समय-समय पर आर्यसमाज के नियम पढ़ना व समझना तथा उन्हें जीवन उतारना आवश्यक’

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-मनमोहन कुमार आर्य,

आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में की थी। स्थापना का मुख्य उद्देश्य वेदों, वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार करना था। आर्यसमाज के 10 नियम हैं जिन्हें आसानी से कुछ घंटे के परिश्रम से स्मरण किया जा सकता है। आर्यसमाज में नित्य सन्ध्या व यज्ञ करने का विधान है, बहुत से लोग करते भी हैं परन्तु आर्यसमाज के नियमों को एक दो बार पढ़ लेने के बाद पुनः पढ़ने का अवसर कम ही आता है। आर्यसमाज के सभी सदस्यों व अधिकारियों को नियमों को प्रतिदिन अथवा समय-समय पर पढ़ते रहना चाहिये और अपना आंकलन भी करना चाहिये कि हम इन नियमों का कहां तक पालन कर रहे हैं। आर्यसमाज व इसकी सभाओं के सभी अधिकारियों को आर्यसमाज के नियमों का पठन पाठन नियमित रूप से करना चाहिये। इससे उन्हें यह लाभ होगा कि यह नियम उनके जीवन का अंग बन जायेंगे और उन्हें भटकने से रोक भी सकते हैं।

श्री प्रेमनाथ भाम्बी हमारे साथ फेस बुक पर जुड़े हुए हैं। आप इस समय 85-90 के बीच आयु में हैं। हमारे प्रति उनका अत्यन्त स्नेह भाव है। जिस भारतीय पेट्रोलियम संस्थान, देहरादून से मैं सेवानिवृत हुआ हूं, वहां आप शीर्ष वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत हुए हैं। श्री भाम्बी जी विभाजन के पूर्व के लाहौर में डी.ए.वी. कालेज के छात्र रहे हैं। महात्मा हंसराज जी और उस समय के प्रायः सभी आर्यनेताओं व विद्वानों को उन्होंने देखा व सुना है, ऐसा वर्णन उन्होंने एक बार एक फेसबुक पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में किया था। आज उन्होंने हमारी फेसबुक पोस्ट ‘पं. युधिष्ठिर मीमांसक और उनके आर्यसमाज विषयक कुछ विचार’ पर टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा हैः ‘आपके इस लेख में पं0 युधिष्ठिर जी का भी यह मानना है कि आर्य समाजियों में गिरावट का एक कारण, उनका आर्यसमाज के नियम 3, 4, 5 की उपेक्षा है। मेरा एक सुझाव है कि आप साल में एक-दो बार आर्यसमाज के नियमों की सूची भी पोस्ट कर दिया करें। यह मेरे जैसों के लिये जो न आर्यसमाजी हैं और न सनातनधर्मी (मूर्तिपूजक), उनके लिये अपने को आंकने के लिये, कि वह कहां खड़े हैं, काम आयेगी। ऐसा मैंने एक पहले भी निवेदन किया था। कृपया विचार करें।’

श्री भाम्बी जी के इन वचनों से प्रेरित होकर हम यहां आर्यसमाज के 10 नियम प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि हमारे सभी मित्र इसे एक पढ़ लेंगे तो शायद उनका भी रिवीजन हो जायेगा।

आर्यसमाज के नियम

1- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
2- ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।

3- वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।

5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिएं।
6- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

7- सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।
8- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।

9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
10- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

फेसबुक पर हमारे साथ आर्यसमाज व इतर बन्धु भी मित्र हैं। हम आशा करते हैं कि इससे अनेक मित्रों को लाभ हो सकता है। सभी नियम सरल हैं। हम आशा करते हैं कि यह सबकी समझ में आ जायेंगे। यदि किसी बन्धु को इन नियमों के विषय में कोई शंका हो तो टिप्पणी में लिख सकते हैं। हम उनका समाधान करने का प्रयत्न करेंगे। श्री भाम्बी जी का यह सुझाव भी हमें अच्छा लगा कि वर्ष में दो बार आर्यसमाज के नियमों को प्रस्तुत किया करें जिससे सभी लोग को आर्यसमाज के नियमों का परिचय मिल सके और वह इन्हें जान व समझ सके।

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