जिसकी आय के स्रोत पवित्र होंगे ईश्वर उसी का कल्याण करेगा

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मनमोहन कुमार आर्य,      मनुष्य जन्म लेने के बाद माता-पिता से पोषण

प्राप्त करता है। वही उसकी शिक्षा का प्रबन्ध करते हैं और वह शैशवावस्था से युवावस्था में पहुंच जाता है। शिक्षा प्राप्त कर वह धनोपार्जन में प्रवृत्त होता है। घन जीवन निर्वाह के लिए सभी कृत्रिम साधनों में सबसे अधिक आवश्यक प्रतीत होता है। धन नहीं होगा तो हम भोजन, वस्त्र, घर, वाहन एवं शिक्षा भी प्राप्त नहीं कर सकते। रोग निवृत्ति में भी धन की आवश्यकता होती है। अतः मनुष्य के लिये धन कमाना अत्यावश्यक है। धन कमाने के भी दो प्रकार के साधन होते हैं जिन्हें पवित्र साधन व अपवित्र साधन कह सकते हैं। साधन पवित्र हों, इसकी आवश्यकता क्यों है? यह प्रश्न आज अधिक ज्वलन्त हो गया है। इसका कारण हमारे प्राचीन संस्कारों व शिक्षा का समाज से विलुप्त व उपेक्षित होना है। वेदों ने कहा है कि तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्वित्धनम्।’ अर्थात त्याग भावनाओं से भौतिक पदार्थों व धन का उपभोग करो और लालच मत करो। लालच क्यों न करो, इसका उत्तर भी इस मन्त्र की सूक्ति में दिया गया है। कहा गया है कि संसार में जो धन है वह किसका है? कौन इसका स्वामी है? इसका उत्तर कस्य’ पद में छुपा है। कस्य का अर्थ सुखस्वरूप परमात्मा का है। संसार का समस्त धन व ऐश्वर्य सुखस्वरुप परमात्मा का है। हम धन कमा सकते हैं परन्तु इसके वास्तविक स्वामी नहीं हो सकते। वास्तविक स्वामी तो ईश्वर ही है। इसे हमें इसके यथार्थ रूप में समझना है।

               हम परिवारों के साथ रहते हैं। बचपन में हमारे पिता परिवार के मुख्या व स्वामी होते थे। घर में उनकी ही व्यवस्था व विधान चलते थे। वह अपने ज्ञान के अनुसार घर को चलाते व व्यवस्था देते थे। सरकारी कार्यालयों एवं निजी प्रतिष्ठानों में भी बड़े अधिकारी व प्रतिष्ठानों के स्वामी की व्यवस्था व नियम चलते हैं। परिवार व प्रतिष्ठान का कोई सदस्य मुख्या व स्वामी की इच्छा व नियमों के विरुद्ध आचरण करता है तो वह ताड़ना व दण्ड के योग्य होता है। अतः घर के प्रमुख व्यक्ति व अधिकारियों के निर्देशों व आदेशों का पालन करना ही होता है। इसी प्रकार इस संसार को बनाने व चलाने वाला परमेश्वर है। वह परमेश्वर कैसा है? आर्यसमाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानन्द जी महाराज ने ईश्वर का सत्यस्वरूप बताया है। वह ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सभी मनुष्यों को उसी की उपासना अर्थात् उसका ध्यान, चिन्तन, मनन, विचार, स्वाध्याय अध्ययन, जप एवं वेदपाठ मन्त्रों के अर्थों का चिन्तन आदि करना तथा वैदिक शिक्षाओं के अनुरूप आचरण करना योग्य है।’ वेद परमात्मा का ज्ञान है। वेदों में ईश्वर का यही स्वरूप, जो ऋषि दयानन्द ने बताया है, प्राप्त होता है। युक्ति एवं तर्क से ईश्वर का यही स्वरूप सत्य प्रामाणिक सिद्ध होता है। संसार में मत-मतान्तरों में ईश्वर के इस स्वरूप से विपरीत जो जो मान्यतायें व सिद्धान्त हैं, वह सब मिथ्या व सत्य के विपरीत हैं। अतः हमें वेदों में ईश्वर की आज्ञा को जानकर उसका पालन करना चाहिये अन्यथा हम ईश्वर की ओर से दण्ड के अधिकारी हो सकते हैं।

