सिर्फ निंदा से काम नहीं चलने वाला जेएनयू मामले में

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लिमटी खरे

संगठनों और छात्रों के बीच वैचारिक मतभेद होना आम बात है, पर जिस तरह के नजारे देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के शिक्षा केंद्रों में देखने को मिल रहे हैं, उन्हें उचित तो नहीं ही माना जा सकता है। जामिया के बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रविवार का घटनाक्रम झझकोर देने वाला ही था। इसके पहले एक पखवाड़े से जो कुछ भी चल रहा था, उसके बाद हुए इस घटनाक्रम को अलग तरीके से देखने की जरूरत है। विश्वविद्यालय के अंदर घुसकर इस तरह का तांडव हो गया जो अपने आप में देश की राजधानी दिल्ली में पुलिस और अन्य खुफिया तंत्र के लिए शर्मनाक बात मानी जा सकती है। पुलिस बाहर खड़ी विश्वविद्यालय प्रशासन के बुलावे का इंतजार करती रही और अंदर तांडव होता रहा। कोहराम मचाने वाले तत्व बाहर तो निकले ही होंगे, उनके बाहर निकलते समय पुलिस की भूमिका क्या रही!

रविवार का जो घटनाक्रम सामने आ रहा है उसके अनुसार दिल्ली पुलिस ने जेएनयू को चारों ओर से घेरकर रखा था। इसी बीच अंदर आताताईयों के द्वारा तरह तरह के नारे लगाते हुए मारपीट की जा रही थी। यह सही है कि शैक्षणिक संस्थानों में बिना बुलावे पुलिस का प्रवेश उचित नहीं माना जाता है, पर अगर कहीं कानून और व्यवस्था की स्थितियां निर्मित हो रही हों तब भी क्या इस तरह हाथ पर हाथ बांधे खड़े रहने को न्याय संगत ठहराया जा सकता है। यक्ष प्रश्न ही है कि आताताई उस परिसर से बाहर कैसे निकले, क्या उन्हें किसी ने बाहर निकलते दिखा नहीं!

सियासी बियावान में पदार्पण का रास्ता छात्र राजनीति से होकर ही जाता है। विद्यार्थी जीवन में जिसमें नेतृत्व के गुण विकसित होते हैं, उनमें से ही आगे जाकर कुछ लोग देश, प्रदेश के नीति निर्धारक भी बनते हैं। कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए जिसमें चांदी का चम्मच लेकर ही सियासतदार पैदा होते आए हैं तो बाकी सत्तर फीसदी से ज्यादा मामलों में राजनेताओं का जन्म विद्यालयों की राजनीति में ही हुआ माना जा सकता है।

इस तरह की स्थितियां क्यों निर्मित हो रही हैं! इसके पीछे शह और हवा देने वाले कौन लोग हैं! इस तरह के अनेक सवाल नागरिकों के मानस पटल पर घुमड़ना स्वाभाविक ही है। दरअसल, यह सब कुछ केंद्र के द्वारा पिछले दिनों एक के बाद एक दिए गए निर्णयों के उपरांत ही उपजी परिस्थितियां हैं। एक के बाद एक फैसलों से सोशल मीडिया पर चल रही रार ने बहुत ही गलत दिशा पकड़कर विवादित रूख अख्तियार कर लिया है।

बहरहाल, जेएनयू में नकाबपोश घुसे यह निर्विवादित तथ्य है। क्या जेएनयू के द्वारों पर सुरक्षाकर्मी तैनात नहीं थे! क्या पूरा परिसर सीसीटीवी की जद में नहीं था! अगर थे तो लाठियां और अन्य हथियार कैसे परिसर के अंदर चले गए! ये आताताई किन वाहनों से किन रास्तों से अंदर प्रवेश करने में सफल हुए! जेएनयू परिसर कोई बाग बगीचा नहीं है कि जिसका मन आया वह सैर के लिए चला जाए! यह एक विश्विद्यालय है, इस परिसर की सुरक्षा के चाक चौबंद प्रबंध होंगे ही, फिर चूक कहां हो गई! यह बात भी प्रथम दृष्टया जांच में ली जाना चाहिए। इस पूरे मामले की अगर तटस्थ जांच हो तो ही सारी स्थितियां सामने आ सकती हैं, अन्यथा तो जांच के नाम पर लीपापोती ही होने की उम्मीद है।

