वेदधर्म की रक्षा मन्दिरों में साप्ताहिक सत्संगों तथा पूजा-पाठ मात्र करने से सम्भव नहीं

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

               वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है और धर्म का आदि मूल है। महाभारत तक वेद फलता फूलता रहा। महाभारत युद्ध उसके बाद के 2,500 वर्षों तक तक पूरे विश्व का धर्म एकमात्र वेद ही था। महाभारत युद्ध की भीषण हानि के कारण सभी व्यवस्थायें अस्तव्यस्त भंग हो र्गइं। इस कारण धर्म के प्रचार प्रसार का कार्य बाधित हुआ। हमारे कुछ धर्म प्रचारक लोगों के आलस्य प्रमाद के कारण विद्या का अध्ययनअध्यापन भी बाधित हुआ। इस कारण से समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास तथा मिथ्या परम्परायें आरम्भ हुई। कालान्तर में वैदिक धर्म में उत्पन्न अन्धविश्वासों तथा धर्मानुष्ठानों में पशु-हिंसा आदि कारणों से बौद्ध व जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ। धर्म में जो धर्म विरुद्ध बातें हो रही थी, इस कारण से इन मतों ने ईश्वर के अस्तित्व को ही तिलांजलिदे दी। यह मत अपने समय में खूब फले व फूले। ऐसे समय में ही दक्षिणात्य स्वामी शंकाराचार्य जी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने वैदिक धर्म की रक्षा पर विचार किया और वेदान्त मत का प्रचार किया। इस मत की मान्यता थी कि संसार में भौतिक किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। जो कुछ भी है वह केवल सर्वव्यापक ईश्वर है। उन्होंने ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या का सिद्धान्त दिया।

               स्वामी शंकाराचार्य जी ने जैन मत के आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। शंकाराचार्य जी ने अपना मत सत्य सिद्ध किया। प्रतिपक्षी अपना मत सिद्ध नहीं कर सके। इस कारण से नास्तिक मतों का पराभव तथा स्वामी शंकराचार्य जी के मत की जय हुई। इसके बाद संसार में अन्य मतों का आविर्भाव होना आरम्भ हुआ। इन नये मतों ने ईश्वर, धर्म अहिंसा के यथार्थ स्वरूप को जानने के कारण अनेक प्रकार के अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या आस्थायें एवं मान्यताओं को स्वीकार किया। इनके प्रचारकों ने सारे विश्व में जाकर प्रचार किया। भारत पहुंच कर यहां की भोलीभाली धर्म का आचरण करने वाली जनता को छल, बल, हिंसा आदि से पराजित कर गुलाम बनाया, देश को लूटा, हत्यायें कीं तथा भारतीय स्त्रियों का अपमान किया। आठवीं शताब्दी में देश गुलाम हो गया था जो सन् 1947 में आंशिक आजादी के रूप में मिला। देश को कुछ ऐसी बातें विरासत में मिली जो हमारे वैदिक धर्म व संस्कृति के लिये अत्यन्त अनीष्ट एवं हानिकारक थीं। हमारे शासक भी वेद के मानने वाले न होकर विदेशी मतों के पोषक व हितैषी थे। यदि ऋषि दयानन्द (1835-1883) का आगमन न हुआ होता तो शायद वैदिक व सनातन धर्म कब का समाप्त हो गया होता। ऋषि दयानन्द के वेदोद्धार, वेद प्रचार तथा समाज सुधार कार्यों के कारण हमारा धर्म बचा है। आज भी धर्म पर खतरे मण्डरा रहे हैं और हमारे धर्म के नेता व विद्वान शिथिल हैं। वह आसन्न संकटों की उपेक्षा कर धर्म रक्षा की भी अवहेलना व उपेक्षा कर रहे हैं। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक प्रतीत होती है।

