कश्मीर पर तो सन् 1947 से सैकड़ों किस्म की राय, सलाह और ‘रूपरेखाएं’ दी जाती रही हैं। लॉर्ड माउंटबेटन से लेकर गुलाम नबी फई, और श्रीअरविन्द से लेकर पनुन कश्मीर तक की अनगिनत सलाहें पुस्तकालयों से लेकर मंत्रालयों की फाइलों में उपलब्ध हैं। तब कश्मीर समस्या पर दिलीप पडगाँवकार वाली त्रि-सदस्यीय कमिटी द्वारा हाल में सुझाए गए ‘समाधान की रूपरेखा’ किस बात में भिन्न है?
इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट का शीर्षक एक पुराने, प्रचलन से बाहर के अंग्रेजी शब्द के सहारे दिया है, “ए कॉम्पैक्ट विथ द पीपुल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर”। यहाँ कॉम्पैक्ट शब्द रहस्यमय है, क्योंकि इसका अर्थ शब्दकोष और सामान्य प्रयोग से नहीं निकलेगा। मगर रिपोर्ट पढ़कर समझ में आ जाता है कि कॉम्पैक्ट की आड़ में ‘पैक्ट’ यानी समझौता कहा जा रहा है। तब इस छोटे, स्पष्ट शब्द के बदले अस्पष्ट शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? क्या इस में बिना साफ कहे कुछ अकथ कहने की कोशिश, या कुछ कहकर उस से मुकरने का रास्ता खुला रखने की चतुराई बरती गई है?
जिस अर्थ में इस कमिटी ने कॉम्पैक्ट शब्द का प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग सदियों पहले शेक्सपीयर ने अपने नाटक ‘जूलियस सीजर’ में किया थाः “ह्वाट् कॉम्पैक्ट मीन यू टु हैव विथ अस?…”। रोचक बात यह है कि ठीक यही प्रश्न इस कमिटी से भारतीय जनता पूछ सकती है। कि हमारे साथ तुम्हारा कौन सा करार रखने का इरादा है? क्या तुम हमारे मित्रों में गिने जाओगे, या कि आगे हम तुम पर कोई भरोसा न रखें? यानी, वही जो शेक्सपीयर के पात्र ने अपने संदिग्ध मित्र से पूछा था।
यह प्रश्न निराधार नहीं होगा। क्योंकि यह रिपोर्ट आरंभ से ही कठिन सच्चाइयों से सायास बचने की कोशिश करती है। इस की झलक पहले ही पन्ने पर है। “लोगों की इच्छाएं” गिनाते हुए रिपोर्ट एक जगह कहती हैः “सभी समुदायों की धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को खतरे/धमकी से मुक्ति”। क्या कश्मीर में हरेक समुदाय की धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को खतरा/धमकी मिली है? अमरनाथ यात्रियों की तरह क्या हजरतबल इबादतियों को भी सामूहिक संहार का सामना करना पड़ा? क्या संग्रामपुरा, पुलवामा, नंदीमर्ग जैसे अनगिनत सामूहिक हत्याकांडों में सभी समुदायों के लोग मारे गए थे? क्या वहाँ दर्जनों मंदिरों के अलावा कभी किन्हीं मस्जिदों को भी चुन-चुन कर ध्वस्त किया गया? खीर-भवानी या शंकराचार्य मंदिर की तरह किसी मस्जिद को भी सुरक्षा की जरूरत पड़ी थी? क्या ‘धर्मांतरित होओ, नहीं तो मरने को तैयार रहो’ जैसी खुली धमकियाँ सभी समुदायों को मिली थीं? क्या कश्मीरी मस्जिदों की तरह वहाँ किसी मंदिर से भी कभी हिंसक आवाहन हुए? यदि नहीं, तो कश्मीर समस्या में इन तथ्यों की जगह कहाँ पर या कितनी है, रिपोर्ट इस पर मौन है।
