यह आस्था बनाम कानून नहीं, यह कानून द्वारा आस्था का अनुमोदन है

-लालकृष्‍ण आडवाणी

मैंने अपने जीवन के शुरु के बीस वर्ष कराची में बिताए। इस दौरान मैं दो ही भाषाओं को जानता था एक मेरी मातृभाषा सिंधी और दूसरी अंग्रेजी, जिसमें मेरी पढ़ाई हुई।

फिल्मों के प्रति मेरे शौक के चलते मैं हिंदी कुछ-कुछ समझ लेता था और टूटी-फूटी बोल भी लेता था लेकिन मैं हिन्दी पढ़ और लिख नहीं सकता था।

विभाजन के एक माह पश्चात् सितम्बर, 1947 में, मैं देश के इस भाग में आया। आगामी अगले दशक 1947-1957 में मैं राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में (संघ) प्रचारक के रुप में सक्रिय रहा।

देवनागरी लिपि से पूर्णतया अनभिज्ञता मेरे मन पर बोझ था। देवनागरी सीखने के उद्देश्य से मैंने पहले उसकी वर्णमाला और तत्पश्चात् ज्यादा से ज्यादा हिन्दी पुस्तकें पढ़ीं।

इसी दौर में मैंने डा. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा लिखित गुजरात से सम्बन्धित सभी ऐतिहासिक उपन्यास पढे। इससे काफी पूर्व मैं फ्रेंच लेखक अलक्जेंडर डुमास के उपन्यास थ्री मस्कटियर्स, दि काउण्ट ऑफ मोण्टे क्रिस्ट्स, ब्लैक टयुलिप इत्यादि पढ़ चुका था। मैंने डा. मुंशी की शैली पर डुमास का प्रभाव देखा। मेरे अध्ययन के दौरान ही डा. मुंशी लिखित पुस्तकों (मूलत: गुजराती में लिखित) में से जय सोमनाथ, पुस्तक को पढ़ने का अवसर मुझे मिला, जिसने बाद में भी मेरी राजनीति को प्रभावित किया।

हालांकि, जय सोमनाथ एक काल्पनिक कथा थी जो सोमनाथ मंदिर पर हुए आक्रमण और उसके तहस-नहस तथा लूटने की पृष्ठभूमि में लिखि गई थी। लेकिन उसे पढ़ते हुए सोमनाथ की कहानी में मुझे स्वतंत्र भारत के आधुनिक दिनों की छाप दिखी। स्वामी विवेकानन्द समग्र साहित्य में ‘भारत का भविष्य‘ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित एक लेख में स्वामीजी लिखते हैं:

”विदेशी आक्रमणकारी एक के बाद एक मंदिर तोड़ता रहा; लेकिन जैसे ही वह वापस जाता, फिर से वहां उसी भव्य रुप में मंदिर खड़ा हो जाता। दक्षिण भारत के इन मंदिरों में से कुछ मंदिर और गुजरात के सोमनाथ जैसे अन्य मंदिर आपको भारतवर्ष के इतिहास के बारे में इतना कुछ बता सकते हैं, जो आपको पुस्तकों के भंडार से भी जानने को नहीं मिलेगा। सोचिए, इन मंदिरों पर विध्वंस औेर पुनर्निर्माण के सैकड़ों निशान मौजूद हैं-लगातार बार-बार टूटते रहे और ध्वंसाशेषों से ही फिर बार बार खड़े होते रहे, पहले से भी ज्यादा भव्यता के साथ! यही है राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय जीवनधारा। इस धारा के साथ चलिए, यह आपको गौरव की ओर ले जाएगी।”

ऐसे में यह स्वभाविक ही है कि वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो अनेक हिंदुओं को लगा कि यह न केवल अंग्रेजी राज्य से मुक्ति है, बल्कि पूर्व-ब्रिटिश भारतीय इतिहास के उन पहलुओं से भी मुक्ति है, जिन्हें मूर्ति-भंजन, हिन्दू मंदिरों के विध्वंस और वंशीय पराभव तथा श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपराओं के उल्लंघन जैसी दुष्प्रवृत्तियों के रुप में देखा जाता रहा है।

