जिन्ना और भुट्टोवादी सोच का परिणाम है असम का हिंसाचार

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जिप्रवीण दुबे

19 जुलाई से पूर्वोत्तर के असम प्रांत में जारी हिंसा को लेकर पूरा देश चिंतित है। इस हिंसा को लेकर जहां देश के तमाम राजनीतिक दल तरह-तरह के तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं वहीं गैर राजनीतिक संगठनों द्वारा भी अनेक प्रकार की बातें कही जा रही हैं। आखिर इस हिंसा का कारण क्या है? क्या यह सांप्रदायिक दंगे हैं? आखिर असम की शांति में कौन जहर घोल रहा है? ऐसे न जाने कितने सवाल आज भारत वासियों के मन में कौंध रहे हैं। इन सवालों का उत्तर खोजने के लिए असम के इतिहास पर नजर डाली डाए तो बहुत कुछ साफ हो जाता है। यह स्वतरू स्पष्ट हो जाता है कि असम में एकाएक हिंसा नहीं हुई, इसके पीछे 65 वर्ष से अधिक पुराना षड्यंत्र काम कर रहा है। जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं,उसी कुचक्र के नए.नए मोर्चे खुल रहे है, ये सब वही दूरगामी षड्यंत्र के सोचे समझे भागों के रुप में उभरकर आ रहे हैं।

हम जिस षड्यंत्र की बात कर रहे हैं उस षड्यंत्र की शुरुआत हुई थी स्वतंत्रता के दो वर्ष पूर्व 1945 में जब देश के मुस्लिम नेतृत्व ने भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखना शुरु किया था। अपने इस स्वप्न को साकार करने के लिए असम उनकी प्राथमिकता में था। इसी के चलते असम को मुस्लिम बहुल बनाने की योजना पर काम प्रारंभ हुआ और बिनेट मिशन प्लान्य तैयार किया गया। इसमें असम को बंगाल के साथ जोडऩे की बात कही गई। उन दिनों असम के कांग्रेसी नेता गोपीनाथ बरदलै और महात्मा गांधी दोनों ने ही इसका विरोध किया। इस प्रकार यह षड्यंत्र सफल नहीं हो सका। लेकिन यह पहली घटना थी जिससे वह संकेत मिलता है कि असम किस प्रकार मुसलमानों के निशाने पर था।

1947 में देश आजाद होने के साथ भारत का विभाजन भी हुआ उस समय भी मुस्लिम नेतृत्व असम को पाकिस्तान में मिलाने के लिए व्याकुल था। परन्तु ऐसा न होने पर स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना ने 1947 में अपने निज सचिव मोर्ईनुल हक चौधरी से कहा था कि “और दस वर्षों के बाद में चांदी की तश्तरी में असम तुमको भेंट करूंगा, तब तक तुम प्रतीक्षा करो।

जिन्ना तो ऐसा नहीं कर सका परन्तु मुस्लिम नेतृत्व की आंख सदैव असम पर लगी रही जो भाव पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना ने व्यक्त किए थे 21 वर्ष बाद पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश मंत्री और बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनेजीर भुट्टो ने दोहराकर अपने इरादे जाहिर किए थे। भुट्टो ने 1968 में अपनी पुस्तक दि मिथ ऑफ इंडिपेन्डेस में पाकिस्तान के भू राजनैतिक जिओ पोलिटिकल लक्ष्यों के बारे में लिखा कि यह सोचना गलत होगा कि भारत व पाकिस्तान में कश्मीर ही विवाद का एक मात्र विषय है। नि:संशय ही वह प्रमुख है परन्तु और भी एक कश्मीर विवाद जैसा ही महत्व का विषय असम और पूर्व पाक से लगे हुए भारत के अन्य कुछ जिलों की भी है जिन पर पूर्व पाक का दावा है उसे दबाए रखना ठीक न होगा। इतनी ही नहीं पाकिस्तान में मानवतावादी होने का चोला पहनने वाले शेख मुजीबुर्रहमान ने अपनी चर्चित पुस्तक में व्यक्त करते हुए लिखा जिसका हिन्दी अनुवाद है क्यों कि पूर्व पाकिस्तान को उसकी बढ़ती हुई विशाल जनसंख्या के लिए पर्याप्त भूमि की आवश्यकता है और उसकी सीमा से लगे हुए भारत के असम राज्य की भूमि में उसके विस्तार के लिए आवश्यक जगह तथा सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करने की क्षमता है, और चूंकि असम में घने जंगलों से व्याप्त बहुत भूमि तथा विपुल खनिज संपत्ति कोयलाए पेट्रोल इत्यादि हैए अतर: पूर्व पाकिस्तान ;अब बांग्लादेशद्ध को आर्थिक व सांपत्तिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण व आत्म निर्भर होने की दृष्टि से असम का अन्तर्भाव अपने में करना ही होगा।

