जाट आरक्षण के घोड़े पर कांग्रेस

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-अरविंद जयतिलक- sonia
आमचुनाव सिर पर देख कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की कैबिनेट ने आखिरकार जाट आरक्षण पर मुहर लगा ही दी। इससे उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड और गुजरात के जाटों को ओबीसी कैटिगरी के तहत केंद्रीय नौकरियों में आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। समझना कठिन नहीं है कि वर्षों से जाट आरक्षण के औचित्य को नकारती रही सरकार अचानक जाट आरक्षण के लिए तैयार क्यों हुई। दरअसल, चार राज्यों में मिली करारी हार ने उसे यह फैसला लेने पर मजबूर किया। चुनावी विश्लेषण से वह इस नतीजे पर पहुंची है कि राजस्थान और दिल्ली में उसकी करारी हार जाटों की नाराजगी से हुई। हालांकि यह पूर्णतः सच नहीं है। जाट बिरादरी एक अरसे से आरक्षण की मांग कर रही थी। समय-समय पर इसके लिए आंदोलन भी किया। दिल्ली का पानी रोका और रेल परिचालन को बाधित किया। यही नहीं, अप्रैल माह में जाट आंदोलनकारी गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के दिल्ली स्थित आवास में भी घुस आए। लेकिन तब यूपीए सरकार नहीं पिघली। अब हार का स्वाद चखने के बाद उसके समझ में आया है कि अगर जाटों की नाराजगी दूर नहीं हुई तो आम चुनाव में भी उनकी हार तय है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में जाटों की भारी आबादी है। वह राजनीतिक तस्वीर बदलने का माद्दा रखते हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले ही यूपीए सरकार जाट आरक्षण का दांव खेलने का मन बनाया था। प्रधानमंत्री द्वारा गठित मंत्री समूह ने इस बारे में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। सरकार ने तकनीकी बाधाओं को भी दूर कर लिया। लेकिन उसके हाथ बंधे थे। अब वह चूकना नहीं चाहती है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर भारत के राज्यों में अति पिछड़े वर्ग के नेता और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के प्रभाव को कम करने के लिए उसने जाट आरक्षण का दांव खेला है। उसकी चिंता मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाट बिरादरी का भाजपा के पाले में खिसकने को लेकर है। वह जाट आरक्षण के काउंटर दांव से जाटों को अपने शामियाने में लाना चाहती है, लेकिन वह इसमें सफल होगी कहना मुश्किल है। इसलिए कि मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाट बिरादरी कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों से चिढ़ा है। लिहाजा उन्हें रिझाने के लिए कांग्रेस ने आरक्षण देने का पासा फेंका है। गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी भी जाटों को खुश करने के लिए किसान नेता चौधरी चरण सिंह की जयंती 23 दिसंबर पर अवकाश का एलान किया था। लेकिन इन चुनावी चालों से जाटों की नाराजगी दूर होगी इसमें संदेह है। इसलिए कि जाट आरक्षण के सवाल पर इन दोनों दलों का अतीत दागदार रहा है। इतिहास बताता है कि दोनों दलों ने समय-समय पर जाट आरक्षण का विरोध किया। वर्श 2000 में भाजपा के मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त की सरकार ने जब जाटों को पिछड़ी जातियों में शामिल करने का फैसला लिया तब इन दोनों दलों ने इसका विरोध किया। उसके बाद मुख्यमंत्री बने राजनाथ सिंह की सरकार भी सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए पिछड़ी जातियों के आरक्षण में जाटों का कोटा तय किया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ दायर याचिका दायर कर दी गयी और अदालत ने सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करने पर रोक लगा दी। उस समय भारतीय जनता पार्टी ने मुलायम सिंह पर आरोप लगाया था कि उन्हीं के इशारे पर न्यायालय में याचिका दायर की गयी। क्या जाट समुदाय इसे आसानी से भूल सकेगा? बहरहाल अब मौंजू सवाल यह है कि केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सर्वे के नतीजे आने से पहले ही यूपीए सरकार ने जाट आरक्षण पर मुहर