ऐसी ही स्थिति गुजरात में सौराष्ट्र के जूनागढ़ रियासत में उत्पन्न हुई थी, जहां सोमनाथ का मंदिर स्थित है। जूनागढ़ की 80 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या हिंदू थी, लेकिन रियासत का नवाब मुसलमान था। स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर नवाब ने अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाने की घोषणा कर दी। इससे रियासत के हिन्दू भड़क उठे और उन्होंने विद्रोह कर दिया। परिणामस्वरुप एक स्थानीय कांग्रेसी नेता सामलदास गांधी के नेतृत्व में एक समानांतर सरकार बनायी गई। नवाब तो स्वाभाव से ही विलासिताप्रिय और लापरवाह शासक था, रियासत की जनता उसे बिलकुल पसंद नहीं करती थी, ने पाकिस्तान से मदद मांगी। परन्तु उसकी कोई भी युक्ति सफल नहीं हुई और अंतत: एक रात वह चुपचाप पाकिस्तान भाग गया ।

सामलदास गांधी और रियासत के दिवान सर शाह नवाज भुट्टो- जो जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता थे- ने भारत को संदेश भेजा कि जूनागढ़ रियासत भारत में विलय करने वाली है। अपनी पुस्तक ”पिलग्रिमेज टु फ्रीडम” में के0एम0 मुंशी ने उस समय को याद करते हुए लिखा है कि सरदार वल्लभभाई पटेल -जो उस समय भारत के गृहमंत्री थे और जिन्हें देशी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने का श्रेय जाता है-ने उन्हें (के0एम0 मुंशी) विलय की सूचना वाला तार सौंपते हुए बड़े स्वाभिमान के साथ उद्धोष किया: ‘जय सोमनाथ‘।

जूनागढ़ के भारत में विलय के बाद सरदार पटेल ने 9 नवम्बर, 1947 को सौराष्ट्र का दौरा किया। उनके साथ नेहरु मंत्रिमंडल में तत्कालीन लोकनिर्माण एवं शरणार्थियों के पुर्नवास मंत्री एन0वी0 गाडगिल भी थे। जूनागढ़ की जनता ने दोनों का गर्मजोशी से स्वागत किया। अपने सम्मान में आयोजित जनसभा में सरदार पटेल ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण घोषणा की: स्वतंत्र भारत की सरकार ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर का उसी स्थान पर पुनरुध्दार करेगी, जहां प्राचीन काल में वह स्थित रहा था और उसमें ज्योतिर्लिंगम पुन: स्थापित किया जाएगा।

जूनागढ़ से सरदार पटेल के लौटने के तुरंत पश्चात् प्रधानमंत्री नेहरु ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर पटेल की घोषणा की औपचारिक पुष्टि की। उस शाम जब पटेल और मुंशी गांधीजी को मिले तो उन्होंने भी इस प्रयास को अपना आशीर्वाद दिया लेकिन साथ ही बताया कि निर्माण की लागत जनता उठाए न कि सरकार। इसलिए सोमनाथ ट्रस्ट गठित करने का निर्णय लिया गया।

भारत सरकार ने डा. के0 एम0 मुंशी को सोमनाथ मंदिर निर्माण सम्बंधी परामर्शदात्री समिति का चेयरमैन नियुक्त किया। डा. मुंशी ने तय किया कि सरदार पटेल से मंदिर का लोकार्पण करवाया जाएगा। परन्तु जब तक निर्माण कार्य पूरा हुआ, सरदार पटेल का निधन हो गया।

अपनी पुस्तक ‘पिलग्रिमेज टू फ्रीडम‘ में मुंशी लिखते हैं:

