जलवायु परिवर्तन समझौते को झटका

संदर्भः- अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की जलवायु परिवर्तन समझौते से बाहर आने की घोषणा

प्रमोद भार्गव

संयुक्त राष्ट्रसंघ के मुख्यालय में 2015 में हुए ऐतिहासिक ‘पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को बड़ा झटका लगा है। इस समझौते पर भारत-चीन 175 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे लोग अपनी आत्मकेंद्रित दृश्टि के चलते खारिज करने लग जाएंगे तो न तो भविष्य में संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं का कोई महत्व रह जाएगा और न ही वैश्विक समस्याओं पर आगे कोई सहमति बन पाएगी। इस नाते अमेरिका का इस वैश्विक करार से बहार आना दुनिया के सुखद भविष्य के लिए बेहतर संकेत नहीं है। जबकि अमेरिका सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों में प्रमुख हैं।

इस करार से अमेरिका का बहार आना समूचे विश्व के लिए अशुभ है। अपने औद्योगिक हितों की चिंता और चुनावी वादे की सनक पूर्ति के लिए ट्रंप ने यह पहल की है। दरअसल ट्रंप अमेरिकी कंजरवेटिव पार्टी के उस धड़े से सहमत रहे हैं, जो मानता है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान एक थोथी आशंका है। इसीलिए ये लोग कार्बन उत्सर्जन में कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हित प्रभावित होने की पैरवी करते रहे हैं। देश की जीडीपी दर और आर्थिक संपन्न्ता घटने की बात भी कहते रहे हैं। इस गुट की इन्हीं धरणाओं के चलते ट्रंप ने चुनाव में ‘अमेरिका फस्ट‘ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन‘ का नारा दिया था। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप को व्यक्ति केंद्रित धारणाओं से उभरकर अंतरराष्ट्रीय महत्व के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा लिए गए निर्णय पर दृढ़ता से कायम रहने की जरूरत थी।

इस फैसले से मुकर जाने के कारण दुनियाभर में ट्रंप की निंदा हो रही है। ब्रिटेन, जापान, कनाडा जैसे अमेरिका के सहयोगी देशों, औद्योगिक समूहों और पर्यावरण प्रेमियों ने ट्रंप के इस निर्णय पर खेद जताया है। इटली, फ्रांस और जर्मनी ने एक संयुक्त बयान जारी करके कहा है कि समझौते से पीछे नहीं हटा जा सकता। अमेरिका के 60 महानगरों के महापौरों ने एकजुट होकर ट्रंप के इस फैसले का विरोध किया है। टेस्ला के सीईओ ऐलन मस्क और वाल्ट डिज्नी के प्रमुख राॅबर्ट इगर ने व्हाइट हाउस की सलाहकार समिति से इस्तीफा देने की घोषणा की है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने तल्ख लहजे में कहा है कि ‘अमेरिका एक महान देश है, लेकिन उसे समूची धरती को बचाने के प्रयास में सहभागी बना रहना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण के प्रमुख एरिक सोलहिम ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत, चीन और यूरोपीय संघ ट्रंप की बेरुखी के विरूद्ध एकजुट हैं, ऐसे में अमेरिका के बीना भी इस समझौते को अमल में लाने के वैश्विक प्रयास जारी रहेंगे। जाहिर है, समझौते को तगड़ा झटका जरूर लगा है, लेकिन फिलहाल बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए यह समझौता अस्तित्व में बना रहेगा।

दरअसल ट्रंप की इस आत्मकेंद्रित मानसिकता का तभी अंदाजा लग गया था, जब इटली में दुनिया के सबसे धनी देशों के समूह जी-7 की शिखर बैठक में पेरिस संधि के प्रति वचनबद्धता दोहराने के संकल्प पर ट्रंप ने हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। ट्रंप ने तब जल्दी ही इस मसले पर अपनी राय स्पष्ट करने का संकेत दिया था। अब ट्रंप ने व्हाइट हाउस के रोज गार्डन में भाषण देकर अपना मत तो साफ किया ही, साथ ही भारत और चीन पर आरोप लगाया कि इन दोनों देशों ने विकसित देशों से अरबों डाॅलर की मदद लेने की शर्त पर समझौते पर दस्तखत किए हैं। लिहाजा यह समझौता अमेरिका के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है। यही नहीं ट्रंप ने आगे कहा कि भारत ने 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना करने की अनुमति भी ले ली है। वहीं चीन ने कोयले से चलने वाले सैकड़ों बिजलीघर चालू करने की शर्त पर दस्तखत किए हैं। साफ है यह समझौता अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाने वाला है। वैसे भी  पीट्सबर्ग के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया हूं न कि पेरिस संधि के प्रतिनिधित्व के लिए ? इसलिए मैं हर उस समझौते को तोड़ दूंगा, जिसमें अमेरिकी हितों का ध्यान नहीं रखा गया है। ट्रंप ने यहां तक कहा कि संयुक्त राष्ट्र की ‘हरित जलवायु निधि‘ अमेरिका से धन हथियाने की साजिष है। ट्रंप की इस सोच से पता चलता है कि अमेरिका अब वैश्विक समस्याओं के प्रति उदार रुख नहीं अपनाएगा ?

