अत्यंत दुःखद है भारत का कोई राष्ट्रभाषा नहीं होना

अशोक प्रवृद्ध

यह अत्यंत दुर्भाग्यजनक स्थिति है कि भारत का आज तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है और न ही भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। हाँ, यह सच है कि केन्द्र सरकार ने अपने कार्यों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की है, और असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती आदि बाईस स्थानीय भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दी है, जिसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकारें अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। वर्तमान में सभी 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। 2010 में गुजरात उच्च न्यायालय ने भी सभी भाषाओं को समान अधिकार के साथ रखने की बात की थी, हालांकि न्यायालयों और कई स्थानों में सिर्फ और सिर्फ विदेशी अंग्रेजी भाषा को ही जगह दिया गया है।

उल्लेखनीय है कि भारत की जन- जन की प्रिय भाषा हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय- आर्य भाषा है। सन 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.79 करोड़ भारतीय हिन्दी भाषा का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी पचास से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के आँकड़े में हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। समस्त रूपों में राष्ट्रभाषा का स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखते हुए भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाना राष्ट्रप्रेमियों के लिए अत्यंत दुःखदायक है। ध्यातव्य हो कि समस्त राष्ट्र में जन- जन के विचार विनिमय का माध्यम जो भाषा हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। इस प्रकार राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ हुआ – समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त होने वाली भाषा अर्थात आमजन की भाषा अर्थात जनभाषा। राष्ट्रभाषा ही राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं, किन्तु जब राष्ट्र की जनता स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही भाषा राष्ट्रभाषा होती है। स्वाधीनता संग्राम जैसी स्थिति में राष्ट्रभाषा की आवश्यकता महसूस होती है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के समय भी ऐसी आवश्यकता स्वाधीनता सेनानियों को महसूस हुई, तो इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी भाषा  ने ही की। और स्वाधीनता संग्राम के दौरान ही हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी और इस भूमिका को बखूबी निभाई भी। लेकिन क्षोभकारक स्थिति यह है कि हिन्दी आज भी हमारी राष्ट्रभाषा न होकर राजभाषा है और राष्ट्रप्रेमियों के लाख कोशिश के बाद भी आज तक यह राजभाषा के दर्जे से आगे बढ़कर राष्ट्रभाषा के सम्मानित स्थान को प्राप्त करने में असफल रही है। इसके असफल होने के पीछे एक गहरा षड्यंत्र काम करता रहा है। जहां राजनीतिक लोगों की संकीर्ण राजनीतिक सोच इसके लिए जिम्मेदार है, वहीं कुछ अन्य सामाजिक संगठन व भाषाई पूर्वाग्रह रखने वाले लोगों को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। भारत, भारतीय और भारतीयता के विरोधियों की फैलाई गई भ्रान्ति के अनुसार भारत विविधताओं का देश है, और इन सारी विभिन्नताओं को ज्यों का त्यों बनाए रखकर इसकी एकता स्थापित की जानी चाहिए। जबकि ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं कि सारी विभिन्नताओं को पृथक -पृथक दूध पिला पालते- पोसते हुए एकता – समन्वय हो सके। एकता के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्नताओं के उभरते स्वरूपों को शनैः- शनैः निःशेषप्राय समाप्त कर दिया जाए और एक स्थान पर लाकर सबको सहमत कर लिया जाए । लेकिन ठीक इसके विपरीत देश में विभिन्नताओं को बनाए रखने के लिए राजनेताओं ने भारत की अनेकों भाषाओं को दूध पिला- पिला कर उन्हें भारत की राजभाषा की विरोधी बनाने का घृणित कार्य किया है। देश की सभी भाषाएं अपने स्थान पर सम्मान पूर्ण ढंग से बनी रहें , यह प्रयास करना एक अलग बात है, लेकिन इससे बड़ी श्रेष्ठ व प्रशंसनीय बात यह है कि देश की सभी भाषाओं को इतना उदार और सहिष्णु बना देना कि वह राजभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित कर सकें । जिसके लिए प्रयास किया जाना अपेक्षित था, लेकिन वह भारत विभाजन के पश्चात सतराधिक वर्षों में नहीं हो सका। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा 14 सितंबर 1949 को मिला था, लेकिन राष्ट्रभाषा की दर्जा देने को लेकर लंबी बहसें चली और परिणाम कुछ नहीं निकला। जबकि देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के कारण ही मोहन दास करमचन्द गांधी ने हिन्दी को जनमानस की भाषा कहा था, और वर्ष 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। गांधी के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी। लेकिन ठीक इसके विपरीत नेहरू के शासनकाल में हिन्दी को एक खिचड़ी भाषा के रूप में विकसित करने का अतार्किक और अवैज्ञानिक प्रयास किया गया। शासकीय स्तर पर हिन्दी में देश की सभी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर एक ऐसी खिचड़ी भाषा  बना लेने की कोशिश की गई,जिस पर किसी को आपत्ति न हो । देखने में तो अच्छा लगने वाला यह प्रयास वास्तव में हिन्दी का सर्वनाश करने वाला सिद्ध हुआ।

