जननायक अटल जी

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“भारतीयों के मानस में गहरे बैठे अटल जी को भारत रत्न सम्मान, उनकें प्रति करोड़ों भारतीयों की भावनाओं को शब्द देनें जैसा ही होगा”

स्वातंत्र्योत्तर भारत के नेताओं में कुछ ही ऐसे नेता हुए हैं जो विपक्षियों से भी सम्मान पातें हों. और ऐसे जननेता तो एक-दो ही हुए हैं जो विपक्षियों से न केवल सम्मान पातें हैं बल्कि दिग्गज से दिग्गज विपक्षी नेता भी उनकें विषय में चर्चा करते हुए न केवल आदर अपितु श्रद्धा भाव से ही बात करता है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी निस्संदेह आज एकमात्र ऐसे जननेता हैं जो जननायकों की श्रेणी में सम्मिलित होकर सम्पूर्ण भारत वर्ष का आदर और दुलार पा रहें हैं. जननायक की बात करें तो जयप्रकाश नारायण का नाम आता है, राममनोहर लोहिया का नाम आता है इन्हें भी सम्पूर्ण भारत वर्ष श्रद्धा से स्मरण करता है. स्वातंत्र्योत्तर भारत में यद्दपि इंदिराजी भी स्मरणीय जननेता रहीं है किन्तु आपातकाल का एक ग्रहण उनकी स्मृतियों को कटुक बना देता है. लोकतंत्र में जहां निर्वाचित होना एक उपलब्धि समझा जाता है वहीँ जनमानस में बसी स्मृतियाँ ही नेता को जननेता बनाती है! इस दृष्टि से देखें तो हमें यह स्पष्ट ही आभाषित होता है कि अटल बिहारी वाजपेयी उस श्रेणी के स्वातंत्रयोत्तर जननेता हैं जो उसके भी आगे जननायक बननें की राह पर हैं और भारत वर्ष की स्मृतियों में अपनें जीवन काल में अमर हो गएँ हैं. क्या अटल जी के दल के और क्या उनसे विलग दल के, क्या उनकें विचारों के और उनसे अलग विचारों के सभी राजनीतिज्ञ कही किसी नेता के सामनें मौन और श्रद्धावनत रहतें हैं तो वे अटलजी ही हैं. जनता ने उन्हें बड़े ही दुलार और सम्मान से एक उपनाम दिया “अटल जी”. अटल जी जब चौक-चोराहों से लेकर लोकसभा-राज्यसभा तक में बोल रहे होते थे तब जैसे घड़ी की सुईयां भी मौन होकर ठहरनें को उत्सुक होनें लगती थी. आज अटलजी स्वयं अपनी ही चेतना-संज्ञा-प्रज्ञा से विस्मृत होकर अपनें कक्ष में सिमट गएँ हैं तब भी उनका वैचारिक विस्तार प्रत्येक भारतीय के ह्रदय तक और विश्व भर में फैले उनकें करोड़ो प्रशसंकों के मानस तक है.

अटलबिहारी वाजपेयी जी ने मात्र एक राजनीतिज्ञ और सत्ता पुरुष का जीवन नहीं जिया; अपितु सत्ता में तो वे अल्पकाल को ही रहे. सम्पूर्ण जीवन उनका संघर्ष और श्रम की भेंट चढ़ गया तब जाकर कहीं वे अपनें विचारों को सत्ता सदन में स्थापित करा पाए थे. 16 मई से 1 जून 1996 तथा फिर 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य रहे और  1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे. आजीवन राजनीति में सक्रिय रहे अटल जी वैचारिक अधिष्ठानों से घनिष्टता बनाए रहे. उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म पाञ्चजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रवादी प्रकाशनों में सम्पादन और लेखन का कार्य किया जिससे उनकी मेघा और संज्ञा-प्रज्ञा-विज्ञा तीक्ष्ण-दर-तीक्ष्ण होती गई और वे भारतीय जनमानस से तादात्म्य बैठा पानें में सतत सफल होते चले गए. उनकी राजनैतिक अवधारणा, कल्पना और योजना दीर्घकालीन दृष्टि से सधी होती थी. तात्कालिक दृष्टि और तात्कालिक परिणाम की चिंता तो जैसे उन्हें छूती भी नहीं थी, यही कारण था कि जो उनकें संपर्क में आता था वह धीर-गंभीर और शांत चित्त राजनीतिज्ञ बन जाता था. अटल जी नें अपनें जीवन काल में हजारों राजनीतिज्ञों को गढ़ा और फिर उन्हें राष्ट्रवाद के यज्ञ में समिघा डालनें योग्य बनाकर यज्ञ पीठ पर बैठाया किन्तु कभी श्रेय लेनें और नियामक होनें की राजनीति नहीं की. वे सदैव नेतृत्व करते किन्तु साथियों को स्वयं के अनुगामी रहनें का विनम्र आभास कराते दिखते थे.