               ईश्वर इस संसार सहित सभी जीवात्माओं जो मनुष्य व अन्य प्राणियों के रूप में संसार में हैं, उनका स्वामी है। ईश्वर व जीवात्मा का परस्पर स्वामी-सेवक तथा व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु पर प्रत्येक जीवात्मा का अधिकार है। ईश्वर ने इसकी व्यवस्था की है। यदि हम प्रकृति के साधनों व द्रव्यों पर अधिकार करेंगे, उनका परिग्रह व संचय करेंगे तो हम अन्य प्राणियों को उन साधनों से मिलने वाली सुविधाओं से वंचित करने से उन्हें कष्ट पहुंचायेंगे। इस कारण हम उन प्राणियों सहित ईश्वर की ओर से भी ताड़ना व दण्ड के अधिकारी हो जाते हैं। हम जितना भी त्याग पूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करेंगे, उससे संसार का स्वामी प्रसन्न होगा। इसका कारण संसार के स्वामी ईश्वर की वेदाज्ञा तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ अर्थात् त्याग भाव से भोगों का भोग व उनका पान करना है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने भोग से पूर्व दान करने की प्रेरणा व उसका प्रचलन किया है। हम जो भी कमायें उसका एक निश्चित भाग हम सुपात्रों के दान के लिये पृथक कर दें और उस भाग को सुपात्रों तक पहुंचाने की व्यवस्था कर दें। हमारा धन दूसरों की वेद-ज्ञानवृद्धि व उनको सुख पहुंचाने में जितना अधिक व्यय होगा, इससे दानी व्यक्ति को ईश्वर की ओर से अवश्य स्वस्थ जीवन, सुख व जीवन उन्नति का लाभ होगा। इस बात को हमें समझना चाहिये।

               हमने अपने सभी विद्वानों व आदर्श पुरुषों के जीवन में देखा है कि वह सादा व सरल जीवन के आदर्श उदाहरण थे। ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, पं0 लेखराम, महात्मा हंसराज जी, पं0 चमूपति जी, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, स्वामी सर्वदानन्द, पं0 ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं0 युधिष्ठिर मीमांसक आदि के जीवन में हम उच्च स्तर की सादगी, सरलता, अपरिग्रह, ईश्वर भक्ति, देशभक्ति, समाजोत्थान के कार्य आदि की भावना व कार्यों को देखते हैं। इसके पीछे इन महान पुरुषों का उच्च स्तर का ज्ञान है। उन्होंने अपनी जीवन को यशस्वी एवं परजन्म में उन्नत व सुखी बनाने के लिये आदर्शों व दिखावे से सर्वथा दूर सरल जीवन शैली को अपनाया है। हम उनका जितना अधिक अनुकरण करेंगे, हमें वर्तमान व भविष्य में उसका लाभ मिलेगा। कहा जाता है कि बुद्धिमान व्यक्ति को संकेत करना ही पर्याप्त होता है। हम आशा करते हैं कि सभी पाठक इन विचारों से सहमत होंगे।