”जब मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठापना का समय आया तो मैंने डा. राजेन्द्र प्रसाद से सम्पर्क कर पूछा कि वे समारोह में आएं लेकिन साथ ही यह शर्त भी लगाई कि वे तभी निमंत्रण स्वीकारें जब वे किसी भी हालत में आने को तैयार हों।

”डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि वे मूर्ति प्रतिष्ठापना के लिए आएंगे चाहे प्रधानमंत्री का रवैया कैसा भी हो और उन्होंने जोड़ा ‘मुझे अगर मस्जिद या गिरजाघर के लिए भी आमंत्रित किया जाता तो भी मैं उसे स्वीकार ही करता। यही भारतीय पंथनिरपेक्षवाद का मूल तत्व है। हमारा देश न अधार्मिक है और न ही धर्म-विरोधी।

”मेरा अंदेशा सही निकला। जब यह घोषणा हुई कि राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ मंदिर के उदघाटन करेंगे तो पंडित जवाहर लाल ने उनके वहां जाने का जोरदार विरोध किया। लेकिन राजेंद्र बाबू ने अपने वचन का पालन किया।”

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जून 1998 में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में हुई और उसमें अयोध्या आंदोलन को समर्थन देने का औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में सरकार से आग्रह किया गया कि वह अयोध्या मंदिर मामले में वही दृष्टि अपनाए जो स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने सोमनाथ मंदिर के बारे में अपनाई थी।

25 सितम्बर, 1990 से सोमनाथ से अयोध्या की 10,000 किलोमीटर लम्बी रथयात्रा का मेरा निर्णय अयोध्या मंदिर के मुद्दे के लिए समर्थन जुटाना था। यात्रा ने देश में एक बहस को जन्म दिया: वास्तविक सेकुलरिज्म बनाम छद्म सेकुलरिज्म-ऐसी ही बहस चालीस वर्ष पूर्व जब पंडित नेहरु ने सोमनाथ संबधी ऐसे ही कार्य के लिए डा. मुंशी को फटकारा था, के समय पहली बार सामने आई थी।

डा. मुंशी ने भवन की पत्रिका के एक अंक में पिलग्रिमेज टु फ्रीड्म को पुन: उद्वृत करते हुए लिखा:

मंत्रिमंडल की बैठक समाप्ति के बाद जवाहरलाल ने मुझे बुलाया और कहा ”सोमनाथ को पुर्नस्थापित करने के आपके प्रयास मुझे पसंद नहीं हैं। यह हिन्दू नवजागरण है।”

डा. मुंशी ने तुरंत प्रतिक्रिया नहीं की। परन्तु उनकी सुविचारित प्रतिक्रिया प्रधानमंत्री को भेजे अनेक पृष्ठों के लम्बे पत्र के रुप में सामने आई जिसमें उन्होंने जोर दिया कि उनकी गतिविधियां कोई व्यक्तिगत उपक्रम न होकर सरकार के स्वयं के निर्णय की पालना हैं।

सोमनाथ के पुनरुध्दार से जुड़े सामाजिक सुधार के पहलू पर जोर देते हुए मुंशी ने आगे लिखा:

”मंदिर के द्वार हरिजनों के लिए खोलने के निर्णय की हिन्दू समुदाय के कट्टरपंथी वर्ग की ओर से कुछ आलोचना जरुर हो रही है, लेकिन ट्रस्ट के करारनामें में स्पष्ट कर दिया गया है कि मंदिर के द्वार न केवल हिंदू समुदाय के सभी वर्गों के लिए खुले हैं, बल्कि सोमनाथ मंदिर की प्राचीन परंपरा के अनुसार, वह गैर हिंदू यात्रियों के लिए भी खुले हैं। कई रीति-रिवाजों को मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में बचपन से ही तोड़ता रहा हूं। हिंदूधर्म के कुछ पहलुओं को जोड़ने के लिए मैंने अपने साहित्यिक और सामाजिक कार्य के माध्यम से अपनी ओर से विनम्र प्रयास किया है -इस विश्वास के साथ कि ऐसा करके ही आधुनिक परिस्थितियों में भारत को एक उन्नत और शक्तिशाली राष्ट्र बनाया जा सकता है।”

