कृष्ण की शौर्य गाथाओं की याद दिलाती जनमाष्टमी

  • योगेश कुमार गोयल

जनमाष्टमी का त्यौहार प्रतिवर्ष भाद्रपक्ष कृष्णाष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव
के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है। माना जाता है कि इसी दिन मथुरा के कारागार में
वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से रात्रि 12 बजे श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। जनमाष्टमी का
भारतीय संस्कृति में इतना महत्व क्यों है, यह जानने के लिए कृष्ण के जीवन दर्शन और उनकी
अलौकिक लीलाओं को समझना जरूरी है। द्वापर युग के अंत में मथुरा में अग्रसेन नामक राजा
का शासन था। उनका पुत्र था कंस, जिसने बलपूर्वक अपने पिता से सिंहासन छीन लिया और
स्वयं मथुरा का राजा बन गया। कंस की बहन देवकी का विवाह यदुवंशी वसुदेव के साथ हुआ।
एक दिन जब कंस देवकी को उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा था, तभी आकाशवाणी हुई, ‘‘हे कंस!
जिस देवकी को तू इतने प्रेम से उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा है, उसी का आठवां बालक तेरा
संहारक होगा।’’
आकाशवाणी सुन कंस घबरा गया। देवकी की ससुराल पहुंचकर उसने अपने जीजा वसुदेव
की हत्या करने के लिए तलवार खींच ली। तब देवकी ने अपने भाई कंस से निवेदन किया, ‘‘हे
भाई! मेरे गर्भ से जो भी संतान होगी, उसे मैं तुम्हें सौंप दिया करूंगी, उसके साथ तुम जैसा चाहे
व्यवहार करना पर मेरे सुहाग को मुझसे मत छीनो।’’
कंस ने देवकी की विनती स्वीकार कर ली और मथुरा लौट आया तथा वसुदेव एवं देवकी
को कारागार में डाल दिया। कारागार में देवकी ने अपने गर्भ से पहली संतान को जन्म दिया,
जिसे कंस के सामने लाया गया। देवकी के गिड़गिड़ाने पर कंस ने आकाशवाणी के अनुसार देवकी
की आठवीं संतान की बात पर विचार करके उसे छोड़ दिया पर तभी देवर्षि नारद वहां आ पहुंचे
और उन्होंने कंस को समझाया कि क्या पता, यही देवकी का आठवां गर्भ हो, इसलिए शत्रु के

बीज को ही नष्ट कर देना चाहिए। नारद जी की बात सुनकर कंस ने बालक को मार डाला। इस
प्रकार कंस ने देवकी के गर्भ से जन्मे एक-एक कर 7 बालकों की हत्या कर दी।
जब कंस को देवकी के 8वें गर्भ की सूचना मिली तो उसने बहन और जीजा पर पहरा
और कड़ा कर दिया। भाद्रपक्ष की कृष्णाष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण ने
जन्म लिया। उस समय घोर अंधकार छाया हुआ था तथा मूसलाधार वर्षा हो रही थी। तभी
वसुदेव जी की कोठरी में अलौकिक प्रकाश हुआ। उन्होंने देखा कि शंख, चक्र, गदा और पद्मधारी
चतुर्भुज भगवान उनके सामने खड़े हैं। भगवान के इस दिव्य रूप के दर्शन पाकर वसुदेव और
देवकी उनके चरणों में गिर पड़े।
भगवान ने वसुदेव से कहा, ‘‘अब मैं बालक का रूप धारण करता हूं। तुम मुझे तत्काल
गोकुल में नंद के घर पहुंचा दो, जहां अभी एक कन्या ने जन्म लिया है। मेरे स्थान पर उस
कन्या को कंस को सौंप दो। मेरी ही माया से कंस की जेल के सारे पहरेदार सो रहे हैं और
कारागार के सारे ताले भी अपने आप खुल गए हैं। यमुना भी तुम्हें जाने का मार्ग अपने आप
देगी।’’
वसुदेव ने भगवान की आज्ञा पाकर शिशु को छाज में रखकर अपने सिर पर उठा लिया।
यमुना में प्रवेश करने पर यमुना का जल भगवान श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करने के लिए हिलोरें
लेने लगा और जलचर भी श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श के लिए उमड़ पड़े। गोकुल पहुंचकर वसुदेव
सीधे नंद बाबा के घर पहुंचे। घर के सभी लोग उस समय गहरी नींद में सोये हुए थे पर सभी
दरवाजे खुले पड़े थे। वसुदेव ने नंद की पत्नी यशोदा की बगल में सोई कन्या को उठा लिया
और उसकी जगह श्रीकृष्ण को लिटा दिया। उसके बाद वसुदेव मथुरा पहुंचकर अपनी कोठरी में
पहुंच गए। कोठरी में पहुंचते ही कारागार के द्वार अपने आप बंद हो गए और पहरेदारों की नींद
खुल गई।
कंस को जैसे ही कन्या के जन्म का समाचार मिला, वह तुरन्त कारागार पहुंचा और
कन्या को बालों से पकड़कर शिला पर पटककर मारने के लिए ऊपर उठाया लेकिन कन्या
अचानक कंस के हाथ से छूटकर आकाश में पहुंच गई। आकाश में पहुंचकर उसने कहा, ‘‘मुझे
मारने से तुझे कुछ लाभ नहीं होगा। तेरा संहारक गोकुल में सुरक्षित है।’’ यह सुनकर कंस के
होश उड़ गए। कंस उसे ढ़ूंढ़कर मारने के लिए तरह-तरह के उपाय करने लगा। कंस ने श्रीकृष्ण
का वध करने के लिए अनेक भयानक राक्षस भेजे परन्तु श्रीकृष्ण ने उन सभी का संहार कर
दिया। बड़ा होने पर कंस का वध कर उग्रसेन को राजगद्दी पर बिठाया और अपने माता-पिता