               धर्म रक्षा स्वतः होने वाली वस्तु नहीं है। धर्म की रक्षा करनी पड़ती है। यदि नहीं करेंगे तो धर्म सुरक्षित नहीं रह सकता। इसका स्थान कोई मत-मतान्तर ले लेगा। विश्व के अनेक देशों में ऐसा हुआ है। वह अपने पूर्व मत व धर्म में स्थिर नहीं रहे सके। वहां जो प्रचारक गये, उन्होंने छल व बल से उन्हें अपने मत को मानने वाला बना लिया। देश में भावी वह मत का स्थान वह मत लेगा जो अपने मत के प्रचार के लिये पुरुषार्थ व सुनोजित तरीके से कार्य कर रहा है। आर्यसमाज तथा सनातन धर्म के कुछ विद्वान इन बातों व षडयन्त्रों को जानते हैं। सनातन धर्म में धर्म प्रचार जैसी कोई योजना व भावना दृष्टिगोचर नहीं होती। वह प्रचार करें तो किस चीज का? उनका न तो एक ईश्वर है न एक मान्यतायें। उनका मत व धर्म विविधताओं से भरा है। उनकी मान्यताओं का तर्क संगत आधार भी नहीं है। धर्म रक्षा यदि कोई कर सकता है तो वह केवल वैदिक धर्म का आचरण करने वाला आर्यसमाज ही कर सकता है। अनेक अज्ञात शक्तियों ने सुनोजित तरीके से इसे शिथिल निस्तेज कर दिया है। आजकल आर्यसमाज का प्रचार ठप्प है। इसके विपरीत विधर्मी देश के दूरस्थ दुर्गम, आदिवासियों, वनवासियों तथा निर्धन पिछड़ी जातियों में गुपचुप प्रचार कर रहे हैं। हमारी व्यवस्थायें एवं कुछ राजनीतिक दल भी उनके सहायक हैं। देश में जो विधर्मी हैं यह कहीं बाहर से नहीं आये अपितु मुट्ठी भर लोगों ने भारत में आकर यहां के लोगों का छल, बल, भय तथा लोभ आदि के द्वारा धर्मान्तरण कर इन्हें विधर्मी बनाया है। आज ये लोग प्रबल हो गये हैं और सनातन धर्म तथा आर्यसमाज निर्बल व किंकर्तव्यविमूढ़ दीखते हैं। यह स्थिति चिन्ताजनक है।