असम को लेकर जिन्ना, जुल्फिकार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनजीर भुट्टो तथा मानवतावाद का मुखौटा धारी मुजीबुर्रहमान की मानसिकता अब आप भली प्रकार समझ चुके होंगे। यह लोग तो चले गए और हमारे वीर सैनिकों की बहादुरी के चलते पाक टूटा और बांग्लादेश अस्तित्व में आया परन्तु असम को लेकर मुसलमानों की मानसिकता आज तक नहीं बदली यूं कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पाकिस्तान टूटने के बाद रस्सी जल गई परन्तु बल नहीं गए इसका उदाहरण 1992 में उस वक्त सामने आया जब तत्कालीन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बेगम जिया भारत आयी थीं। समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों ने जब भारत में बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ के बारे में सवाल किए तो पहले तो वह इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थीं। परन्तु जब इसके पक्के सबूत पत्रकारों ने दिए तो उन्होंने भारत सरकार की मानों खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि जीनके नाम यहां की मतदातासूचियों में हैं तथा जिनके पास यहां के राशनकार्ड भी हैं, जिनके यहां पर खेती की जमीन है और जिन्होंने यहां की महिलाओं से शादी.विवाह भी किया है और बच्चे पैदा किए हैं, ऐसे लोगों को बांग्लादेशी कैसे कहा जा सकता है? बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने भले ही भारत की खिल्ली उड़ाने के उद्देश्य से अपनी तर्क दिया परन्तु यह कटु सत्य है कि बांग्लादेश के उदय पश्चात जो करोड़ों की संख्या में घुसपैठिए भारत आए हैं उनमें से अधिकांश ने अपने भारतीय नागरिक होने के दस्तावेज बनवाकर भारत में अपना दावा मजबूत कर लिया। अब सवाल यह उठता है आखिर कौन इनकी सहायता करता है? कौन है जिन्हें घुसपैठिए इतने प्यारे हैं? आखिर क्या कारण है जिसके लिए इन्हें स्थाई रुप से भारत में बसाने का षड्यंत्र चल रहा है? इन प्रश्नों का जवाब खोजने के लिए जब हम गहन चिंतन करते हैं तो तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है अपने देश के ऐसे कुछ लोग हैं, जिनमें प्रमुखतरू कुछ राजनैतिक नेता और दल शामिल हैं। इनमें कुछ ऐसेलोग भी हैं जो आज भी भारत में जिन्ना, जुल्फिकार अली भुट्टो, मुजीबुर्रहमान आदि के विचारों के पोषक हैं और भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए सक्रिय हैं। इनके निशाने पर कश्मीर, पूर्वोत्तर के असम आदि प्रदेश प्राथमिकता से हैं। कुछ ऐसे संगठन जो भारत में आतंक की फसल उगा रहे हैं, भारत को अस्थिर करना चाहते हैं, भारत में तमाम क्षेत्रों में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते रहते हैं। इन सारे कारणों को एक सूत्र में पिरोकर अपना उल्लू सीधा करने वाला हमारा सबसे खतरनाक पड़ोसी पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई है। इन सब कारणों के अलावा सस्ते वेतन पर काम करने वाले बिल्डर्स या ठेकेदार भी हैं जो घुसपैठियों की सहायता करते हैं।

अकेले पूर्वोत्तर के असम ही नहीं बिहार के किसनगंज, त्रिपुरा, तथा बंगाल में तो कहना ही क्या वहां पर तो  ओ.पार बांग्ला.ऐ पार बांग्ला का नारा गूंजता रहता है अर्थात उस पार भी बांग्लाभाषी व इस पार भी बांग्लाभाषी। राष्ट्रवादी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा किए एक अध्ययन के अनुसार आज देश में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 3 करोड़ से अधिक जा पहुंची है और इनका इस्तेमाल वोट बैंक राजनीति में किया जा रहा है। एक तरफ यह घुसपैठिए भारत को दारुल इस्लाम बनाने की रणनीति को अंजाम दे रहे हैं वहीं राष्ट्रवादी राजनीतिक दल देशकी सत्ता प्राप्त न कर सकें इसके लिए क्षेत्रानुसार रणनीति बनाकर अपने वोट का इस्तेमाल कर रहे हैं।