पत्र की समाप्ति इन मार्मिक और चेतावनी भरे शब्दों के साथ हुई :

‘भविष्य को ध्यान में रखकर वर्तमान में कार्य करने की शक्ति मुझे अतीत के प्रति अपने विश्वास से ही मिली है। भारत की स्वतंत्रता अगर हमें भगवद्गीता से दूर करती है या हमारे करोड़ों लोगों के इस विश्वास या श्रध्दा को तोड़ती है, जो हमारे मंदिरों के प्रति उनके मन में है और हमारे समाज के ताने-बाने को तोड़ती है तो ऐसी स्वतंत्रता का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। सोमनाथ मंदिर के पुनरुध्दार का जो सपना मैं हर रोज देखता हूं, उसे पूरा करने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ है। इससे मेरे मन में यह अहसास और विश्वास उत्पन्न होता है कि इस पवित्र स्थल के पुनरूध्दार से हमारे देशवासियों की धार्मिक अवधारणा अपेक्षाकृत और शुध्द होगी तथा इससे अपनी शक्ति के प्रति उनकी सजगता और भी बढ़ेगी, जो स्वतंत्रता के इन कठिनाई भरे दिनों में बहुत आवश्यक है।”

यह पत्र पढ़कर जाने-माने प्रशासनिक अधिकारी, वी.पी. मेनन-जिन्होंने देशी रियासतों के एकीकरण में सरदार पटेल की भरपूर मदद की थी-ने मुंशी को एक पत्र लिखा-‘मैंने आपके इस अद्भुत पत्र को देखा है। जो बातें आपने पत्र में लिखी हैं, उनके लिए मैं तो जीने, और आवश्यकता पड़ने पर मरने के लिए भी तैयार हूं।‘

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सन् 2008 के शुरु में लिखी गई मेरी आत्मकथा में, मैंने वाजपेयी सरकार के दौरान अयोध्या विवाद के होने वाले समाधान के बारे में विस्तार से लिखा है। पृष्ठ 337-338 (हिन्दी) में मैंने लिखा:

”अयोध्या आंदोलन में प्रमुख भागीदार के रुप में राजग के छह वर्ष के शासन काल में मेरा प्रयास रहा कि यह विवाद शीघ्रतापूर्वक तथा शांति से कैसे सुलझाया जा सकता है।

”इस विवाद के समाधान के प्रमुख तीन विकल्प थे: (1) विधि द्वारा, (2) न्यायिक निर्णय द्वारा, तथा (3) हिंदू और मुस्लिम समुदायों के प्रतिनिधियों के बीच मैत्रीपूर्ण समझौते द्वारा।

”अयोध्या मुद्दे पर राजनीतिक और न्यायिक पहलुओं की भली प्रकार से समीक्षा के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अंतिम विकल्प ही सर्वोत्तम मार्ग था-मैंने अनेक अवसरों पर संसद् के भीतर और बाहर, इस विकल्प की चर्चा भी की थी।

”संक्षेप में, मेरा यह विचार था, ‘विधायी समाधान का खंडन नहीं किया जा सकता, लेकिन इसकी संभावना क्षीण है। न्यायिक प्रक्रिया से निर्णय के दोनों में से किसी एक पक्ष को दु:ख और कष्ट होगा। तीसरे विकल्प की स्वीकार्यता और उसके स्थायित्व की संभावना अधिक है तथा निस्संदेह परस्पर स्वीकार्य समझौते को भी न्यायपालिका की संतुति लेनी आवश्यक होगी, जिससे सभी लंबित मामले खत्म हो जाएंगे।