अपना कार्यकाल पूर्ण करनें वालें पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमन्त्री अटलजी आजीवन अविवाहित रहे. बेहद स्पष्ट वक्ता और निर्भय वक्तृत्व के धनी अटलजी जब बोलते थे तो मामला श्रोता और वक्ता का नहीं बल्कि ह्रदय से ह्रदय के बोलनें सुननें का हो जाता था. जिन्होनें अटलजी को सुना है वे इस कथन के भाव और आशय को बड़ा ही स्पष्ट समझ सकते है और महसूस भी कर सकते हैं.

25 दिस. 1943 की प्रातः ग्वालियर के शिंदे की छावनी में माता कृष्णा और पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी की संतान के रूप में जन्में अटलजी नें बचपन में ही महात्मा रामचंद्र रचित काव्य “विजय पताका” पढ़ा और अपनें जीवन लक्ष्य के विषय में वैचारिक झंझावातों से घिर गए थे. ग्वालियर के ही विक्टोरिया कालेज से बी ए की डिग्री प्राप्त करनें वाले अटलजी छात्र जीवन में ही स्वयंसेवक हो गए थे. तत्पश्चात कानपुर से एम ए की डिग्री भी ली और वकालत की पढ़ाई प्रारम्भ की किन्तु तब तक उनका वैचारिक रूझान पढ़ाई से हट कर राष्ट्रवाद के यज्ञ में न्यौछावर हो जानें का बन चुका था अतः वकालत की पढ़ाई मध्य में ही छूट गई.

अटल जी का चमकदार संसदीय जीवन बेदाग ही नहीं अपितु बेहद चमकदार रहा. उनके संसदीय भाषण, आक्षेप, टिप्पणियां, चर्चाएँ, कवितायें सभी कुछ जैसे एक शोध ग्रन्थ है. अटल जी का संसदीय इतिहास भारत ही नहीं अपितु विश्व के सभी लोकतन्त्रों में एक सन्दर्भ के रूप में आकलित होता है तो इसके पीछे अटलजी की मेघा-प्रज्ञा के साथ साथ उनकी संवेदना-प्रज्ञा प्रमुख कारण है. उनकें समकालीन बताते हैं कि जब वे संसद में आँखें बंद करके बोलना प्रारम्भ करते थे तो लगता था अटल जी जागते हुए नहीं बल्कि सोते हुए बोल रहें हैं किन्तु जो शब्द वे बोलते थे वे शब्द संवेदना, व्यथा, पीड़ा और अनुभव की शाब्दिक पराकाष्ठा को पार कर महसूसनें के धरातल पर उतर आते थे.

जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक की उनकी गौरव और गरिमामय राजनैतिक यात्रा तो उनकी वैचारिक यात्रा का एक अंश मात्र है. वस्तुतः वे दार्शनिक राजनीतिज्ञ थे जिस कारण वे कई बार व्यवहारिक राजनीति में अनफिट होनें का आभास देते थे. किन्तु आनंद तब आता था जब वे जिस क्षण अनफिट होनें का आभास देते उसके दुसरे ही क्षण वे अपनें कृतित्व और वाक् चातुर्य से विरोधियों को पटखनी दे देते और उन्हें चारो खानें चित्त कर वापिस अपनी बाहों में लेकर अपनें विचारों से साम्य बैठा लेनें का दुलार पूर्ण अवसर भी देते दिखते. यही वह कला या विधा थी जो उन्हें अटलजी बना गई.