सेंट पिट्सबर्ग इकोनाॅमिक फाॅरम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निवेषकों के साथ बैठक में हिस्सा लेते हुए ट्रंप को करारा जबाव देते हुए कहा कि ‘भारत प्रचीनकाल से ही पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाता चला आ रहा है। हमारे 5000 साल पुराने षास्त्र पर्यावरण सरंक्षण के प्रति सजग रहे हैं। अथर्ववेद तो प्रगाति को ही समर्पित है। हम प्रगाति के दोहन को अपराध मानते हैं। हम 40 करोड़ एलईडी बल्ब घर-घर पहुंचाकर हजारों मेघावाट बिजली बचाकर कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने में लगे है।‘ यहां यह भी स्पष्ट करना मुनासिब होगा कि पेरिस समझौते के बाद 2015 में भारत को हरित जलवायु निधि से कुल 19000 करोड़ रुपए की मदद मिली। जिसमें अमेरिका का हिस्सा महज 600 करोड़ रुपए था। ऐसे में ट्रंप का यह दावा नितांत खोखला है कि भारत को इस निधि से अमेरिका के जरिए बड़ी मदद मिल रही है।

दरअसल पेरिस समझौते पर बराक ओबामा ने न केवल दस्तखत किए थे, बल्कि संधि के प्रावधानों का अनुमोदन भी कर दिया था। इस मुकाम तक पहुंचने के बाद अंतरराष्ट्रीय समझौतों के प्रति वचनबद्ध रहने वाले देश विकसित और सभ्य कहे जाने वाले देश ट्रंप की तरह वचन को भंग नहीं करते हैं। साफ है, ट्रंप ने उद्दंडता दिखाते हुए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते का मखौल उड़ाया है। दरअसल चीन के बाद अमेरिका ऐसा देश है, जो सर्वाधिक 16.4 फीसदी कार्बन उत्सर्जन करता है। जून 2016 की विश्व ऊर्जा संख्यिकी की समीक्षा के अनुसार चीन दुनिया में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन 27.3 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। भारत महज 6.6 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में भागीदार है। इंडिया स्पेंड की मई 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक स्तर पर बीसवां हिस्सा है। जबकि दुनिया की आबादी का छठा हिस्सा भारत में रहता है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और कनाडा के लोग भारत के लोगों की तुलना में 5 से 12 गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। इन सब सच्चाईयों से रूबरू होने के बावजूद ट्रंप का भारत पर कार्बन उत्सर्जन के परिप्रेक्ष्य में अनर्गल आरोप लगाना, यह दर्शाता है कि ट्रंप का ज्ञान वैश्विक फलक पर अधकचरा है। ऐसे में समझौते से मुकरना नए वैश्विक संकट तो खड़ा करेगा ही, अमेरिका की विश्वसनीयता भी संदेह के घेरे में आ जाएगी।

अमेरिका में कोयले से कुल खपत की 37 फीसदी बिजली पैदा की जाती है। इस बिजली उत्पादन में अमेरिका विश्व में दूसरे स्थान पर है। कोयले से बिजली उत्पादन करने से सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं। इस दिषा में भारत ने बड़ी पहल करते हुए 40 करोड़ एलईडी बल्बों से प्रकाष व्यवस्था लागू कर दी है। इस प्रक्रिया से काॅर्बन डाइआॅक्साइड में दस करोड़ टन की कमी लाने में सफलता मिली है। इसकी अगली कड़ी में सघन औद्योगिक ईकाइयों की ऊर्जा खपत को तीन वर्षीय योजना के तहत घटाया जाएगा। किंतु अमेरिका ने कोयले की चुनौती से निपटने के अब तक कोई उपाय नहीं किए ? जबकि अमेरिका ने जलवायु समझौते के तहत 32 प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन 2030 तक कम करने का वायदा किया था। अमेरिका के 600 कोयला बिजली घरों से ये गैसें दिन रात निकलकर वायुमंडल को दूषित कर रही हैं। अमेरिका की सड़कों पर इस समय 25 करोड़ 30 लाख कारें दौड़ रही हैं। यदि इनमें से 16 करोड़ 60 लाख कारें हटा ली जाती हैं तो कार्बन डाई आॅक्साइड का उत्पादन 87 करोड़ टन कम हो जाएगा। लेकिन ट्रंप ने जता दिया है कि वे कोई परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हैं।

दरअसल जलवायु परिवर्तन के असर पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में वृद्धि को नहीं रोका गया तो हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। क्योकि इसका सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ रहा है। धरती की नमी घट रही है और शुष्कता बढ़ रही है। भविष्य में अन्न उत्पादन में भारी कमी की आशंका जताई जा रही है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एशिया के किसानों को कृषि को अनुकूल बनाने के लिए प्रति वर्श करीब पांच अरब डाॅलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रही तो एशिया में 1 करोड़ 10 लाख, अफ्रीका में एक करोड़ और शेष दुनिया में 40 लाख बच्चों को भूखा रहना होगा। इसी सिलसिले में भारत के कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन ने कहा है कि यदि धरती के तापमान में 1 डिग्री सेल्षियस की वृद्धि हो जाती है तो गेहूॅं का उत्पादन 70 लाख टन घट सकता है। लिहाजा वैज्ञानिकों की मंशा है कि औद्योगिक क्रांति के समय से धरती के तापमान में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसे 2 डिग्री सेल्षियस तक घटाया जाए। लेकिन अमेरिका ने जलवायु समझौते से बाहर आकर तापमान घटाने की सभी संभानाओं पर पानी फेर दिया है।

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