इस अर्थ में अंतिम समाधान विकल्प 2 और 3 का मिश्रित रुप होगा।

”मुझे यह प्रसन्नता है कि अटलजी और मैं इस रचनात्मक दृष्टिकोण का समर्थन करने के लिए राजग के सहयोगी दलों को राजी करने में सफल रहे। तद्नुसार, 2004 के संसदीय चुनावों के लिए इस गठबंधन के चुनाव घोषणा -पत्र में कहा गया था-‘राजग का विश्वास है कि अयोध्या मुद्दे के शीघ्र और मैत्रीपूर्ण समाधान से राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी। हमारा सदैव यही मानना रहा है कि इस विषय में न्यायिक निर्णय को सभी लोगों को स्वीकार करना चाहिए। साथ ही, परस्पर संवाद तथा आपसी विश्वास और सद्भावपूर्ण वातावरण से हुए एक सौहार्दपूर्ण समझौते के लिए भी प्रयासों को गति देनी चाहिए।

”मैं गर्व के साथ कह सकता हूं कि अटल बिहारी वाजपेयी के छह वर्षों के शासनकाल में गृहमंत्री के पद पर रहते हुए मैंने दोनों पक्षों को न्यायिक बातचीत के साझा मंच पर लाने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे इस प्रयास में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों के निष्ठावान मध्यस्थों ने सहयोग दिया। बातचीत के कई दौर के बाद अंतत: आपसी सहमति पर आधारित हल स्पष्ट दिखाई देने लगा था-और इस प्रकार रामजन्मभूमि पर एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी तैयार होने वाला था।

”वर्ष 2004 के आरंभ में ही इस आपसी समझौते के सिध्दांत तय कर लिये गए थे और यह निर्णय लिया गया कि मई में होने जा रहे चौदहवीं लोकसभा के चुनावों के तुरंत बाद इसकी घोषणा की जाएगी। वस्तुत: यह निर्णय इस उम्मीद पर लिया गया था कि लोकसभा चुनावों में वाजपेयी सरकार को नया बहुमत मिलेगा और तब वह इस समझौते को लागू करने की जिम्मेदारी स्वयं लेगी। लेकिन दुरर्भाग्य से ऐसा नहीं होना था।

”किन्तु मैं तो नियति में अटूट विश्वास रखता हूं। मुझे विश्वास है कि अयोध्या में रामजन्मभूमि पर एक भव्य और विराट् मंदिर बनना अवश्यंभावी है। ऐसा कैसे और कब होगा, इसका महत्व कम है और यह आनेवाला समय और इतिहास ही बताएगा। लेकिन यह बात उतनी ही सत्य है जितना कि सोमनाथ मंदिर का आक्रमणकारियों द्वारा बार-बार तोड़ा जाना और बार-बार उसे बनाया जाना तथा स्वतंत्रता मिलते ही उसका स्थायी रुप से पुनरुध्दार किया जाना।

”मेरे लिए यह गर्व की बात है कि शताब्दियों पुराने हिंदू संकल्प को पूरा करने के इस सामूहिक राष्ट्रीय प्रयास में मुझे अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिला। मेरा अपने मुस्लिम भाइयों से केवल इतना अनुरोध है कि वे हिंदुओं की तरह ही उदार और सद्भावपूर्ण पहल के साथ आगे आएं।”

आज मुझे यह कहते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है कि दो दिन पूर्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण निर्णय के बाद देश एक ऐसे संयोगजन्य मोड़ पर आ पहुंचा है जहां उपरोक्त लिखित विकल्प 2 और 3 के सम्मिश्रण के रुप में संभव हो सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी-दोनों ने ही जोर दिया है कि यह निर्णय देश में लाखों लोगों के इस विश्वास को मान्यता देता है कि जहां वर्तमान में रामलला विराजमान हैं-वही राम का जन्म स्थान है।

