदेश जारी हुए। अलबत्ता उन जांचों का क्या हुआ यह देश के लोगांे को अभी तक नहंी पता? सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण इसके लिए न्यायालय अवमानना की कार्यवाही भी झेल चुके हैं कि देश की आजादी के बाद कुछ ही ऐसे चीफ जस्टिस थे जिन पर उंगली नहीं उठायी जा सकती।

इस देश में बहुत से लोग आएदिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता की दुहाई देते रहते हैं। इसीलिए संसद द्वारा पारित और कई राज्यों की विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ को कुछ महीनों पूर्व इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया कि यह अधिनियम संविधान के मूल में आज तक यह नहीं आया कि 6 सदस्यीय ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ में चीफ जस्टिस समेत सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ट जज न्यायपालिका के ही होते। यानी के आधे सदस्य न्यायपालिका से होते। शेष सार्वजनिक क्षेत्र के दो विधि विशेषज्ञों की नियुक्ति उपरोक्त कमेटी में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ चीफ जस्टिस करते। तो क्या मात्र भारत के विधि एवं न्यायमंत्री के उपरोक्त कमेटी में होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित हो जाती। एक निर्वाचित सरकार की किसी भी क्षेत्र में रंच-मात्र भी भूमिका न हो- यह अपेक्षा कितनी असंगत और अलोकतांत्रिक है। बडा सवाल यह कि न्यायपालिका को यदि न्यायिक समीक्षा का अधिकार है तो वह अपने को विशेषाधिकार संपन्न बनाये रखने और स्वेच्छाचारिता करने के लिए मनमानी फैसले देगी। न्यायपालिका को यह समझना होगा कि भारतीय संविधान चेक एवं बैलेंस पर आधारित है इसलिए न्यायपालिका सर्वाधिकारी कतई नहीं हो सकती। उम्मीद की जानी चाहिए की 11 मार्च को पांच राज्यों के चुनाव संपन्न होने के पश्चात और राज्यसभा का स्वरूप बदलने के साथ मोदी सरकार एक बार पुनः न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने की दिशा में पूरी दृाने लगे हैं।’’

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