कश्मीर समस्या के जन्म से ही उस में एक मजहबी तत्व रहा है, जिस की अनदेखी कर रिपोर्ट में केवल सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर विविध बातें एकत्र की गई हैं। फिर, रिपोर्ट के अनुसार कमिटी ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित वृहत् साहित्य का भी अध्ययन किया। लेकिन उन पुस्तकों की सूची परिशिष्ट में नहीं दी गई है, जबकि अनेक अनावश्यक चीजें वहाँ हैं। उस से पता चलता कि कितना महत्वपूर्ण साहित्य कमिटी सदस्यों ने नहीं पढ़ा, अथवा यदि पढ़ा तो, उस की बातें पूरी तरह उपेक्षित कीं। उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से भगाए गए कश्मीरी हिन्दुओं द्वारा हर विधा में लिखा गया ‘विस्थापन साहित्य’। इस में वर्तमान से लेकर पीछे पीढ़ियों तक के लंबे जीवन्त कश्मीरी अनुभव हैं। सामाजिक-आर्थिक से लेकर राजनीतिक-सांस्कृतिक और मजहबी, मनोवैज्ञानिक तक। आजकल के कवियों की भाषा में कहें, तो स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ। समाज विज्ञान की भाषा में कहें तो प्राइमरी सोर्सेज के तथ्य और प्रमाण। इस रिपोर्ट में वह कहीं नहीं झलकता। कश्मीरी हिन्दुओं के बारे में रिपोर्ट लगभग चुप है। रिपोर्ट के कुल 176 पृष्ठों में कुल दो पृष्ठों भर सामग्री भी कश्मीरी हिन्दुओं को नहीं दी गई है। जो कहा भी गया है, वह नेशनल कांफ्रेंस द्वारा समय-समय पर कही जाने वाली इक्का-दुक्का रस्मी उक्तियों से कुछ भिन्न नहीं है। बल्कि सच पूछें तो कमिटी की रिरोप्ट उन लाखों कश्मीरी हिन्दुओं को सही-सही पहचानने से भी इंकार करती है। सच से बचने वाली अपनी राजनीति-संगत भाषा में उन्हें ‘अपरूटेड पीपुल’ कहती है। मगर इन अपरूटेड पीपुल की कही गई कोई बुनियादी बात रिपोर्ट में नहीं झलकती।
कारण शायद यह है, कि रिपोर्ट के शब्दों में, “हमने इस राज्य को परेशान करने वाली अनगिनत समस्याओं को किसी एक क्षेत्र या जाति या मजहबी समुदाय की दृष्टि से देखने की गलती से बचने की कोशिश की है।” ऊपर से सुंदर लगने वाली इस बात का वास्तविक, व्यवहारिक अर्थ यह भी हो सकता है कि कमिटी ने पहले से ही किसी भी क्षेत्र, समुदाय या मजहब को दोष न देना तय कर लिया था। जैसे, यह बुनियादी तथ्य कि कश्मीर-समस्या पाकिस्तान-समस्या से जन्मी, और आज भी अभिन्न रूप से जुड़ी है। जरा सोचिए, कि यदि आज भारत-पाकिस्तान का विभाजन खत्म होकर भारत पूर्ववत् हो जाए तो कश्मीर समस्या क्या बचेगी? और पाकिस्तान मूलतः इस्लामी अलगाववाद का आंदोलन था। अब जिसने तय कर लिया हो कि उसे ‘किसी एक मजहब’ को चर्चा में लाना ही नहीं, वह कहेगा कि हम बुनियादी बात भी नहीं उठाएंगे।