अब स्थिति आस्था बनाम कानून नहीं बल्कि कानून द्वारा आस्था की अनुमोदन करने वाली है।

8 COMMENTS

  1. आदरणीय आडवाणीजी ,
    अयोध्या की पावन भूमि पर भव्य राम मन्दिर निर्माण हेतु अतीत मेँ आपके द्वारा किये गये प्रयासोँ को इस महत्वपूर्ण आंदोलन से अलग नहीँ किया जा सकता , चाहे वे आपके लिये सत्ता प्राप्त करने के साधन मात्र रहे हो किन्तु फिर भी सोमनाथ से अयोध्या तक आपके द्वारा निकाली गयी यात्रा का ही परिणाम था कि भारत के कोने-कोने का हिन्दू रामजन्मभूमि आंदोलन से स्वयं का एक गहरा जुड़ाव अनुभव करने लगा और इसी जुड़ाव की परिणति आपकी सत्ता प्राप्ति मेँ एक महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हुई । यदि गहराई से चिँतन किया जाये तो राम मंदिर हेतु आपके लिये असल दिक्कत भी यहीँ से प्रारंभ हुई , जब भारत मेँ नित नये दल उग रहे थे और इनके सहयोगो के अभाव मेँ आपके लिये सत्ता संचालन असम्भव था तो हो सकता है चाहते हुए भी आप राम मन्दिर निर्माण हेतु वे प्रयास न कर पाये हो जैसी आशा एक रामभक्त ने आपसे तब लगायी थी जब आप आंदोलन के दौरान पूरे जय जोश से जय जय श्रीराम का उद्घोष करते थे । आपने सुचारु रुप से सत्ता संचालन करते हुए विभिन्न क्षेत्रो मेँ कई कीर्तिमान भी स्थापित किये जो भारत के भविष्य मेँ आपके अविस्मरणीय योगदान के रुप मेँ याद किये जाते रहेँगे लेकिन जिस राम मन्दिर निर्माण का स्वप्न आपने दिखाया था उसे आप साकार न कर सके यही एक मुख्य कारण रहा कि आप पुन: सत्ता मेँ न आ पाये , आमनागरिकोँ को यह आभास हुआ कि राम मन्दिर आंदोलन आपके लिये केवल एक सीढ़ी भर था जिस पर चढ़कर आप सत्ता की ऊँचाईयोँ पर पहुँचे अन्यथा तो सभी को यह स्वीकारने मेँ ज्यादा संशय नहीँ था कि अटलजी का शासनकाल एक आम भारतीय की द्रष्टि से स्वर्णिम रहा जिसमेँ आम लोगोँ की भलाई के लिये कई ऐतिहासिक योजनायेँ साकार हुई लेकिन बस एक भव्य राममन्दिर का निर्माण ही न हो पाया बस सभी को अनुभव हुआ कि उन्हेँ ठगा गया ।
    बहरहाल ‘ बीति ताहिँ बिसार देँ आगे की सुध लेई ‘ के वाक्य को मूर्तरुप देते हुये आप जैसे लोगोँ का परम कर्त्तव्य बनता है कि जैसे भी हो ( आपने तीन विकल्प तो सुझाये ही है ) अयोध्या की पावन भूमि पर भव्य राममन्दिर का निर्माण किया जाये क्योँकि राम युगोँ-युगोँ से जन-जन की आस्था मेँ समाये हुए हैँ अब यही आस्था चाहती है कि अब और नहीँ ।

  2. अयोध्या मे श्री राम का भव्य मन्दिर हिन्दु नव-जागरण को बल देगा, इसमे कोई सन्शय नही और जैसा आपने कहा वहा मन्दिर ही बनेगा अन्य कुछ नही.
    वैसे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात हिन्दु स्वाभिमान जगाने के लिये इस देश की जनता आपकी सदैव आभारी रहेगी.