कविताओं और संवेदनाओं की परिधि में आजीवन खड़े इस जननायक ने जब 11 और 13 मई 1998 को पोखरण में जब पाँच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट करके राष्ट्रवाद के भाव को क्षितिज पर पहुंचाया तब सम्पूर्ण विश्व झंकृत हो गया था. उन्होंने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया और वैश्विक समुदाय को भारत की शक्ति का निर्विवाद परिचय दिया तब सभी आश्चर्य में डूब गए थे. उन परिस्थितियों में जब कि वैश्विक परिदृश्य उलझा हुआ था और राजनयिक गणनाएं भारत के पक्ष में बिलकूल भी नहीं थी और आर्थिक पक्ष भारत के धूर विरोध में तब परमाणु विस्फोट का संकल्प और उसका क्रियान्वयन एक दुस्साहस ही था. किन्तु यह भी सत्य था कि अटल जी जन्म जात दुस्साहसी थे और उनका वही गुण इस कार्य को करा पाया था. इस कदम से उन्होंने भारत को निर्विवाद रूप से विश्व मानचित्र पर एक सुदृढ वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया. बेहद गोपनीय और खुफिया पद्धति से किये गए परमाणु बम विस्फोट की सुचना और भनक अति विकसित जासूसी उपग्रहों व तकनीकी से संपन्न पश्चिमी देशों को नहीं लग पाई थी. इस परमाणु विस्फोट के होनें तक जो हुआ वह एक असंभव कथा थी किन्तु इस विस्फोट के बाद वैश्विक समुदाय के सामनें बन गई भारत की खलनायक की छवि को पुनः विश्व गुरु और शांति दूत की छवि में लौटाना असंभव ही नहीं अपितु अकल्पनीय योजना थी जिसे कोई सामान्य जननेता और प्रधानमन्त्री नहीं कर सकता था और यह कार्य केवल एक जननायक और वैश्विक सन्दर्भों में संवेदनशील रहे प्रधानमन्त्री से ही संभव था. इस परीक्षा में अटल जी तो जैसे पहले ही सफलता की पटकथा को तैयार किये बैठे थे. अटलबिहारी वाजपेयी को भारत रत्न उनके सहस्त्रों अन्य गुणों, उपलब्धियों के कारण नहीं बल्कि केवल एकमात्र उपलब्धि के कारण ही दिया जाना चाहिए कि वे पोखरण परमाणु विस्फोट की सामयिकता, संवेदनशीलता और रचनात्मकता को वैश्विक मंच पर बड़ी सहजता से और भली भांति सुस्थापित कर पाए थे. परमाणु विस्फोट से नाराज वैश्विक राजनीति जो भारत विरोधी तम्बुओं में जा बैठी थी वह कुछ ही महीनों में अटलजी के तथ्यों और तर्कों से सहमत होकर भारत को विश्व गुरु का सम्मान देते हुए माँ भारती के समक्ष विनत दिखाई देनें लगी थी. यद्दपि अटलजी जैसे ,माँ भारती के लाल को भारत की जनता को जो प्रेम, प्यार और दुलार मिला उसके सामनें भारत रत्न सम्मान बौना ही है तथापि आज जब भारत रत्न की चर्चा अटल जी के सन्दर्भ में चल रही है तो इस विषय न तो कोई विमत है और न ही कोई विवाद है!! यह सामयिक और गौरवमयी ही होगा कि उनकें जीवन काल में वे भारत रत्न से सम्मानित हों और हम उन्हें उनके जीवन के इस अंतिम दौर में एक बार पुनः एक नई कविता पढ़ते और मंद मंद मुस्कातें देख पायें. नमन और दीर्घायु और शतायु होनें की शुभकामना माँ भारती के लाल अटलजी को!!

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