दिल्ली विधान सभा में अगले माह ही मतदान है। युवाओं का एक बड़ा वर्ग मतदाता भी है। एक पखवाड़े से विद्या के केंद्रों में जिस तरह की मारकाट मची है उसके बाद विद्यार्थी मतदाता किसकी झोली में जाता है यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा पर इस तरह की घटनाओं को स्वस्थ्य लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थान नहीं दिया जा सकता है।

दिल्ली पुलिस के इस कदम को सही माना जा सकता है कि इस बार उसके द्वारा जामिया में की गई गलति को नहीं दोहराया गया। इस बार पुलिस ने विश्वविद्यालय प्रशासन के बुलावे का इंतजार किया। किन्तु क्या यह दिल्ली पुलिस के लिए बहुत कठिन काम था कि जेएनयू के सारे प्रवेश द्वारों पर पहरा बिठाकर अंदर तांडव मचाने वाले लोगों को चिन्हित किया जाता! आज के इस युग में दिल्ली पुलिस चाहती तो विश्वविद्यालय प्रशासन को विश्वास में लेकर ड्रोन कैमरों की मदद से आताताईयों की सही लोकेशन पता कर ली जाती।

पिछले लगातार तीन सालों से विभिन्न तरह के विवादों के चलते यह परिसर दिल्ली का सबसे सुरक्षित परिसर भी माना जाने लगा था। लगभग आधा सैकड़ा तत्वों के द्वारा इस सुरक्षित माने जाने वाले परिसर में करीब तीन घंटे तक तांड़व मचाया गया। इस परिसर के अंदर सुरक्षा की जवाबदेही उप कुलपति की होती है। तीन घंटे अर्थात 180 मिनिट। अगर वीसी चाहते तो इसकी जानकारी मिलते ही परिसर की सुरक्षा में लगे जवानों सहित पुलिस के जवानों को भी परिसर के अंदर बुलाकर इस घमासान को रूकवाने के मार्ग प्रशस्त किए जा सकते थे।

दिल्ली पुलिस पर दिल्ली सरकार के बजाए केंद्र का नियंत्रण होता है। क्या केंद्रीय नेतृत्व को यह भान नहीं था कि देश भर के लोगों की नजरें देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली पर टिकी रहती हैं। इसके अलावा किसी भी क्षण दिल्ली के चुनावों की तारीखों की घोषणा की जा सकती थी। इस तरह की घटना के बाद दिल्ली विशेषकर दिल्ली पुलिस की छवि लोगों के बीच क्या बनेगी! इस बारे में हुक्मरानों को विचार जरूर करना चाहिए!

जिसने भी सुना वह हतप्रभ रह गया कि दिल्ली में सबसे सुरक्षित माने जाने वाले परिसर में आधा सैकड़ा आताताई मुंह पर कपड़ा बांधकर खुलेआम आए, आतंक बरपाया, मारपीट की और किसी थ्रिलर सिनेमा के एक एक्शन सीन के मानिंद पुलिस या सुरक्षा कर्मियों के हाथ में आए बिना बेदाग बाहर निकल गए! दिल्ली पुलिस के द्वारा इस पूरे मामले में जांच के लिए एक समिति बना दी गई।

इस तरह की घटना के बाद तो अब इस बात की आशंकांए भी निर्मूल नहीं मानी जा सकती हैं कि इस प्रकार की वारदात किसी भी मंत्रालय, सरकारी कार्यालय यहां तक कि मीडिया संस्थान में भी हो सकती है। यह तो खुली गुण्डागर्दी, नादिरशाही या यूं कहें चंगेज खान जैसी कार्यप्रणाली है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। देश की राजनैतिक राजधानी में रविवार को घटे घटनाक्रम की न्यायिक जांच समय सीमा में होना चाहिए। यह सामान्य घटना नहीं है। इसके लिए हुक्मरानों को स्वसंज्ञान से ही कदम उठाने चाहिए। दिल्ली देश का दिल मानी जाती है। दिल्ली से ही देश को नियंत्रित किया जाता है। अगर दिल्ली ही इस कदर असुरक्षित रहेगी तो बाकी देश में किस तरह की स्थितियां बनेंगी इस बारे में सोचकर ही रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा होना लाजिमी है।

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