  3. आदरणीय आडवानी जी
    सादर नमस्कार /
    आप शुरू से अयोध्या में राम मंदिर बनाने के पक्षधर रहे इसमे किसी को कोई संदेह नहीं है/ लेकिन जब आप सत्ता में आये और उसके बाद इस दिशा में कोई ठोस कारर्वाई नहीं हुई तो लोगो को लगाने लगा की उनके साथ धोखा हुआ है/ जिसका परिणाम हुआ की बीजेपी से न सिर्फ जनता नाराज़ हुई बल्कि रस और विहिप भी नाराज़ हुए/ लेकिन मुझे लोकसभा चुनाव २००९ का वो दिन आज भी याद है जब मई १ प्रतिनिधि मंडल के साथ आपके डेल्ही आवास पर हरिद्वार से स्वामी चिन्मयानंद को लोकसभा का टिकट देने का निवेदन करने गया था और जब संतो ने आप से जय श्री राम कहा था तो आने पलटते ही कहा था की जय श्रीराम तो तब होगा जब अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण होगा/ लेकिन जब आप ने सवामी चिन्मयानंद को हरिद्वार से टिकट नहीं दिया तो संत समाज ने यही कहा की आडवानी जी ने जिस तरह से जनता को राम मंदिर के नाम पर ठगा उसी तरह से संतो के प्रतिनिधि मंडल को भी ठग लिया / खैर मई ये बात इसलिए लिख रहा हु क्योकि मई आपका बचपन से फैन रहा हु/ आपकी आत्मकथा माय कंट्री माय लाइफ १ ही झटके में पद गया था क्यों की मई जिसका फैन था वो लाल कृष्ण आडवाणी लौह पुरुष था और जिससे मई मिलके आया था वो १ मजबूर आडवानी लगा / खैर आपने राम मंदिर के लिए काफी कुछ किया है इसलिए अब वक्त आ गया है की अयोध्या में भव्य राम मंदिर की निर्माण की दिशा में आप अपनी भूमिका का निरावाहन करे /

  4. सरजी आपने बिलकुल सत्य कथन उद्घोषित किया है …आने वाले प्रत्येक उस विमर्श में जहां अयोध्या के इस विबाद के लखनऊ खंडपीठ के फैसले की चर्चा होगी ,आपके इस कथन को एतिहासिक तथ्यात्मक नजीर के रूप में पेश किया जायेगा .
    “अब स्थिति आस्था बनाम क़ानून नहीं बल्कि क़ानून द्वारा आस्था की अनुमोदन करने वाली है ”
    सरजी आप इसी प्रवक्ता .कॉम पर श्री जगदीश्वर जी चतुर्वेदी के विगत ३-४ दिनों की पोस्ट का गहराई से अध्यन करें तो आपको ताजुब होगा की घूम फिरकर उनका भी निष्कर्ष यही है जो आपकी उपरोक्त पोस्ट का अंतिम वाक्य प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत हो रहा है… .फर्क ये है की कुछ लोग आपको और हिंदुत्व को बदनाम करने के लिए इसी नजीर के लिए जो आप पेश कर रहे हैं -श्री चतुर्वेदी जी और अन्य तमाम विद्द्वानो को गरिया रहे हैं .क्यों ?क्या सिर्फ इसी लिए की वे धर्मनिरपेक्ष या जनवादी विचारों को वैज्ञानिकता से सायुज्य देखते हैं .वे सभी में ब्रह्म देखते हैं .क्या ऐसा सिद्धांत भारतीय दर्शन से एकरूप नहीं ?
    अयं निजः परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम …उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बकम …
    इसमें समता ..समाजवाद …धर्मनिरपेक्षता …है या नहीं ? यदि है तो जो लोग आस्था के नाम पर या संघ pariwaar में अपनी वैयक्तिक pragati के नाम पर apne hi भारतीय विद्द्वानो पर vish vaman कर रहे vo anuchit है या नहीं .