वसुदेव और देवकी को कारागार से मुक्त कराया। तभी से भगवान श्रीकृष्ण के जनमोत्सव की
स्मृति में जनमाष्टमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाने लगा।
बाल्याकाल से लेकर बड़े होने तक श्रीकृष्ण की अनेक लीलाएं विख्यात हैं। श्रीकृष्ण ने
अपने बड़े भाई बलराम का घमंड तोड़ने के लिए हनुमान जी का आव्हान किया था, जिसके बाद
हनुमान ने बलराम की वाटिका में जाकर बलराम से युद्ध किया और उनका घमंड चूर-चूर कर
दिया था। श्रीकृष्ण ने नररकासुर नामक असुर के बंदीगृह से 16100 बंदी महिलाओं को मुक्त
कराया था, जिन्हें समाज द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाने पर उन महिलाओं ने श्रीकृष्ण से अपनी
रक्षा की गुहार लगाई और तब श्रीकृष्ण ने उन सभी महिलाओं को अपनी रानी होने का दर्जा
देकर उन्हें सम्मान दिया था।
मथुरा के राजा और श्रीकृष्ण के मामा कंस ने उन्हें मारने के लिए अनेक प्रयास किए।
कृष्ण को मौत के घाट उतारने के लिए अनेक राक्षसों को गोकुल भेजा गया किन्तु एक-एक कर
सभी कृष्ण के हाथों मारे गए। एक बार कंस ने कृष्ण का वध कराने के लिए अपने खास निजी
सेवक तृणावर्त नामक राक्षस को गोकुल भेजा। तृणावर्त बवंडर का रूप धारण कर गोकुल पहुंचा
और उसी बवंडर में श्रीकृष्ण को अपने साथ आकाश में उड़ा ले गया। उस मायावी बवंडर के
चलते पूरा गोकुल थोड़े समय के लिए अंधकारमय हो गया था, इसलिए गोकुलवासी कुछ भी
देखने में असमर्थ थे। बवंडर शांत होने के पश्चात् जब माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को आंगन से
गायब पाया तो वह अत्यंत चिंतित होकर रोने लगी। उधर तृणावर्त अपने मायावी बवंडर में कृष्ण
को अपने साथ लेकर आकाश में उड़ तो गया किन्तु उसी दौरान कृष्ण ने अपना भार इतना बढ़ा
दिया कि तृणावर्त उस भार को संभालने में असमर्थ हो गया। इस कारण तृणावर्त के मायावी
बवंडर की गति एकाएक कम हो गई और तृणावर्त के लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो गया। तभी
कृष्ण ने तृणावर्त का गला इतनी जोर से पकड़ा कि वह लाख प्रयासों के बावजूद उनसे अपना
गला नहीं छुड़ा पाया और अंततः उस भयानक राक्षस तृणावर्त के प्राण पखेरू उड़ गए। श्रीकृष्ण
को खोजने निकले गोकुलवासियों ने देखा कि एक भयानक राक्षस पास की एक विशाल चट्टान
पर गिरा पड़ा है, जिसके सारे अंग चकनाचूर हो चुके थे और कृष्ण उसके शरीर पर बैठे हुए थे।
कृष्ण को वहां सकुशल देखकर सभी बेहद प्रसन्न हुए किन्तु सब आश्चर्यचकित भी थे कि इतने
विशालकाय राक्षस को इस छोटे से बालक ने कैसे मौत के घाट उतार दिया।
यह भी श्रीकृष्ण की अलौकिक लीला ही थी कि महाभारत युद्ध से ठीक पहले दुर्योधन
मदद की गुहार लेकर सबसे पहले श्रीकृष्ण के पास द्वारिका पहुंचा और अर्जुन दुर्योधन के बाद

पहुंचे। दोनों जब द्वारिकाधीश के पास पहुंचे, उस समय वे सो रहे थे। दुर्योधन उनके सिर से
पास बैठ गया जबकि अर्जुन पैरों की ओर। जब श्रीकृष्ण की नींद खुली तो उनकी दृष्टि पैरों की
ओर बैठे अर्जुन पर पहले पड़ी। इसलिए उन्होंने अर्जुन से उनकी नारायणी सेना या स्वयं श्रीकृष्ण
में से किसी को एक को चुनने के लिए कहा। दुर्योधन ने विरोध जताते हुए कहा कि पहले वो
उनके पास आया है, इसलिए उनसे कुछ मांगने का अधिकार उसे ही मिलना चाहिए। श्रीकृष्ण के
हां कहने के पश्चात् दुर्योधन ने उनकी विशाल नारायणी सेना मांगी और इस तरह अर्जुन को
महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण का साथ मिला। वास्तव में जनमाष्टमी का पर्व हमें प्रेरणा
देता है कि हम अपनी बुद्धि और मन को निर्मल रखने का संकल्प लेते हुए अहंकार, ईर्ष्या,
द्वेष रूपी मन के विकारों को दूर करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

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