देश में सर्वाधिक समय तक सत्ता पर राज करने वाली कांग्रेस ;कम्युनिस्ट दल तथा बिहार जैसे प्रांतों में खुल्लम खुल्ला घुसपैठियों का उपयोग करने वाले राष्ट्रीय जनता दल ;लालूद्ध और अनेक क्षेत्रीय मुस्लिम दल या गुट बांग्लादेशी घुसपैठियों के वोटों पर जिंदा हैं। यही वजह है कि इन दलों अथवा गुटों के एक भी नेता ने कभी भी बांग्लादेश से अवैध रुप से आ रहे घुसपैठियों के विरोध में एक बार भी आवाज नहीं उठाई। वामपंथियों की हालत इस कदर देशद्रोही हो चुकी है कि त्रिपुरा के कई वामपंथी नेताओं ने बांग्लादेश के वामपंथी दल बांग्लादेश वर्कर्स पार्टी के नेताओं से भारत में बांग्लादेशी घुसपैठियों की सहायतार्थ हाथ मिलाया और केन्द्र सरकार की काम के बदले अनाज योजना का लाभ बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों को दिलाने में मदद की जिससे घुसपैठियों को भारत में बसने में सहायता मिली। वामपंथियों का यह कारनामा ठीक वैसा ही है जैसा कि चीन युद्ध के समय भारतीय वामपंथियों ने चीनियों का साथ देकर किया था।

वर्तमान में असम में जारी दंगों के पीछे भी यही बांग्लादेशी घुसपैठिए और उन्हें सत्तारूढ़ कांग्रेस का संरक्षण प्रमुख कारण है। तमाम नियमों को ताक पर रख असम के अनेक जिलों में निर्णायक स्थिति में पहुंच चुके बांग्लादेशी घुसपैठिए अब वहां के मूल निवासियों की जमीनों पर कब्जा करके उनके लिए खतरा बन गए हैं यही वजह है कि स्थानीय निवासियों में डर और असंतोष की भावना घर कर गई है जो छोटी.छोटी बातों को लेकर प्रतिकार स्वरुप हिंसा का कारण बन रही है। केन्द्र सरकार और असम की सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार अभी भी मूल समाधान को दरकिनार कर बांग्लादेशी घुसपैठियों को मदद कर रही है परिणाम स्वरुप हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। यहां का माहौल तभी ठीक हो सकता है जब बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों को बाहर निकाला जाएए लगातार होने वाली घुसपैठ को कड़ाई से रोका जाए और असम के मूल निवासियों को इस बात के लिए आश्वस्त किया जाए कि उनके घरए द्वारए जमीन घुसपैठियों से सुरक्षित रहेगी। यह तभी संभव है जब कांग्रेस जैसे राजनैतिक दल वोट बैंक की राजनीति छोड़ देश हित को प्राथमिकता देंगी

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  1. बहुत ही विचारणीय प्रश्न है, दोषी कौन? क्या केवल राजनीतिज्ञ ? कौशलेन्द्र जी का वक्तव्य बिलकुल ठीक है कि सरकारी कर्मचारी, अधिकारी और राजनीतिज्ञ ही समस्या कि असली जड़ हैं. लेकिन आम जनता को कैसे माफ़ किया जा सकता है? राजनीतिज्ञों को किसने सत्ता दी ? आजादी के ६ दशक बीत गए ज्यादातर समय एक ही पार्टी का शासन रहा है इस देश में, तो दोषी तो बिना शक जनता ही है, उसे अपनी दाल रोटी के आगे किसी चीज कि परवाह ही नहीं है, देश क्या होता है ? देश प्रेम किस चिड़िया का नाम है ? उसे इसकी कोई फिक्र नहीं है, देश कि दिशा दशा क्या होनी चाहिए… कोई मतलब ही नहीं है. दिमाग को, अपनी ताकत को चन्द कागज के टुकड़ों के आगे गिरवी रख दिया है. उससे भी कुछ बचा तो जातियों अगड़े, पिछड़े , अनुसूचित… इत्यादि में भुला दिया है. देश है कहाँ लोगों के आगे ? देश जाए भाड़ में मेरे पास पैसा आना चाहिए. आज एकमेव “उद्देश्य और धर्म” पैसा है, ये मैं विशेष हिन्दुओं के लिए बोल रहा हूँ. बहुत ही निराशा जनक माहौल है.

