जश्न् मनाइये नेता पैदा हुआ है !

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बुन्देलखण्ड परिक्षेत्र में एक लोककथा प्रचलित है अपनी मानसिक स्वतंत्रतानुसार जिसे आप

राजनीतिक व्यंग्य की संज्ञा भी दे सकते हैं, खैर वो लोक कथा कुछ इस प्रकार है, एक साहब से उनके

किसी परिचित ने पूछा और बताइये बाल बच्चे कैसे हैं, सब कुशल तो हैं, तो उन साहब ने बड़ी ही

प्रसन्नता से उत्तर दिया जी हाल कुछ ऐसे हैं कि ईश्वर ने दये हैं लरका गिनती के चार दो हैं सेंट्रल

जेल में, दो चल रहे फरार ! तब उनके परिचित ने पूछा अरे बच्चे जेल में और आप प्रसन्न हैं? तब

उन साहब ने उत्तर दिया अरे साहब किस दुनिया में रहते हैं, आजकल जेल से नेता पैदा हुआ करते हैं,

और हम तो चार चार नेताओं के बाप होने वाले हैं !

कुछ ऐसा ही फिर होने जा रहा है कन्हैया जेल क्या गया सहानुभूति की पराकाष्ठाएं जाग उठीं,

जेएनयू ने एवं मीडिया ने इस प्रकार का राग आरम्भ कर दिया है जैसे वो आरोपी नहीं पीड़ित हो

और कल तो कन्हैया की अपील और पत्र सुनकर तो यकीन हो गया कि लीजिए भई राजनीति को

एक और नेता मिल गया, तो देशवासियो विरोध नहीं जश्न मनाइये नेता पैदा हुआ है ।

अब आती हूं अपने सवालों पर जो रह रहकर उत्तर के लिए विचलित कर रहे हैं पहला प्रष्टव्य मेरी

बिरादरी से ही है कुछेक को छोड़ दें तो मीडिया घरानों ने उसे न्यायालय के निर्णय से पूर्व ही निर्दोष

मान लिया, पत्रकारों पर न्यायालय परिसर में हमला हुआ जो निन्दनीय ऐसे कृत्यों को किसी भी सभ्य

समाज में स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इस सब के बाद मीडिया का जो रूख सामने आया,

बड़े-बड़े पत्रकारों ने मार्च निकाले, पत्र लिखे, बहसें हुईं वो कुछ समझ से परे लगा क्योंकि ये तो

पत्रकारों के साथ रोज होता है, न्यायालय परिसरों में ही होता है, हत्याएं तक हो जाती हैं तब पत्रकार

असहिष्णु क्यों नहीं होता, दूर नहीं जाना इस घटना के दो दिन पूर्व ही एक ब्यूरो चीफ की हत्या हो

जाती है और खबरों में भी नहीं आता । कई बार तो पत्रकार मरता रहे उसका अपना संस्थान उसके

साथ खड़ा नहीं होता, और मैं खुद इस बिरादरी का हिस्सा हूं इसलिए ऐसे हादसे आए दिन बेहद करीब

से देखती सुनती हूं । तब ये पत्रकार बिरादरी क्यों कोई पैनल नहीं बैठाती, ऐसे में आप स्वयं को

बेचारा साबित करके किसे बेचारा और पीड़ित बनाने का प्रयास कर रहे हैं ? संभवतः कहीं क्षेत्रवाद तो

अब बात करती हूं जेएनयू की गरिमा की, बेशक उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयों की सूची में है लेकिन

उसी विश्वविद्यालय से कुछ देशविरोधी गतिविधियां सामने आती हैं, आपका छात्र नेता उन

गतिविधियों के स्थल पर साथ खड़ा पाया जाता है, पुलिस आती है उसे पकड़ कर ले जाती है बाकी

भाग जाते हैं, तब जेएनयू का एक बड़ा छात्र तबका और शिक्षक ऐसोसिएशन ये कहकर सामने आता

