पप्पू के हाथ जटिल मिश्रण की पुड़िया

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आशुतोष

वार्ताकारों ने अपनी रिपोर्ट में कश्मीर की स्थिति का वर्णन आकांक्षाओं का जटिल मिश्रण के रूप में किया है। विज्ञान की भाषा में ऐसे अनेक तत्व जो आपस में एक-दूसरे के परमाणुओं के साथ बंध बना लेते हैं, नये यौगिकों का निर्माण करते हैं। इन यौगिकों को भी साथ रखने पर यदि उनमें बंध बनना संभव होता है तो वे पुनः एक नया यौगिक बना लेते हैं किन्तु ऐसे यौगिक, जिनको आपस में मिलाये जाने पर भी कोई बंध नहीं बन सकता, जब मिला दिये जाते है तब उसे मिश्रण कहते हैं। किसी दिये हुए मिश्रण में से उसके मूलतत्वों की पहचान अवश्य जटिल होती है किन्तु यदि उनकी सही पहचान किये बिना प्रयोग शुरू कर दिये गये तो परिणाम विध्वंसकारी हो सकता है। कश्मीर के मामले दशकों से यही हो रहा है।

वार्ताकारों ने भी जटिल मिश्रण के तत्वों की पहचान के लिये वैज्ञानिक पद्धति का पालन करने और तथ्यों और तर्कों के आधार पर उसकी पुष्टि करने के स्थान पर सुनी-सुनाई बातों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार कर दी है। इसकी तुलना मनोरंजक रूप से हाईस्कूल के उन विद्यार्थियों से की जा सकती है जो रसायन विज्ञान की प्रायोगिक परीक्षा के समय लैब असिस्टेंट को दस-बीस रुपये थमा कर यह पूछ लेते हैं कि उसकी पुड़िया में मौजूद मिश्रण में कौन-कौन से तत्व मिलाये गये हैं। पैसे लेकर वह तत्वों के नाम बता देता है और विद्यार्थी उस  तत्व की बिना जांच किये पहले से रटा फार्मूला उत्तरपुस्तिका पर उतार देते है। तटस्थता के नाम पर बाहर से पधारे परदेसी परीक्षक को आगरे का पेठा या बरेली का सुरमा भेंट कर पप्पू पास हो जाता है। घरवाले तो मुहल्ले में बांटने के लिये चॉकलेट हाथ में थामे परिणाम आने का इंतजार कर रहे होते हैं। रिपोर्ट कार्ड आते ही पप्पू की वाह-वाही शुरू हो जाती है।

पप्पू के पापा को अच्छा रिजल्ट चाहिये। लैब असिस्टेंट अपने दस-बीस रुपये में खुश है। उसे मालूम है कि परीक्षक कोई भी हो, पप्पू का भविष्य बने या बिगड़े, उसके हाथ तो यह बीस रुपये ही आने हैं, तो वह इन्हें छोड़ कर गांधी बाबा के नारों के चक्कर में क्य़ों पड़े।

शिक्षक को विद्यार्थी के भविष्य से ज्यादा परवाह अपनी छवि की है। उसके लिये महत्वपूर्ण यह नहीं कि विद्यार्थी का प्रयोग सफल है अथवा नहीं, उसे केवल इस बात की चिन्ता है कि उत्तर पुस्तिका में वह लिखा जाना चाहिये जो परीक्षक को पसंद आये। परीक्षक भी जानता है कि आगे यही शिक्षक उसके अपने विद्यालय में परीक्षक बन कर आ सकता है। इसलिये यह मौका विद्यार्थियों की योग्यता परखने अथवा मिश्रण के तत्वों की ठीक पहचान का है ही नहीं। यह तो वह अवसर है जब दोनों पक्ष आपसी समझ को बेहतर बना लें ताकि परीक्षा के दिनों में दोनों को पर्याप्त उपहार मिलें और आगे जुगलबंदी चलती रहे।

पप्पू के पापा से लेकर परीक्षक तक, किसी को सटीक वैज्ञानिक विष्लेषण और तत्वों की पहचान की चिन्ता नहीं है। सब को मालूम है कि यह ऐसे ही चलता आया है, ऐसे ही चलेगा। उनका ध्यान तात्कालिक लाभ पर है। सभी को आपस में जोड़ने वाला तत्व वह नहीं है जो प्रयोग के लिये दिये गये मिश्रण में है। जोड़ने वाला विषय विज्ञान भी नहीं है जो ऊपर से उन्हें जोड़ता दिखता है। जोड़ता है अर्थशास्त्र, जिसके लिये हर किसी के अपने सूत्र और अपने स्त्रोत होते हैं। जोड़ने का आधार होती है वह आपसी समझ, जिसके पीछे का दर्शन है- मैं भी तेरी नहीं कहूंगा, तू भी मेरी मत कहना।

पप्पू के पास होने का अर्थ यह नहीं है कि प्रयोग ठीक से किया गया, विष्लेषण वैज्ञानिक दृष्टि से किया गया, तत्वों की ठीक पहचान हुई, परीक्षक ने ठीक मूल्यांकन किया आदि। पप्पू के पास होने का रहस्य इस बात में है कि सभी संबंधित पक्षों को लगा कि जो वह चाहते थे वह पूरा हो गया।