    • “अब स्थिति आस्था बनाम कानून नहीं बल्कि कानून द्वारा आस्था की अनुमोदन करने वाली है।”
      आप से ऐसी नासमझी की उम्मीद न थी यहाँ कानून द्वारा आस्था का अनुमोदन तथ्यात्मक है क्योंकि कानून तो अँधा होता है

  5. बहुत अच्छा लिखा आपने,
    बीजेपी का कार्यकाल जिस स्टेट में है वहा पैर विकास की बारिस हो रही है यह मई अपने MP में देख रहा हूँ क्यिंकि वह पर कांगेस ने सिर्फ भास्ताचार किया है कुछ nahi

  6. आडवानी जी प्रणाम,
    आप हिंदुस्तान के इतने बड़े नेता हैं आपके लिए राम मंदिर बनवाना इतनी बड़ी बात नहीं थी जितनी आज प्रतीत हो रही है, बस अगर जरुरत थी तो दृढ इच्छाशक्ती जो शायद कभी आप में दिखती थी पर अफ़सोस आपने भी राम का इस्तेमाल अपनी जरुरत के हिसाब से खाली सत्तापाने के साधन के रूप में किया उस भगवान् राम का जिनके लिए सत्ता का कोई मोल नहीं था वर्ना वो कभी आपके अजेंडे में सबसे ऊपर हुआ करते थे पर धीरे धीरे आप उनसे पीछा छुड़ाने लगे और एक दिन उनको अपने अजेंडे से ही बाहर कर दिया उसका नतीजा क्या हुआ आप सदा के लिए सत्ता से बाहर हो गए. अगर आप चाहते तो हमारे देश के मुस्लिम इतने बुरे नहीं थे की उनको रामजन्म भूमि की अहमियत हिंदुवो के लिए क्या है ये समझाने में आप जैसे नेता को इतना वक्त लगता. पर जब राम को लेकर आप जैसे इतने बड़े हिंदूवादी नेता उहापोह की स्थिति में हो अन्य मुस्लिम वोट बैंक के लोलुप नेतावों या मुस्लिमो से ही हम क्यों उम्मीद करें. मुझे नहीं पता मेरे ये शब्द जो हर राम भक्त सोचता है वो आपतक पहुंचेंगे या नहीं पर आप सायद खुद भी इससे सहमत होंगे.
    आशा है अब तो आप भगवान् राम के सिर पर छत लाने के लिए पूर्ण निष्ठा से प्रयास करेंगे…

    धन्यवाद्

    मुकेश चन्द्र मिश्र

    https://www.pravakta.com/?p=13999

  7. यह लड़ाई विचारधाराओं की है और देश में मौजूद तथाकथित धर्मनिरपेक्ष एवं वाम पंथी शक्तियां हिन्दू धर्म की अवधारणाओं को सकारात्मक दृष्टिकोण से नहीं देखतीं .

    उनकी दृष्टि में राम राष्ट्रीय न होकर सांप्रदायिक हो जाते हैं . यही कारण है कि राम मंदिर के प्रस्ताव को समर्थन करने वाले हर व्यक्ति को अंग्रेज़ी सूचना तंत्र पूर्ण रूप से हिन्दू सांप्रदायिक तत्व घोषित करने लगता है .

    इस परिस्थिति को बदलने का उपाय विचारधारा की इस लड़ाई को जीतना ही हो सकता है . इसमें महत्त्वपूर्ण बात यह सामने लाना होगा कि राम मंदिर मुस्लिम विरोधी नहीं है एवं जो विचारधारा इस प्रयास को आगे बढ़ा रही है वह हिन्दू धर्म में सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध है . कारण कि राम मंदिर के आन्दोलन का विरोध करने वाले एक स्वर में यही कहते हैं कि यह आन्दोलन मूल रूप से हिन्दू सांप्रदायिक एवं रूढ़िवादी शक्तियों का पुनर्स्थापना प्रयास है .

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