कुमार विमल
जब लोगों में बदलाव की इच्छा तीव्र होती है, जब बदलाव की महत्वकांक्षा लोगों में व्यापक हो जाती है और कोई दमनकारी बल इसके विपरीत खड़ा होकर अपनी पूरी क्षमता से इसे दबाना चाहता हैं तो बदलाव की यही इच्छा धीरे-धीरे जन आंदोलन का स्वरुप ले लेती हैं और एक बार जब यह जन आंदोलन का स्वरुप ले लेती है तो कितनी भी बड़ी दमनकारी बल हो उसे झुकना पड़ता हैं, उसे नतमस्तक होना ही पड़ता है।
इतिहास इस का साक्षी है, इस बात का गवाह है कि जन आंदोलन के समक्ष बड़ी से बड़ी ताकत को झुकना पड़ा है इसके विपरीत इसके अभाव में बड़ी से बड़ी क्रांति को भी विफल होना पड़ा हैं। १८५७ की क्रांति में जब बरैकपुर में एक भारतीय सिपाही मंगल पांडे अंग्रेजो के खिलाफ हथियार उठा लेता है, और देखते ही देखते क्रांति की लपट बंगाल, बिहार,अवध अम्बाला, मेरठ इत्यादि जगहों से होते हुए दिल्ली पहुच जाती है। लेकिन मंगल पांडे, बाबू कुँवर सिंह, तात्या टोपे जैसे वीरो के शहादत के बावजूद भारत आने वाले एक सदी की गुलामी के लिए बाध्य हो गया। वास्तव में यह एक महान क्रांति थी, लेकिन , शायद यह आम लोगों में फिरंगियों से आजादी की भावना को पूरी तरह नहीं ला पाई । लोगों में आजादी की इच्छा नहीं तीव्र कर पाई , फिरंगियो को दूर भागने की महत्वाकांक्षा लोगो में व्यापक रूप से नहीं पंहुचा पाई । अर्थात् यह क्रांति जन आंदोलन के रूप में पूरी तरह से नहीं तब्दील हो पाई । अगर यह क्रांति जन आंदोलन का वास्तविक स्वरूप ले लती तो अंग्रेजो को उसी समय भारत छोड़ जाना ही परता और आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता।
शायद भगत सिंह जन आंदोलन के महत्व को अच्छी तरह समझते थे वे आम जनता में आजादी की भावना लाना चाहते थे, शायद इसी लिए वो असेम्बली में बम फ़ेकने के बाद भागे नहीं अपनी गिरफ्तारी दी ताकि लोगों में यह सन्देश जा सके कि जब एक लड़का अँग्रेजों के खिलाफ खड़ा सकता हैं तो पूरा देश क्यों नहीं।
१९७७ में जब देश आपातकाल का दंश झेल रहा था, लोकतंत्र खतरे में था तब जय प्रकाश नारायण ने पटना से सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया। उन्होंने कहाँ सिहांसन छोड़ो कि जनता आती हैं और जनता उनके साथ खड़ी हो गई। देश में पहली बार गैर काँग्रेसी सरकार बनी। क्षत्रीय दलों का तेजी से उदय हुआँ और देश कि राजनीति एक नए मोड़ पर आकर खड़ी हो गई।
यहाँ मैं कोई राजनीति की बात नहीं कर रहा मैं तो इन उदाहरणों से बस यह सिद्ध करना चाहता हूँ कि एक बार अगर जन आंदोलन अपना वास्तविक स्वरुप ले तो फिर कितनी भी बड़ी दमनकारी बल हो उसे झुकना पड़ता हैं, उसे नतमस्तक होना ही पड़ता है और इसके अभाव में बड़ी से बड़ी क्रांति भी दम तोड़ देती हैं।
लेकिन जन आंदोलन मीडिया द्वारा फैलाया गया कोई क्षणिक उतेजना नहीं हैं, यह कोई प्रायोजित घटना मात्र नहीं हैं,जन आंदोलन का लक्ष्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं हैं, इसका लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन भी है। यह केवल भूख हड़ताल या तोड़- फोड़ नहीं हैं बल्कि यह एक सतत् प्रक्रिया हैं जो इच्छा से शुरू होती हैं और धीरे- धीरे अपना व्यापक स्वरूप लेती हैं इसमे बुद्धिजीवियो का समावेश होता हैं समाज का हर तबका इसमे अपनी भागीदारी देता है, जिससे लोगो में चेतना का विकास होता हैं, लोगो में अपने अधिकार के प्रति जागरूकता आती हैं , लोग सजग होते हैं और एक वास्तविक जन आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करता है।
Nice article
जन आंदोलन को अच्छी तरह परिभासित किया गया है। वाकई जन आंदोलन के सम्मुख दमनकारियों को झुकना पड़ता है।उत्तम लेख के लिए बधाई