लगाने की जल्दबाजी क्यों दिखायी? वह भी जानते हुए कि पिछड़ेपन के ठोस आंकड़ों के बगैर उसके इस फैसले को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। उल्लेखनीय है कि न्यायालय पहले ही पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाए बगैर आरक्षण देने की मनाही कर चुका है। अगर कहीं जाट आरक्षण को न्यायालय में चुनौती दी गयी तो सरकार को घुटने के बल आना होगा। ओबीसी आरक्षण का लाभ ले रही अन्य पिछड़ी जातियां भी जाट आरक्षण के खिलाफ न्यायालय का शरण ले सकती हैं। सरकार के इस फैसले के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। पिछड़ा वर्ग महासंघ ने जाट आरक्षण के खिलाफ मैदान में उतरने का एलान किया है। उसका कहना है कि यदि ओबीसी कोटे में जाट समुदाय को मिलाया जाता है तो आरक्षण 27 फीसद से बढ़ाया जाना चाहिए। उसकी दलील है कि देश में 52 फीसद आबादी ओबीसी की है और अगर इसमें जाटों की 15 फीसद आबादी शामिल की जाती है तो यह आंकड़ा बढ़कर 67 फीसद हो जाएगा। ऐसे में सरकार को ओबीसी आरक्षण का दायरा बढ़ाना होगा। लेकिन यह आसान नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार आरक्षण 50 फीसद से अधिक नहीं हो सकता। मतलब साफ है कि इस मसले पर सरकार का घिरना तय है। संविधानविदों का भी मानना है कि किसी भी समुदाय को आरक्षण का लाभ तभी मिल सकता है जब वह सामाजिक और आर्थिक रुप से पिछड़ा हो। आरक्षण का लाभ हासिल करने के लिए पिछड़ेपन का आंकड़ा होना चाहिए। जबकि सरकार के पास जाटों को आरक्षण देने का कोई आंकड़ा नहीं है। ऐसे में अगर जाट आरक्षण को न्यायालय में चुनौती मिलती है तो उसका टिकना मुष्किल होगा। फिर सरकार का यह खेल उजागर हो जाएगा कि वह सिर्फ राजनीतिक फायदा लेने के लिए जाटों को आरक्षण देने का निर्णय ली। आश्चर्य लगता है कि ऐसे मसले पर सरकार पहले भी झटका खा चुकी है लेकिन इसके बाद भी सबक नहीं ली। याद होगा 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले उसने अल्पसंख्यकों को ओबीसी कोटा देने का लालच परोसा था, लेकिन उसका हश्र क्या हुआ सबको पता है। तब न्यायालय ने सरकार से जानना चाहा था कि अन्य पिछड़े वर्गों के 27 फीसदी आरक्षण में से अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 फीसदी आरक्षण किस आधार पर निर्धारित किया गया? यही नहीं, उसने यह भी सवाल किया कि पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था को सरकार खंडित कैसे कर सकती है? सरकार आज तक इसका जवाब नहीं ढूंढ़ पायी। आज भी मामला न्यायालय में है। उचित होता कि सरकार जाटों को आरक्षण देने से पहले उनका सामाजिक-आर्थिक सर्वे कराती। लेकिन वह शायद फैसला कर ली है कि भारतीय सामाजिक विज्ञान एवं अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) के जरिए कराए जा रहे सर्वे के नतीजे का इंतजार किए बिना ही जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की केंद्रीय सूची में शामिल कराएगी। यहां गौर करना जरुरी है कि मौजूदा आंकड़ों के आधार पर जाटों को आरक्षण के सवाल पर आयोग ने 1997 में ही उन्हें पिछड़ों की सूची में शामिल करने से मना कर दिया था। ऐसा नहीं है कि सरकार इससे अवगत नहीं है। लेकिन वह जानबूझकर जाटों की आंख में धूल झोंक रही है। अगर वाकई जाट पिछड़े हैं या उन्हें सरकारी नौकरियों में समुचित भागीदारी नहीं मिली है तो आरक्षण मिलना ही चाहिए। लेकिन आरक्षण का राजनीतिकरण कहां तक उचित है? समझना होगा कि न्यायपालिका ने सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों को ही आरक्षण देने की बात कही है। ऐसे में जरुरी हो जाता है कि सरकार जाटों के पिछड़ेपन के आंकड़ों को देश के सामने लाए, लेकिन वह ऐसा करेगी इसमें संदेह है। देखना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जाट समुदाय को केंद्रीय सूची में शामिल करता है कि नहीं। फिलहाल इस मसले पर राजनीतिक घमासान देखते हुए कहना मुश्किल है कि कांग्रेस आरक्षण के घोड़े पर सवार होकर चुनावी जंग को फतह करने में सफल होगी।

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