एक साल की मशक्कत के बाद और जम्मू-कश्मीर के 22 जिलों की खाक छानने के बाद (हालांकि रिपोर्ट देखने के बाद लगता है कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि इस रिपोर्ट का बड़ा हिस्सा तो समूह के गठन से पहले ही गृह मंत्रालय की फाइलों में मौजूद था) जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी है उससे अधिकांश पक्ष संतुष्ट हैं।

नेशनल कांफ्रेस की स्वायत्तता के महत्वपूर्ण बिन्दु रिपोर्ट में शामिल हैं तो पीडीपी का सेल्फ रूल की मांग भी जोड़ी गयी है। हुर्रियत के बहिष्कार के बाद भी उसके दोनों धड़ों का मांगपत्र रिपोर्ट में जगह पा गया है। यही नहीं, दोनों ओर के कश्मीर को जोड़ कर किसी निर्णय तक पहुंचने की अमेरिका में बसे आईएसआई एजेंट डॉ गुलाम नबी फई की मांग को भी वार्ताकारों ने संबोधित किया है तो पाकिस्तान द्वारा स्वयं को बात-चीत में पक्षकार बनाये जाने की संस्तुति भी की गयी है। पूरे कश्मीर को जोड़ कर भारत पाकिस्तान के बीच एक बफर स्टेट बनाने का अमेरिकी एजेंण्डा भी सिफारिशों की शक्ल में सामने आया है। एक-दूसरे की संप्रभुता को मान्य करने का संकेत चीन के कब्जे में कश्मीर के भू-भाग को वापस लेने की मांग को भी सदा के लिये समाप्त कर देता है।

कुछ पक्ष ऐसे भी हैं जो इस रिपोर्ट से प्रसन्न नहीं हैं। राज्य के गुज्जर, शिया, पहाड़ी, राष्ट्रवादी मुसलमान, कश्मीरी सिख, कश्मीरी पंडित, लद्दाख के निवासी, शरणार्थी समूह, डोगरे तथा बौद्ध, देश भर में फैले राष्टवादी संगठन व राजनैतिक दल रिपोर्ट में की गयी अनुशंसाओं का विरोध कर रहे हैं। लेकिन वार्ताकार और उन्हें नियुक्त करने वाली सरकार जानती है कि वे चिर विरोधी हैं इसलिये जम्मू-कश्मीर के संबंध में होने वाले किसी भी ऐसे समझौते का विरोध करेंगे जो जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय को कमजोर करते हों।

लेकिन ये यह भी जानते हैं कि रणनीतिपूर्वक, धीमे-धीमे वे इस मुद्दे को इतना कमजोर कर चुके हैं कि तीन पीढ़ियां बीतने के बाद अब उनके नियुक्त वार्ताकार यदि जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की भूमिका बनाने वाली रिपोर्ट भी दें तो आम आदमी उद्वेलित नहीं होता।

अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिकारों ने इस समय की प्रतीक्षा में दशकों बिताये हैं। अब जाकर वह समय आया है जिसकी उन्हें प्रतीक्षा थी। माउंटबेटन ने जो विष-बीज बोया था, उसकी फसल काटने का अवसर अब सामने है। जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग कर समरनैतिक दृष्टि से देश को अपाहिज बना देने का पश्चिमी मंसूबा अब आकार लेना चाहता है। दुनियां में भारत के महाशक्ति बनने की संभावना से भयभीत सभी देश और समुदाय इस दुरभिसंधि में शामिल हैं।

इतिहास साक्षी है कि बिना जयचंदों की सहायता के न तो पृथ्वीराज हारता और न सिराजुद्दौला। माउंटबेटन और उनके उत्ताधिकारियों को अपना एजेंडा पूरा करने के लिये जो स्थानीय सहयोग और वातावरण चाहिये था वह न मिलने के कारण जो काम तब न हो सका, अब होने का परिस्थितियां बनती जा रही हैं, ऐसा भ्रम पश्चिमी रणनीतिकारों को ही नहीं, उनकी भारतीय कठपुतलियों को भी हो गया है। वे यह भूल गये हैं कि जिस जनता को वे रुपये, साड़ी और शराब की बोतल के बदले वोट बेचने वाली मूर्खों की जमात मानते हैं, राष्ट्रीय आह्वान पर वही जनता जब हुंकार भरती है तो सत्ता धूल चाटती नजर आती है।

1 COMMENT

  1. वार्ताकारों दारा कश्मीर के बारे में रिपोर्ट पेश किये जाने के बाद बहस का दौर तो आरभ होना ही था. यह हर स्थान पर हो रहा है और प्रवक्ता पर इसका जोर ज़रा ज्यादा हीँ है?मैं केवल एक प्रश्न पूछता हूँ,आज के हालात के मद्दे नजर इस समस्या का हल क्या है?ऐसे मेरे विचार से समस्या इतनी जटिल हो गयी है कि अब इसे वहाँ के निवासियों पर छोड़ देना चाहिए कि उनकी मनसा क्या है?हमारी विभिन्न घटकों की सरकारें इस समस्या को हल करने में कितनी सफल रही हैं ,वह तो सबके सामने है.

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