               आर्यसमाज विश्व का श्रेष्ठतम धार्मिक संगठन है। इसकी सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित है। आर्यसमाज अपनी प्रत्येक मान्यता को सत्य की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार करता है। आर्यसमाज के पास ईश्वरीय ज्ञान वेद की पुस्तकें हैं। वेद में संसार की सब सत्य विद्यायें हैं। वेद ही धर्म का मूल है। अन्य सब तो मतमतान्तर हैं जिनमें कम या अधिक अविद्यायुक्त तथा मिथ्या बातें विद्यमान हैं। ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप भी वेदेतर मत-मतान्तरों में प्राप्त नहीं होता। आर्यसमाज का अपना राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी है। अतीत में इसने धर्म प्रचार का महनीय व प्रशंसनीय कार्य भी किया है। इसके प्रमुख विद्वानों व नेताओं को विधर्मियों ने शहीद कर दिया था। ऋषि दयानन्द जी की भी रहस्यमय रूप से मृत्यु हुई थी। देश की आजादी के बाद कुछ बाह्य व भीतरी अज्ञात व गुप्त षडन्यत्रों के कारण आर्यसमाज धीरे धीरे शिथिल होता गया। आजकल आर्यसमाज के द्वारा समाज मन्दिरों से बाहर धर्म का प्रचार प्रायः ठप्प है। सुदूर वनों तथा आदिवासियों में संगठन व धर्म प्रचार देखने को मिलता ही नहीं है। विदेशी धर्म प्रचारक जहां जहां दूरस्थ स्थानों पर प्रचार कर रहे हैं वहां आर्यसमाज की उपस्थिति नहीं है। कैसे व कब तक इन प्रदेशों व स्थानों के निवासी अपने मूल वेद व सनातन धर्म में बने रह सकते हैं? इन्हें धर्मान्तरित करने के लिये विदेशों से भारी मात्रा में धन आता है। सेवा के नाम पर इन्हें फंसाया जाता है। सरकारें इन बंन्धुओं को सुखी जीवन देने में असमर्थ रहीं हैं। भय व प्रलोभन से हमारे बहुत से बन्धु विधर्मी हो गये जो आज भी जारी है। अतः आर्यसमाज व सनातन धर्म दोनों के लिए धर्म रक्षा एक मुख्य समस्या है। यह कैसे होगी, कौन करेगा, इसका कोई उपाय दृष्टिगोचर नहीं होता। पालघर की घटना ने एक बार पुनः देशवासियों मुख्यतः सनातनधर्मियों एवं आर्यसमाज का ध्यान धर्मरक्षा की ओर खींचा है। कुछ दिन कुछ लोग इस पर चर्चा करेंगे और एक दो सप्ताह बाद भूल जायेंगे। विरोधी राजनीतिक दल व अन्य संगठन ऐसा ही समझते हैं। किसी में खुल कर सत्य कहने का साहस नहीं है। ऐसी अवस्था में समस्या का समाधान होना असम्भव है। हम तो यह विचार कर भी चिन्तित हो जाते हैं कि जो लोग ऐसे दुर्गम व पिछड़े स्थानों पर रहते हैं जहां संगठित रूप से विदेशी व देशी वेदविरोधी लोग धर्म प्रचार का काम कर रहे हैं, उन बन्धुओं को अपने धर्म को सुरक्षित रखने के लिये क्या क्या कष्ट, दुःख व यातनायें सहन करनी पड़ती होंगी? हम दिल से उनको नमन करते हैं। उनके धर्म प्रेम और साहस की प्रशंसा करते हैं। असली धर्म प्रेमी व धर्म के मर्म को जानने वाले यही हमारे बन्धु हैं। धर्म रक्षा का श्रेय हमारे उन विद्वानों को नहीं है जो पुस्तकें पढ़ कर प्रवचन मात्र देकर सन्तुष्ट रहते हैं।

               हम हिन्दुओं की निरन्तर कम होती जा रही जनसंख्या से भी चिन्तित विचलित होते हैं। समय समय पर टीवी पर भी इस विषय की चर्चा होती है। इसी कारण बहुत से देशभक्त देश में जनसंख्या नियंत्रण नीति की मांग भी करते हैं। सरकार के एजेण्डे में भी यह विषय सम्मिलित है। अनेक मतमतान्तरों के लोग येन केन प्रकारेण अपनी अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं। कोई धर्मान्तर कर रहा है तो कोई अधिक सन्तानें उत्पन्न कर रहे हैं। इसके परिणाम क्या होंगे हम आसानी से जान सकते हैं। ऐसा लगता है कि भविष्य में हम पुनः विधर्मियों से शासित होने पर मजबूर होंगे? अभी समय है, परन्तु बिना जागे और तप, त्याग व बलिदान किये हम वेदों व वेदधर्म की रक्षा नहीं कर सकते। हम आर्यसमाज, सनातन धर्म और आर्य समाज के विद्वानों तथा ऋषि दयानन्द के अनुयायियों से निवेदन करते हैं कि वह धर्म रक्षा की चुनौतियों पर विचार करें और धर्मरक्षा के उपाय करें। हमने केवल स्थिति बताने व सावधान करने के लिये निवेदन किया है। हमारा किसी से कोई राग द्वेष नहीं है परन्तु हम यह चाहते हैं कि सभी सत्य का ग्रहण व असत्य का परित्याग करें। मनु महाराज ने कहा है कि जो धर्म की रक्षा करता है धर्म भी उसकी रक्षा करता है। जो धर्म की रक्षा नहीं करता धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। मनु जी ने हमें सावधान भी किया है। उनके अनुसार धर्म की रक्षा करना आवश्यक है अन्यथा धर्म की उपेक्षा करने वाले की उस उपेक्षित धर्म के द्वारा ही हत्या भी हो सकती है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमारे विद्वानों व नेताओं को सद्बुद्धि प्रदान करे और उनको धर्म रक्षा की प्रेरणा करें। ओ३म् शम्। 

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