  2. बंगलादेश की जहाँगीर नगर युनिवर्सटी में मुगलस्तान रिसर्च इन्स्तिच्युशन में पाक से आसाम तक मुगलस्तान बनाने की योजना पर काम चल रहा है. फिर भी हमारे बगाली बाबू बतौर ऍफ़.एम् बंगलादेश को मित्रदेश मान कर करोडो रूपए का क़र्ज़ माफ़ कर आए….यह कैसा मित्र है जो रोज़ हिन्दू मंदिर तोड़ता है ..३७% से घट कर मात्र ७% हिन्दू रह गए मगर हमारे सेकुलर शैतान हुक्मरानों के माथे पर शिकन तक नहीं पड़ती…..कश्मीर के बाद असाम इस देश को एक और विभाजन की ओर ले जा रहा है…..इस का मुख्य कारन गाँधी-नेहरु की सेकुलर
    कुष्ट-मानसिकता का अनुसरण है …उतिष्ठकौन्तेय

  3. भारत में..असम में आख़िर कौन हैं वे लोग जो विदेशी ..इस्लामिक घुसपैठियों की सहायता करते हैं ..यही प्रश्न कल भी मेरे मन में उठा था जब पूर्वांचल से आये कृष्णगोपाल जी का हमारे शहर में व्याख्यान हो रहा था । यह आत्मघाती होगा यदि हम देश के भीतर के देशद्रोहियों की पहचान में विफल रहते हैं या उनकी पहचान की उपेक्षा करते हैं। माना कि 1945 से न केवल असम पर अपितु पूरे भारत पर ही मुस्लिमों की गिद्ध नज़र भारत को इस्लामिक देश बनाने पर लगी रही हैं किंतु उनके इस दूरदर्शी मिशन की शनैः-शनैः सफलता और हिन्दुओं की असफलता के कारणों को खोजना ही पड़ेगा जो हमारे भीतर भी छिपे हुये हैं । बांग्लादेशी मुसलमानों के भारत में राशन कार्ड से लेकर पैन कार्ड तक सब कुछ बन जाते हैं (मेरा अभी तक मतदाता परिचयपत्र नहीं बन सका, फ़ोटो कई बार खिच गयी ..फ़ॉर्म भी दो बार भर चुका पर अभी तक मतदाता परिचयपत्र नहीं मिला, जबकि मेरे पूर्वज न जाने कितनी पीढ़ियों से भारत के मूल निवासी रहे हैं… मैं भी हूँ) प्रश्न यह है कि कौन बनाता है यह सब? कोई निजी संस्था नहीं बनाती…सरकारी संस्थायें बनाती हैं …बनाने वाले अधिकारी भारतीय हैं …बेशक! उनमें से अद्धिकाँश हिन्दू ही होंगे। क्या यह हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता और गद्दारी नहीं है। क्या यह भी हमारी दुर्बलता नहीं है कि जिस समय यह सब हो रहा होता ऐ उस समय स्थानीय लोग ख़ामोश बने रहते हैं। यदा-कदा कोई आवाज़ उठाता भी होगा तो उसकी आवाज़ दबा दी जाती होगी। सदन में विपक्षी दल क्यों चुप रहते हैं इन घटनाओं पर? सवालों के घेरे में हर कोई है, निर्दोष कोई नहीं। हमें अपने बीच के गद्दारों को खोज-खोजकर सामने लाना होगा …और यह कोई मुश्किल काम नहीं है। डॉक्टर रामस्वरूप मरकाम के पूर्वज कुछ पीढ़ी पूर्व बस्तर से बालाघाट चले गये थे अब वे पिछले 50 वर्ष का अपना बस्तरिया रेकॉर्ड नहीं दे पा रहे हैं इसलिये उनका जाति प्रमाणपत्र नहीं बन पा रहा है लिहाज़ा उन्हें हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ी है। और वहीं इसी छत्तीसगढ़ के रायपुर में कुछ पाकिस्तानियों को सब कुछ हासिल हो जाता है। इतनी गहरी राष्ट्रभक्ति शायद ही विश्व के अन्य किसी देश वासियों में मिले। सीधी सी बात है कि गद्दार हमारे बीच में हैं ….दायें-बायें-ऊपर-नीचे गद्दार ही गद्दार हैं। क्यों नहीं ऐसे ज़िम्मेदार अधिकारियों के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाये जाने का प्रावधान किये जाने के लिये विपक्षी दल संघर्ष करते हैं ?

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