तो यह अत्यंत कल्याणकारी सिद्ध होगा

अशोक “प्रवृद्ध”

 

चतुर्दिक स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारियों के मध्य भारतीयों को भारत विभाजन का स्मरण और उस पर टीस उत्पन्न होना भी स्वाभाविक है, और यह भी सत्य है कि वर्तमान समय में हर भारतीय के मन में कहीं न कहीं देश विभाजन का दर्द अवश्य ही पलता रहा है । कुछ लोगों के अनुसार हाल के दिनों में भारत, भारतीय और भारतीयता और अखंड भारत का मुद्दा एक बार पुनः तेजी से उभरा है। पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक और भावनात्मक कई ऐसी वजहें हैं जिससे लोगों का बिश्वास इस बात पर मजबूत हुआ है कि भारत अपने बिछड़े हिस्सों के साथ एक होकर रहेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के प्रमुखों के आने और फिर उनकी विदेश यात्राओं को लेकर भी बुद्धिजीवियों ने इस मुद्दे की ओर साफ इशारे किए हैं।

अखंड भारत या वृहत्तर भारत के रूप में ब्रिटिश कालीन भारत के नक़्शे के विपरीत  इतिहासकारों ने माना है कि 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले दो हजार पांच सौ सालों में हुआ 24वां भौगोलिक और राजनीतिक विभाजन था। 1857 से 1947 के बीच अंग्रेजों ने तो भारत को सात बार ही तोड़ा। विगत दो सौ वर्षों में अपनी एक तिहाई जमीन खो चुके भारत देश को इतिहासकारों ने ईरान, वियतनाम, कंबोड़िया, मलेशिया, फिलीपींस, श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तिब्बत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और बर्मा से जोड़ा है। वहीं धार्मिक प्रवृति के लोग अखंड भारत के रूप में वाल्मिकी रामायण के नवद्वीप भारत का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। आज से मात्र 1255 वर्ष पहले तक अखंड भारत की सीमा में अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, मालदीव और अन्य कई छोटे-बड़े क्षेत्र हुआ करते थे। हालांकि सभी क्षेत्र के राजा अलग अलग होते थे लेकिन कहलाते थे सभी भारतीय जनपद। आज इस संपूर्ण क्षेत्र को अखंड भारत कहा जाता है। आज जिसे हम भारत कहते हैं, वह उसका कुछ अंश ही है, जिसका नाम हिन्दुस्तान है। पहले भारत अखंड और वृहत था। जाति, भाषा, प्रांत और धर्म के नाम पर अखंड भारत को खंड-खंड कर दिया गया।

 

पुरातन इतिहास के अनुसार प्राचीन जम्बूद्वीप से लेकर आज का सिमटा भारत अर्थात हिन्दुस्तान संपूर्ण क्षेत्र में पूर्व में आर्यों अर्थात हिन्दुओं का वास था। जहां तक प्राचीन भारतवर्ष का संबंध है तो इसकी सीमाएं हिन्दुकुश से लेकर अरुणाचल, कश्मीर से कन्याकुमारी तक और एक ओर जहां पूर्व में अरुणाचल से लेकर इंडोनेशिया तक और पश्चिम में हिन्दुकुश से लेकर अरब की खाड़ी तक फैली थीं। लेकिन समय और संघर्ष के चलते अब भारत ‘इंडिया’ बन गया है।

सम्पूर्ण पृथ्वी को यदि जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण किया जाता है तो सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। इसमें से प्राचीन नाम जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा इन्दू सरोवरम् जिसे आज हिन्दू महासागर कहते हैं, के निवासी भारतवासी मने जाते हैं हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी सागरमाथा, गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा। भारतवासी पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि,वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में अंकित है –

 

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।

 वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।

 

अर्थात्- हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं।

 

जम्बू द्वीप और भारत राष्ट्र अर्थात देश के सनातन विचार का स्पष्ट प्रमाण भारतीय समाज में किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प करने की प्रचलित एक सनातन परम्परा संकल्प स्वयं में एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता  की पहचान अंकित करने की आदि सनातन काल से निर्बाद्ध चली आ रही परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है।

 

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश पाये जाते हैं उस समय देश नहीं थे। भले ही इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं,परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक होता था। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द बाज भी संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा,संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और आज भी होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।

 

यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप से ज्यादा सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामरिक और आर्थिक हमले और कहीं नहीं हुए हैं। ऐसे उतार-चढ़ाव के मध्य भारतीय इतिहास में यह परिवर्तन क्यों नहीं हो सकता अर्थात ऐसी तब्दीली क्यों आ सकती जो जर्मनी बंटने के 50 वर्षों के भीतर ही वहां मुमकिन होती देखी गई। बर्लिन की दीवार ढह गई । दो हजार सालों के बाद इजरायल का गठन भी किसी मजबूत उदाहरण से कम नहीं। स्मरणीय है कि मोहम्मद गोरी के आखिरी हमले के बाद से लेकर आज तक भारत के इतिहास ने कई उल्लेखनीय करवटें ली हैं।

indiaगौरतलब है कि वृहत्तर भारत की योजना को यूरोपीय महासंघ (यूई) के समान भी देखने की कोशिशें की जाती रही  है। भारत और उसके बिछ़ड़े हिस्सों अथवा पड़ोसी देशों (चीन के अतिरक्त) में हो रही कठिनाइयों, दिक्कतों का हवाला भी दिया जाता रहा है । इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन से भारत और साथी देशों का बड़ा नुकसान हुआ है। व्यापार, पर्यटन, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्वतमाला, नदियों, खानपान, वेशभूषा, भाषा- बोली तक प्रभावित हुआ है। बंगाल, पंजाब, कश्मीर की पूरी भूसंस्कृति टूटी। साझी विरासत, साझे पूर्वज, महापुरुष, साझा इतिहास तक पर बुरा असर पहुंचा है और अपूरणीय क्षति हुई है । 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। नौ पड़ोसी देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है। चीनी, कपड़ा, कपास, चावल, पेट्रोल तक के कारोबार के साथ ही राजनीति, खेल, युद्ध, मनोरंजन जैसे मुद्दे भी नुकसान से बचे नहीं रहे। विश्व इतिहास साक्षी है कि यूनानी (रोमन-ग्रीक), यवन, हूण, शक, कुषाण, सीरियन, पुर्तगाली, फ्रेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल और अंग्रेज सभी हमलावरों ने भारतवर्ष (हिन्दुस्तान) पर आक्रमण किया है। इन पुराने हमलावरों के द्वारा अफगानिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल, तिब्बत, भूटान, पाकिस्तान, मलेशिया या बांग्लादेश पर आक्रमण किये जाने का कोई उल्लेख विश्व इतिहास में प्राप्त नहीं होता  ।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति और विश्व इतिहास के जानकारों के अनुसार, अगर इन दस देशों का समूह बन जाए तो प्रत्येक देश से भय को मिटाने की सामूहिक कोशिश अंततः सफल होगी, और राजनीति वोटबैंक से बाहर आएगी। प्रतिवर्ष रक्षा मद के हजारों करोड़ों रुपये बचेंगे और चतुर्दिक समग्र व सर्वांगीण विकास पर इसे खर्च किया जा सकेगा। नागरिकों को आसानी व सहूलियत होने के कारण भारतीय परंपराएं, सभ्यता और इतिहास सुरक्षित और इसके साथ ही हमारा भविष्य, सुंदर और विकसित होगा। भूमंडल के सार्वकालिक और सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक विभुतियों में से एक श्रीअरविंद ने अपने जन्मदिन और वर्तमान भारतीय स्वाधीनता के समय 15 अगस्त 1947 के प्रारंभिक क्षणों में ही रेडियो त्रिची से अपने संबोधन में विभाजन को कृत्रिम मानते हुए इसके दोबारा एकीकरण को स्वाभाविक और अपरिहार्य होने की भविष्यवाणी की थी। जिसके स्मरण में आज भी कुछ लोग चौदह अगस्त को अखंड भारत दिवस के रूप विविध आयोजनों का आयोजन किया करते हैं ।इतिहास के विचार से इन सभी देशों का एक होना चालीस वर्ष, स्तर वर्ष अथवा दो-तीन सौ वर्ष पूर्व अर्थात देश के टूटने से बड़ी और महत्वपूर्ण व अहम घटना होगी। इसके लिए इन सभी देशों में कई समन्वयकारी ताकतें एकजुट होकर काम कर सकती हैं । सबों का साथ आना ही ऐतिहासिक होगा। ऐसा जियोकल्चरल तौर पर अखंड भारत के रूप में, या फिर सोशियो-पॉलीटिकल तौर पर वृहत्तर भारतीय महासंघ के रूप में संभव हो सकता है । अगर ऐसा हो सकेगा तो यह अत्यंत कल्याणकारी सिद्ध होगा ।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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