नवयुवकों के लिए रोज़गार मुहैया कराना नयी सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए. इसके लिए उत्पादन क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं, जिसका देश के कुल-उत्पाद (जीडीपी) में योगदान केवल 16 प्रतिशत रह गया है. माल की खपत के लिए देश का घरेलू बाज़ार ही बहुत बड़ा है. पिछले दो दशकों में देश में तकनीकी एवं प्रबंधन क्षेत्र के कालेजों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है. यहां से उत्तीर्ण होने वाले स्नातक बाज़ार में मंदी के कारण बेरोजगारी झेल रहे हैं. इनमें से अधिकांश मध्यम-वर्गीय परिवारों से हैं और अपना धंधा खोलने का जोखिम उठा सकते हैं. इसलिए मई 2014 में आने वाली नयी सरकार को उत्पादन क्षेत्र में छोटे एवं मध्यम दर्जे के उद्योगों की संभावनाओं को तलाशना चाहिए. आजकल पड़ोसी देश चीन हमारे इस बाज़ार का खूब उपयोग कर रहा है. दिसंबर 2013 की एक खबर के अनुसार चीन-भारत व्यापार-घाटा तेज़ी से बढ़ रहा है, क्योंकि सरकार को मजबूरी में लौह अयस्क के निर्यात पर कुछ प्रतिबन्ध लगाने पड़े हैं.
यूपीए-1 के शुरू में सरकार ने इन्हीं संभावनाओं को तलाशने के लिए सैम पेत्रोदा की अध्यक्षता में “राष्ट्रीय ज्ञान आयोग” (NKC) का गठन किया था. इन्होंने सन् 2006 से 2007 के बीच शिक्षा क्षेत्र से सम्बंधित 27 विषयों पर लगभग 300 सुझाव भेजे थे. फिर मार्च 2009 में सरकार को एक पूरी रिपोर्ट भी भेजी थी. तत्कालीन प्रधानमन्त्री ने व्यक्तिगत स्तर पर आयोग से आग्रह किया था कि वे प्रशासन से मिलकर अपने नए विचारों का क्रियान्वन भी करायें. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. वास्तव में केंद्र एवं राज्य स्तर के मंत्रालय रोजमर्रा के कामों में उलझे रहते हैं. ये काम मिशन समझ कर करे जाने चाहिये. जिसके लिए नए प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में एक जीवंत संगठन बनना चाहिए. केंद्र द्वारा एक राष्ट्रव्यापी योजना बनाने की जगह राज्य सरकारों को अपने हिसाब से योजनायें बनाने दिया जाए. इससे उनके बीच एक स्पर्द्धा भी पैदा होगी. राज्य सरकारें भी “रोज़गार मिशन” के लिए प्रशासन की जगह पार्टी संगठन का उपयोग करें.
गुजरात सरकार नारायण मूर्ति की अध्यक्षता में नव-उद्यमियों के लिए एक संस्था चला रही हैं. वहां के अधिकांश विद्यार्थी या तो उद्यमी परिवारों से हैं, अथवा सेवारत रहे हैं. लेकिन राष्ट्र को जिस परिमाण में नव-उद्यमी चाहिये, उसके लिए संस्थागत मॉडल की जगह संगठनात्मक मॉडल अधिक उपयोगी होगा. इसके लिए छात्रों से कॉलेज तथा यूनिवर्सिटी स्तर पर ही योजना बनाकर संपर्क बनाना होगा. स्कूल से कॉलेज पहुंचते ही छात्र के मन में स्वयं कुछ नया करने की जबरदस्त चाह होती है. इसके लिए वे अपने-आप ही सब कुछ जुगाड़ कर लेते हैं. संगठन का काम राज्य के विभिन्न स्तर के अधिकारियों से संपर्क साध छात्रों के लिए सुविधायें उपलब्ध करानी होंगी. एक बार युवक मन से उद्यमिता के लिए तैयार हो जाए तो उनके लिए बैंक, बाज़ार आदि का ज्ञान भी आसानी से ग्राह्य हो जाएगा.
मिशन का संगठनात्मक रूप भारतीय संस्कृति के हिसाब से भी सही है. “सर्वे भवंतु सुखिनः” श्रृंखला के पांचवें लेख “मोक्ष क्या है” में सोम तथा संन्यास पर चर्चा की गयी थी. सोम वह उत्कृष्ट छात्र है जिसे “पीने” अर्थात पाने के लिए राजा इंद्र अर्थात शासनतंत्र हमेशा तैयार रहता है. उसे प्राप्त करने की विधि उतनी ही कठिन है जितनी कि सोम-बेल से सोम निकालने की विधि. सुबोध कुमार ने इसका वर्णन अपने ब्लॉग में किया है. उपरोक्त लेख में उस सन्यासी का भी वर्णन है जिसे सोम मिल गया है:
“वह पूरे उत्साह तथा निस्वार्थ-भाव से जन-कल्याण में लग जाता है. उसकी हालत ऐसी ही होती है जैसे की एक गाय की जो दूध देने के लिए अपने बछडे को देख रंभाती रहती है. अपनी विस्तृत हुई दूर-दृष्टी से वह ब्रह्मांडों से परे भी देख सकता है. साथ ही पैनी हुई सूक्ष्म-दृष्टि से कोई कोई भी विवरण उसकी निगाह से बच नहीं सकता. “संगठन का काम एक ओर छात्रों को तैयार करना होगा, वहीं दूसरी ओर स्थानीय सेवा-निवृत्त व्यक्तियों को मिशन से जोड़ना होगा. संगठन के रूप में भी इस देश में भरपूर संसाधन हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है. साथ ही यह संगठन स्वयं वित्त-पोषित भी है. इसके अलावा आज देश में 20 लाख से अधिक गैर-सरकारी संस्थान काम कर रहे हैं, जिन्हें सरकार देश के गांवों तथा शहरों में अनेक प्रकार के सेवा कार्यों के लिए धन देती है. प्रधानमंत्री के नेतृत्व से इस पूरी व्यवस्था का उत्साह बना रहेगा.