मगर ऐसी समदर्शी दृष्टि जो अलगाववादी और समन्वयवादी के बीच, उत्पीड़ित और उत्पीड़क के बीच भेद न करने पर आमादा हो, वह सभी असुविधानक सचाइयों से बचने की कोशिश करेगी ही। इसीलिए इस रिपोर्ट में हर कदम पर, बार-बार अधूरी संज्ञाएं और विशेषण मिलते हैं जिन से कोई बात स्पष्ट होने की बजाए धुंधलके में रह जाती है। उदाहरणार्थ, रिपोर्ट के सार-संक्षेप का दूसरा खंड। इस की महत्वपूर्ण बातें संज्ञाओं के उल्लेख बिना सर्वनाम की शैली में हैं। जैसे, ‘पोलिटिकल सेटलमेंट’, मगर किनके बीच सेटलमेंट, यह नहीं पता चलता। फिर, ‘विक्टिमहुड’ (मगर किस विक्टिम की बात हो रही है?), ‘फोर्सेज ऑफ रिलीजियस एक्सट्रीमिज्म’ (क्या कश्मीर में कोई हिन्दू उग्रवाद भी है?), ‘रीजनल शॉविनिज्म’ (क्या जम्मू या लद्दाख क्षेत्र में भी किसी क्षेत्रीय एकाधिकारी भावना का वर्चस्व है?), ‘मेजोरिटेरियन कंसीट्स’ (बहुसंख्यकों का यह अहंकार कश्मीर के बहुसंख्यकों का भारत के बहुसंख्यकों की?), आदि अनेक मुहावरे बताने से अधिक छिपाते हैं।
ध्यान से पढ़ने पर देख सकते हैं कि रिपोर्ट में हर जगह किसी दोष या दोषी को चिन्हित करने से बचने के लिए ऐसी आधी-अधूरी भाषा-शैली का प्रयोग किया गया है। कि पीड़ित को कहा जा सके, कि हमने तो आपकी पीड़ा का उल्लेख किया; साथ ही दबंग को कहा जा सके, कि हमने तो आपकी भावना का पूरा ख्याल रखा। यानी हम समदर्शी। ऐसी रिपोर्ट लिखने वाली कमिटी कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी हिन्दुओं के बीच के बरायनाम संबंध से ऊपर, अलगाववादियों और समन्वयवादियों के विपरीत मनोभावों से ऊपर, इस्लाम और हिन्दू धर्म के किसी भेद से ऊपर, भारत-पाकिस्तान के झगड़े से ऊपर! यद्यपि व्यवहार में ऐसी तटस्थता सदैव दबंग और उत्पीड़क के पक्ष में जाती है। रिपोर्ट पढ़कर लगता है कि अमेरिका में फई की दावतें बेकार नहीं गई।
चूँकि इस कमिटी के कार्य में भारतीय जनता के टैक्स के करोड़ों रूपए खर्च हुए, अतः एक जरूरी प्रश्न यह भी उठता है, कि ऐसी समदर्शिता के साथ यह कमिटी किस का प्रतिनिधित्व कर रही थी? भारत सरकार ने इसे बनाया था, और इसे मोटे वेतन, सुविधाएं तथा इस की हर गतिविधि, सम्मेलनों और सरंजाम का सारा खर्चा उठाती रही। मगर क्या कमिटी ने भारत सरकार का, या कमिटी की ही शब्दों में ‘राष्ट्रीय हित’ का प्रतिनिधित्व किया? ऐसा लगता नहीं, क्योंकि रिपोर्ट की पूरी भाषा नेशनल क्रांफ्रेंस के वक्तव्यों के अलावा भिन्न-भिन्न प्रकार के मानवाधिकारी संगठनों, एक्टिविस्ट ग्रुपों की भाषा से ही मिलती है। यह भारतीय राष्ट्रीय हितों की चिंता करने वाली भाषा से मेल नहीं खाती।
इस में उन मतवादी अर्द्ध-राजनीतिक संगठनों, एन.जी.ओ. प्रतिनिधियों के मुहावरे भरे मिलते हैं जो स्वयं को भारतीय, राष्ट्रवादी या देशभक्त भी कहलाना पसंद नहीं करते। वे अपने को लिबरल, ग्लोबल, ह्यूमेनिटेरियन, आदि कहते हैं। यदि इन्हीं दृष्टियों से कश्मीर समस्या को देखना हो, तब याद रखें कि अमेरिकी सरकार, यूरोपीय यूनियन से लेकर सी.आई.ए., आई.एस.आई., जैसी कई अंतर्राष्ट्रीय सत्ताओं, एजेंसियों, और उनके मुखौटे मानवाधिकारियों, एन.जी.ओ. की भी कश्मीर पर अपनी-अपनी स्थापित दृष्टि है। क्या इन दृष्टियों और इस कमिटी की दृष्टि में कोई भेद है? इस प्रश्न का उत्तर रिपोर्ट में ढूँढना एक रोचक कार्य होगा।