उल्लेखनीय यह भी है कि संविधान निर्माण के समय भी निर्माताओं के समक्ष भी यह प्रश्न बड़ी गंभीरता से सामने आया कि देश की राष्ट्रभाषा किसे बनाया जाए? यह अत्यंत दुखद स्थिति है कि हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा और देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि होने के बाद भी यह प्रश्न संविधान निर्माताओं के समक्ष उपस्थित हुआ कि देश के संविधान को किस भाषा में लिखा जाए ? उस समय कभी हिन्दी की वकालत करने वाले गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने हिंदुस्तानी अर्थात हिन्दी और ऊर्दू के मिश्रित भाषा का समर्थन किया। उस समय विभाजन की पीड़ा से पीड़ित बहुत से सदस्य गांधी और नेहरू के उपरोक्त खिचड़ी भाषा के प्रस्ताव से असहमति रखते थे और उन्होंने गांधी नेहरू के इस प्रस्ताव को गिरा दिया गया, परन्तु बाद में जब नेहरू देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपनी बात को ही सर्वोपरि रखने के लिए खिचड़ी भाषा हिंदुस्तानी के प्रयोग को ही जारी रखना उचित समझा और उन्होंने जबरन ऐसा ही किया। संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा में बैठकर बहस करने वाले कुछ सदस्य ऐसे थे जो हिंदुस्तानी और हिन्दी में अपनी बातों को कहने का प्रयास करने वालों का विरोध करते थे । ऐसे सदस्य हिंदुस्तानी और हिन्दी में  रखे गये किसी भी वक्तव्य का अनुवाद अंग्रेजी में करने की मांग करते थे। इससे हिन्दी विरोध की गूंज संविधान सभा में रह रहकर उठने लगी । मुट्ठी भर सदस्य हिन्दी विरोध के नाम पर लामबंद होने लगे । ये लोग नहीं चाहते थे कि हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान प्राप्त करे। दक्षिण भारत के कुछ बड़बोले नेताओं ने तो इस मुद्दे पर देश के बंटवारे की चेतावनी तक दे डाली । फिर भी लंबी बहस के बाद संविधान सभा ने यह फैसला लिया कि भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागिरी लिपि होगी, और संविधान लागू होने के 15 वर्ष पश्चात अर्थात 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे। उसके बाद इस विषय पर विचार कर हिन्दी को राष्ट्रभाषा की दर्जा दिए जाने पर कोई निर्णय लिया जाएगा । हिन्दी समर्थक नेताओं बालकृष्णन शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेजी का पुरजोर विरोध किया, लेकिन विदेशी भाषा समर्थकों के आगे इनके एक न चली। संबिधान सभा के फैसले के अनुसार 1965 में राष्ट्रभाषा पर फैसला लेने का समय आया तो, तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का निर्णय ले लिया था लेकिन इसके बाद तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन हुए। प्रदर्शन के दौरान दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में हिन्दी की पुस्तकें जलाई गईं, कई लोगों ने तमिल भाषा के समर्थन के लिए अपनी जान तक दे दी, जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने अपने निर्णय पर नर्मी दिखाई और घोषणा की कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी काम- काज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है। कांग्रेस के फैसले में कहा गया कि केंद्रीय स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग किया जाएगा और इस प्रकार हिन्दी के कड़े विरोध के बाद देश की केवल राजभाषा बनकर ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। ऐसे कांग्रेसियों का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित कर रही थीं। तब से लेकर अब तक हिन्दी को उसका सर्वोच्च स्थान अर्थात राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने के सम्बन्ध में कोई विशेष कार्रवाई नहीं हो सकी है, जबकि हर वर्ष हिन्दी दिवसादि पर हिन्दी भाषा से सम्बन्धित अनेकानेक कार्यक्रम सरकारी- गैरसरकारी स्तर पर आयोजित किये जाते रहे हैं । प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के केन्द्रीय सत्ता में सत्तारुढ़ होने के बाद हिन्दी के राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने और जन -जन के प्रिय भारत की इस भाषा के दिन बहुरने की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन खेदजनक स्थिति यह है कि अब तक इस सन्दर्भ में मोदी सरकार के द्वारा कुछ नहीं किया गया ।

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