               मनुष्य जिन साधनों से धन का उपार्जन करता है वह भी पवित्र व मर्यादा से युक्त होने चाहिये। हमारे धनोपार्जन से किसी अन्य के जीवन पर विपरीत व विरोधी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। हमारे कार्यों से हमारा पर्यावरण शुद्ध रहे, किसी प्राणी को पीड़ा व असुविधा न हो, हम किसी से अन्याय व पक्षपात न करें, दूसरों का उचित भाग हम अपने पास न रखे अपितु वह सम्बन्धित व्यक्तियों को दें, इन सब बातों का हमें विचार करना है। यदि हम इन बातों का ध्यान रखेंगे तो परमात्मा हम पर अप्रसन्न नहीं होगा। उसकी अप्रसन्नता से हमें वर्तमान व भविष्य में क्या-क्या हानियां हो सकती हैं, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी प्रसन्नता से हमें लाभ ही लाभ है। अतः हमें धनोपार्जन करते हुए भी ईश्वर की प्रसन्नता व उप्रसन्नता का विचार करना चाहिये। यदि हम न्याय पथ पर चलते हुए सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य व्यवहार करते हैं तो इससे निश्चय ही हमारे सभी हित सुरक्षित रहते हैं। हमारा परिवार सुरक्षित रहते हुए उन्नति को प्राप्त करेगा। हम यह समझते हैं कि जितना महत्व भौतिक साधनों का व इनसे प्राप्त होने वाले सुखों का है, उतना ही व उससे कुछ अधिक महत्व आत्मिक शान्ति व सुख का भी है। आत्मा में परमात्मा का निवास है। वह परमात्मा हमारा प्रेरक एवं सच्चा मित्र है। वह शुभ कर्मों की प्रेरणा करने के साथ बुरे कर्मों में भय, शंका और लज्जा उत्पन्न करके हमें पाप से दूर रहने का संकेत करते हैं। अतः हमें ईश्वर के इन संकेतों को समझते हुए धनोपार्जन में भी शुभ कर्मों का ही सेवन करना चाहिये। इससे हमें अवश्य लाभ होगा।

               वर्तमान में श्री नरेन्द्र मोदी जी देश के प्रधानमंत्री है। उनका जीवन एक आंशिक योगी, धर्मात्मा, पुरुषार्थ, सेवा, देश हित के कार्य, प्रजा रक्षा तथा दुष्टों के लिये रुद्र के समान है। हम उनके पौराणिक विश्वासों का समर्थन नहीं करते। ईश्वरीय ज्ञान वेद के विपरीत जो भी धार्मिक कृत्य होते हैं वह करणीय नहीं होते। विश्व में वह विख्यात हैं और उनकी प्रतिष्ठा है। स्वार्थी लोग उन्हें अनापशनाप दुर्वचनों से सम्बोधित करते हैं परन्तु देश की समझदार निष्पक्ष अधिकाश जनता उनको अपना नेता स्वीकार करती है। इसका प्रमाण 23 मई 2019 को आये निर्वाचन के परिणामों से मिला है। यह स्थिति उन्हें अपने सद्गुणों से प्राप्त हुई है। कहने को उनके पास अपना मकान व धन सम्पत्ति न हो, उनका परिवार भी साधारण स्थिति में जीवन निर्वाह करता हो, परन्तु बड़े से बड़े धनवान लोगों की तुलना में वह कहीं अधिक सम्मानित यशस्वी हैं। इसे उनके कुछ सद्कर्मों का प्रभाव व परिणाम मान सकते हैं। अपने विगत पांच वर्षों के शासनकाल में उन्होंने कई अच्छी योजनायें देश को दी और उनका क्रियान्वय भी किया है, देश में भ्रष्टाचार के वैसे अपराध नहीं हो रहे हैं जो पूर्व सरकारों में होते थे, इससे जनता सन्तुष्ट व प्रसन्न है। हमें भी ऐसे उदाहरणों से स्वयं को सादगी एवं वेद के श्रेष्ठ विचारों से आप्लावित करना चाहिये। संसार में वैदिक धर्म एवं संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है तथा मनुष्य एवं प्राणी मात्र के लिये ग्रहण करने योग्य है। हम सत्कर्मों एवं धर्मसम्मत कार्यों को करके ही प्रभूत धन कमायें, उचित मात्रा में सुपात्रों को उसका दान करें और शेष धन का सदुपयोग व उपभोग कर अपने जीवन को देश एवं समाज के लिये लाभकारी बनायें। पाव वा बुरे कर्मों से सदैव दूर रहे। ज्ञान व विज्ञान की उन्नति स्वाध्याय आदि के द्वारा निरन्तर करते रहें। ईश्वरोपासना और यज्ञादि कर्मों को करके हम ईश्वर का सान्निध्य और मित्रता को प्राप्त हों। यही जीवन श्रेष्ठ जीवन है। ओ३म् शम्।

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