है कि जेएनयू की गरिमा को ठेस पहुंचाई जा रही है, कन्हैया को छोड़ा जाए, ऐसे में प्रश्न उठता है

आखिर किसने विश्वविद्यालय की गरिमा को ठेस पहुंचाई? बड़ा साधारण सा उत्तर है आपने स्वयं ने,

आपने आन्दोलन खड़े किये, हड़तालें कीं फलस्वरूप विश्वविद्यालय परिसर को राजनीतिक अड्डा बना

लिया, लेकिन इस सबका अर्थ तो यही है कि आपको न्यायपालिका पर भरोसा नहीं, देश की प्रक्रियाओं

पर विश्वास नहीं यदि होता तो आप न्यायपालिका को अपना कार्य करने देते, आपका मित्र निर्दोष है

तो ससम्मान वापस आता, आपके संस्थान की गरिमा तो बचती ही समाज को संतोष होता कि उनके

बच्चे देश के बेहतरीन संस्थान में पढ़ रहे हैं परन्तु हुआ उलट। ऐसे में ये संशय व्यर्थ नहीं कहा जा

सकता कि ये क्रियाकलाप नेता पैदा करने के लिए तो नहीं था?

अब बात करती हूं दलित राजनीति की, सम्भवतः कुछ लोग मेरे इन प्रश्नों का कारण मेरे उपनाम से

जोड़ लें इसलिए ये समाधान पूर्व कर देती हूं, मेरे कुटुम्ब से लगभग प्रत्येक व्यक्ति आरक्षण के कारण

अपनी प्रतिभा के अनुरूप स्थान नहीं पा सका, किन्तु फिर भी जब भी इस विषय पर चर्चा होती है तो

तमाम ऐतिहासिक तथ्यों के बल पर इस आरक्षण व्यवस्था का समर्थन करते हैं और आपके साथ खड़े

होते हैं । अब मैं जानना चाहती हूं किस प्रकार का अवसाद है आप लोगों में, आपको नौकरियों से

लेकर अन्न मिलने तक प्रत्येक क्षेत्र में अधिकतम सुविधाएं मिलती हैं, राजनीतिक दल आपकी ही बात

करते हैं, बसपा और समाजवादी पार्टी तो आपके ही हैं, कांग्रेस के युवराज किसी गांव में जाते हैं तो

दलित की झोपड़ी में उन्हीं की बात सुनते हैं जबकि उसी गांव में उसी गली में कुछ घरों को छोड़कर

कोई सवर्ण भी अपनी झोपड़ी में रोटी के लिए संघर्ष कर रहा होता है । बीजेपी जिसे लोग सवर्णों का

दल कहते हैं उसका तो प्रधानमंत्री ही पिछड़े वर्ग से है, खुलेआम आरक्षण पर लोगों की जुबाने बन्द

कर देते हैं । इस सबके बावजूद इस वर्ग में किस बात की कुण्ठा है, कौन सा आक्रोश है ?

स्मरण रहे आन्दोलनों से कुछ छात्रें नेताओं का तो भला हो जाता है लेकिन वास्तव में पूरा समाज

पीछे आशा की उम्मीद लगाए ही खड़ा रहता है । जिस इतिहास की दुहाई देकर आन्दोलनों को हवा

दी जाती है उस इतिहास को राजनेताओं के नजरिए से नहीं सामाजिक नजरिए से देखिए तो स्थिति

स्वयं साफ हो जाएगी कि इसी समाज ने आन्दोलन हड़तालें और अनशन करके कितने नेताओं को

सत्ता तक पहुंचाया लेकिन किसी ने क्या किया आपके लिए अतः इतिहास को अपने स्थान पर रहने

दीजिए, वर्तमान को अपने । आप ऐसे नेता पैदा न करें जो आपके अपने समाज के लिए घातक हों ।

कीर्ति दीक्षित

 

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